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Friday, 20 December, 2024
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बिहार विधानसभा चुनाव में कन्हैया कुमार के बदले-बदले सुर क्या इशारा करते हैं

सीपीआई और कन्हैया की मजबूरी है कि उन्हें आरजेडी को कमजोर भी करना है और उसकी मदद से भाजपा को भी हटाना है.

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बिहार विधानसभा चुनावों के लिए आरजेडी के नेतृत्व में बने महागठबंधन में सीपीआई-माले और सीपीएम समेत सीपीआई भी शामिल हो चुकी है, जिसके नेता कन्हैया कुमार लगातार चर्चा में बने हुए हैं. इस बार वो चुनाव तो नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन स्टार प्रचारक की भूमिका में जरूर हैं. ऐसे में उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो भाजपा और जेडीयू पर उसी तीखी शैली में हमला करेंगे, जिस शैली में करके उन्होंने ख्याति पाई है. हालांकि, देखने में यह मिल रहा है कि कन्हैया अब तटस्थ शैली में बोलने लगे हैं.

इस बात में कहीं कोई शक नहीं है कि लगातार सिकुड़ती जा रही सीपीआई कन्हैया के जरिए कम से कम बिहार में अपने पुनरुत्थान की संभावना देखती है, जो कि स्वाभाविक भी है. संगठन और जनाधार की कमी के कारण भले ही उसे आरजेडी के साथ गठबंधन में मात्र 6 सीटों पर लड़ने को मजबूर होना पड़ा हो, लेकिन तमाम सीपीआई समर्थक कन्हैया को भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे हैं, लेकिन इसके लिए विपक्ष में सबसे मजबूत दल आरजेडी कन्हैया की राह में सबसे बड़ी बाधा है. इस बात को सीपीआई भी जानती है और कन्हैया भी.

आरजेडी को कमजोर किए बिना नहीं उभर सकते कन्हैया

सीपीआई और कन्हैया की मजबूरी है कि उन्हें आरजेडी को कमजोर भी करना है और उसकी मदद से भाजपा को भी हटाना है. ताजा माहौल को देखते हुए आरजेडी के पक्ष में जिस तरह का माहौल बना दिखता है. उसमें कन्हैया के भाषणों के कथ्य में बदलाव ऐसी आशंका पैदा करता है कि वो आरजेडी को इतना मजबूत भी नहीं देखना चाहते कि उसे सीपीआई की जरूरत न रहे.

कन्हैया के भाषणों और साक्षात्कारों में सबसे बड़ा बदलाव ये आया है कि सीपीआई की सेंट्रल कमेटी का मेंबर बन चुकने, और बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ चुकने के बाद अब उनको याद आने लगा है कि वो ‘टिपिकल’ नेता नहीं हैं.
इसका मतलब सिर्फ अपने को तुच्छ राजनीति से ऊपर दिखाना मात्र नहीं है, बल्कि इसके बहाने वे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की कई नीतियों और कामों की सराहना भी करने लगे हैं जबकि अपने खुद के बेगूसराय चुनाव में वे अपने को ही मोदी का सबसे बड़ा विरोधी साबित करने में लगे थे.

मीडिया की लाइमलाइट में रहना ही मकसद है क्या?

मोटे तौर पर ये लगता है कि बिहार विधानसभा चुनावों में कन्हैया सीमित प्रचार ही करेंगे, लेकिन महागठबंधन का सदस्य होने के नाते मीडिया की पूरी लाइमलाइट लेने की कोशिश करेंगे. ऐसा वो शुरू भी कर चुके हैं. बिहार चुनावों की तारीखों का ऐलान होते ही तकरीबन सभी चैनलों में उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू दिखाए जा चुके हैं, जबकि महागठबंधन के सबसे बड़े नेता तेजस्वी यादव को भी इतना कवरेज नहीं मिल रहा है.

मीडिया में अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए, कन्हैया से अपेक्षा की जाती है कि वो जेडीयू-भाजपा के कुशासन और नीतीश कुमार के भ्रष्टाचार पर हमला करके महागठबंधन की मदद करेंगे, लेकिन जो इंटरव्यू उनके प्रसारित हुए हैं. उनमें वे नीतीश कुमार और भाजपा दोनों का तटस्थ विश्लषण करते दिखे हैं. कन्हैया कहते हैं- ‘मैं ना अंध विरोधी हूं ना ही अंध समर्थक. मैंने पीएचडी की है और एक रिसर्चर होने के नाते मेरा दायित्‍व है कि मैं किसी भी चीज की तटस्‍थ भाव में कमियां देखने के साथ उसकी अच्‍छाइयां भी देखूं.’


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इस तरह से कन्हैया चुनाव प्रचार में अपने विरोधी दलों की नीतियों और शैली की प्रशंसा करने वाले पहले ऐसे नेता बनना चाहते हैं तो इसका कारण यही है कि वो अपने को आरजेडी के पक्ष में खड़े होते नहीं दिखाना चाहते, जबकि आरजेडी के जनाधार का समर्थन जरूर लेना चाहते हैं.अपने साक्षात्कारों में कन्हैया ने मोदी की कई ऐसी खूबियां तक गिना डालीं, जिन पर मोदी के भक्तों तक की नजर नहीं पड़ी होगी.

क्या कहते हैं मोदी के बारे में कन्हैया

कन्हैया चुनावी बेला में महागठबंधन के घटक दल के नेता के रूप में बताते हैं कि अनुभवी राजनेता जमीनी हैं और उन्हें उखाड़ना बहुत ही मुश्किल है. कन्हैया यह भी याद दिलाते हैं कि एक साधारण गरीब परिवार को बच्‍चा भी अपनी मेहनत के बल पर पीएम बन सकता है, ये बात मोदी ने साबित की है.

सत्ता हासिल करने के बाद उसे कायम रखना भी मोदी का ऐसा गुण है जिसकी कन्हैया तारीफ करने लगे हैं.
इतना ही नहीं, जिस भाजपा पर विपक्ष को खत्म करने, और उसकी अनदेखी करने का आरोप लगता है, उसी के नेता मोदी के बारे में कन्हैया कहते हैं कि वो विपक्षियों का खुले मन से स्वागत करते हैं, उनकी अच्छाइयों को स्वीकार करते हैं. हालांकि इसके पक्ष में कन्हैया कोई उदाहरण नहीं दे पाते. राज्यसभा में जिस तरह के विपक्ष की अनदेखी करके, बहुमत न होते हुए भी किसान बिल पारित कराए, उसे देखते हुए कन्हैया कोई उदाहरण दे भी नहीं सकते थे.

यह बात कही जा सकती है कि लोकतंत्र में विरोधी नेता की तारीफ करने की इतनी उदारता तो होनी ही चाहिए, लेकिन ध्यान यह भी देना चाहिए कि कन्हैया ऐन चुनाव की घड़ी में ये बात कर रहे हैं, और वो सब कह रहे हैं जो भाजपा मोदी पर बने स्पेशल शो या डॉक्यूमेंटरीज़ में कहती रहती है.

नीतीश की भी तारीफ करते हैं कन्हैया कुमार

हैरानी करने वाली बात ये भी है कि कन्हैया कुमार केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तारीफ नहीं करते, वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भी कुछ नीतियों की तारीफ करते हैं जिनसे कि महागठबंधन का असली मुकाबला है. कन्हैया कुमार लड़कियों की साइकिल वितरण योजना का खास जिक्र करके नीतीश कुमार की तारीफ करते हैं.

खुद नीतीश भी पहले कन्हैया की तारीफ करते रहे हैं, और लगता है कि कन्हैया आगे की संभावनाएं खुली रखना चाहते हैं, इसलिए वे कहीं भी नीतीश कुमार के 15 साल के कामकाज को उस तरह से निशाना नहीं बना रहे हैं जिस तरह से महागठबंधन के एक स्टार प्रचारक से बनाने की अपेक्षा की जाती है.

आरजेडी की तरफदारी करने से भी बचते हैं कन्हैया

जब पत्रकार उनसे आरजेडी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर सवाल करते हैं, तो वे डिफेंड करने के बजाय, गोल-मोल बात करने से बच निकलते हैं. इतना जरूर है कि वो आरजेडी की आलोचना नहीं कर रहे हैं, जो कि उनकी मजबूरी भी है.

यह अब तक स्पष्ट हो चुका है कि कन्हैया तेजस्वी को एक काबिल मुख्यमंत्री के रूप में कहीं भी पेश करने नहीं जा रहे हैं. वे कॉमन मिनिमम एजेंडा पर चलने जैसी वो बातें करते हैं जिन पर आमतौर पर चुनाव नतीजे निकलने के बाद चर्चा की जाती है.

गठबंधन धर्म पर उठते सवाल

गठबंधन राजनीति के इस युग में किसी भी गठबंधन के घटक दलों के नेताओं से एक सामान्य सी अपेक्षा रहती है कि चुनाव प्रचार के दौरान वो गठबंधन की खूबियां गिनाएं, और विरोधी दलों की कमियां उजागर करें. चुनाव का वक्त तटस्थ राजनीतिक समीक्षा का तो कतई नहीं होता.

कन्हैया यह जरूर कह सकते हैं कि टीवी पर दिए इंटरव्यू आम चुनाव प्रचार से अलग होते हैं, लेकिन उन्हें यह भी याद रखना होगा कि कोरोना महामारी के कारण लगे प्रतिबंधों के बीच ज्यादातर चुनाव प्रचार तो अब ऑनलाइन, टीवी और वीडियो के जरिए ही हो रहा है. ऐसे में टीवी पर दिया साक्षात्कार किसी रैली में दिए भाषण के ही समान होता है.
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कन्हैया कुमार की इन विधानसभा चुनावों में कोई खास दिलचस्पी नहीं है, और वे इनके जरिए अपने भविष्य की किसी भी संभावना पर असर नहीं पड़ने देना चाहते. न वो तेजस्वी के समर्थक के रूप में दिखना चाहते हैं, और न नीतीश कुमार के विरोधी के रूप में. ऐसे में आरजेडी खेमे में जरूर ये सोचा जा रहा होगा कि कन्हैया को साथ लेकर उन्होंने कोई गलती तो नहीं कर दी.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)


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2 टिप्पणी

  1. मेरी नज़र में यह लेख- बिहार में चुनावों के चलते- एक भ्रमित करने वाला लेख है। मुझे यक़ीन है कि बिहार की जनता बहुत सोच समझ कर, बीजेपी को हटाने और फिर कभी न लाने के लिए, अपने अमूल्य वोट का इस्तेमाल करेगी

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