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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकमलनाथ ने मध्य प्रदेश में एक भी ऐसा काम नहीं किया कि उनकी सरकार के गिरने का लोग दुख मनाएं

कमलनाथ ने मध्य प्रदेश में एक भी ऐसा काम नहीं किया कि उनकी सरकार के गिरने का लोग दुख मनाएं

चुनावी वादों को पूरा करने में मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार पूरी तरह नाकाम रही. ऐसे में 22 विधायकों के इस्तीफे से जो सीटें खाली हुई हैं, वहां होने वाले उपचुनावों में कांग्रेस कमजोर विकेट पर होगी.

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कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी ज्वाइन करने और उनके समर्थक 22 विधायकों के विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा देने के बाद मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार आख़िर में गिर ही गयी. कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है. अपनी बदली राजनीतिक प्रतिबद्धता के बदले ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री बन पाएंगे भी या नहीं, अभी यह नहीं तय हो पाया है.

इस प्रकार उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश भी ऐसा राज्य बन गया, जहां बीजेपी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के विधायकों का इस्तीफ़ा दिलाकर सरकार को अल्पमत में ला दिया, और फिर अपनी सरकार बना ली. अब तक ये हो रहा है कि बड़ी संख्या में विधायकों के इस्तीफ़े से रिक्त होने वाली सीटों पर उन्हीं विधायकों या उनके रिश्तेदारों को टिकट देकर बीजेपी आसानी से जीत भी हासिल कर लेती है. मध्य प्रदेश में आने वाले उपचुनाव में भी उसे इसी तरह के प्रदर्शन की आशा है.

कांग्रेस नेता कमलनाथ ने अपना इस्तीफ़ा देते समय इस बात की तरफ़ इशारा किया कि आने वाले उपचुनाव में उनको अपनी सरकार की वापसी की काफ़ी उम्मीदें हैं. कांग्रेस के कई नेता भी ये कह रहे हैं कि बीजेपी की सरकार स्थायी नहीं होगी. लेकिन इस बात की बहुत कम सम्भावना है कि कांग्रेस पार्टी खाली सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी.

इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं.

पहला, कांग्रेस कैडर आधरित पार्टी नहीं है. इसलिए उसके नेता जब जाते हैं तो अपने समर्थकों को लेकर जाते हैं. उसके विधायकों को लगता है कि बीजेपी ज्वाइन कर लेने पर भी उनके समर्थक साथ बने रहेंगे. कांग्रेस पार्टी तमाम क्षेत्रीय नेताओं के अपने क्षेत्र की जनता के साथ बने पैट्रोनेज (सरपरस्ती) नेटवर्क की वजह से चलती है, इसलिए किसी बड़े नेता के पार्टी छोड़कर जाने पर कांग्रेस उस क्षेत्र में कमजोर हो जाती है.

दूसरी वजह ये है कि कमलनाथ सरकार का पिछले एक साल से ज़्यादा समय का लचर प्रदर्शन भी उसे उपचुनाव में सफलता दिलाने में आड़े आ सकता है. इतने समय में कमलनाथ अपने शासन से कोई छाप नहीं छोड़ पाए.

कमलनाथ सरकार का प्रदर्शन

डेढ़ साल पहले हुए मध्यप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस ने शिवराज सरकार में हुए व्यापाम घोटाले, मंदसौर में किसानों पर हुई गोलीबारी, दलितों पर हुए फ़र्ज़ी मुक़दमे, पिछड़े वर्गों की लगातार हो रही उपेक्षा आदि को मुद्दा बनाकर चुनाव जीत लिया था. चुनाव में मिली जीत के बाद कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच मुख्यमंत्री पद के लिए रस्साकशी हुई थी, जिसमें कांग्रेस सिंडिकेट में अपनी पकड़ की बदौलत कमलनाथ बाज़ी मार ले गए थे. उस समय राहुल गांधी ने शायद ज्योतिरादित्य सिंधिया को उपमुख्यमंत्री पद का ऑफ़र दिया था, लेकिन उन्होंने इसके लिए मना कर दिया था.


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कुल मिलाकर पिछले एक साल से ज़्यादा समय से कमलनाथ मुख्यमंत्री रहे, इसलिए यह देखना ज़रूरी हो जाता है कि विधानसभा चुनाव के दौरान किए वादों का उन्होंने सरकार बनने पर क्या किया?

व्यापाम घोटाले में कार्रवाई: विधानसभा चुनाव के दौरान व्यापम यानी सरकारी नौकरी में भर्ती घोटाला एक अहम मुद्दा था, जिस पर कांग्रेस ने सरकार बनने पर कार्रवाई का भरोसा दिया था. चूंकि यह मुद्दा राज्य सरकार की नौकरियों में होने वाले भ्रष्टाचार से जुड़ा था, इसलिए चुनाव में मध्यवर्ग और युवाओं का काफ़ी सपोर्ट कांग्रेस पार्टी को मिला था. परंतु राज्य में सरकार बनने के बाद इस मामले में कुछ भी नहीं हुआ. कमलनाथ के शासन में किसी भी बड़े नेता या अधिकारी की इस मामले में गिरफ़्तारी नहीं हुई. व्यापम के अलावा भी तमाम छोटे-मोटे घोटाले निकलकर आए, लेकिन कमलनाथ सरकार किसी भी मामले में सख्ती बरतती नहीं दिखी. राज्य के लोकसेवा आयोग से लेकर तमाम संस्थाओं को कमलनाथ पुराने तंत्र के साथ ही चलाते रहे. जबकि उसी पुराने तंत्र पर भ्रष्टाचार के छींटे थे.

किसानों पर हुई गोलीबारी का मुद्दा: मंदसौर ज़िले में किसानों पर हुई गोलीबारी के बाद किसानों का मुद्दा राज्य की चुनावी राजनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया था. कांग्रेस ने तब इस मुद्दे को लपकते हुए, इसके दोषी लोगों पर कार्रवाई करने का वादा किया था. मध्य प्रदेश में कांग्रेस का चुनाव प्रचार अभियान मंदसौर से ही शुरू हुआ था, जिसमें राहुल गांधी भी शामिल हुए थे. लेकिन आखिर तक कमलनाथ यही कहते रह गए कि सख्त कार्रवाई होगी.

किसानों की कर्जमाफी: कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के दौरान किसानों की क़र्ज़ माफ़ी का भी वादा किया था. सरकार बनने के बाद किसानों की क़र्ज़माफ़ी ठीक ढंग से नहीं लागू हुई. राज्य की ख़राब वित्तीय हालत का हवाला देकर कमलनाथ ने अपने इस वादे को पूरा करने में हीला-हवाली की. जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस मामले को लेकर सड़क पर उतरने की धमकी दी, तो कमलनाथ ने उलाहने के साथ जवाब दिया था कि ‘उतर जाएं‘. राजकाज में इतना अहंकार चलता नहीं है.

दलितों पर झूठे मुक़दमे की वापसी: विधानसभा चुनाव में चंबल-ग्वालियर संभाग में कांग्रेस पार्टी को अच्छी सफलता मिली थी. इस क्षेत्र से ज़्यादा सीटें आने की एक व्याख्या यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का यह क्षेत्र माना जाता है और विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने इस क्षेत्र में काफ़ी मेहनत की थी. दूसरी व्याख्या यह है कि दो अप्रैल, 2017 एससी-एसटी एक्ट को बचाने के लिए हुए भारत बंद में इस क्षेत्र से बहुत बड़ी संख्या में दलितों पर फ़र्ज़ी मुक़दमे दर्ज हुए थे. कांग्रेस पार्टी ने चुनाव में फ़र्ज़ी मुक़दमों को वापस करने का वादा किया था, जिसकी वजह से इस क्षेत्र के दलित मतदाताओं ने बसपा को छोड़कर, कांग्रेस के पक्ष में रणनीतिक वोटिंग की. लेकिन सरकार बनने के एक साल बाद भी दलित कार्यकर्ताओं पर मुकदमे वापस नहीं हुए. कांग्रेस से बग़ावत करने वाले ज़्यादातर विधायक इसी क्षेत्र से हैं. कहना मुश्किल है कि इस इलाके के दलित उपचुनाव में किस तरह वोटिंग करेंगे.

ओबीसी आरक्षण पर बेमन से काम: मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां बीजेपी पूर्व की जनता पार्टी की राख पर खड़ी है, जिस वजह से इन राज्यों में बीजेपी को ओबीसी का वोट बड़ी संख्या में मिलता है. मध्य प्रदेश में बीजेपी ने अपने पिछले तीनों मुख्यमंत्री- उमा भारती (लोध), बाबूलाल गौर (यादव) और शिवराज सिंह चौहान (किरार) पिछड़े वर्ग से ही बनाए, जिससे ओबीसी का वोट पार्टी को बड़ी संख्या में मिलता रहा. कांग्रेस ने बीजेपी से इस समुदाय का वोट खींचने के लिए राज्य सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण प्रतिशत को बढ़ाने का वादा किया था.

लोकसभा चुनाव के पहले एक सरकारी आदेश जारी करके ओबीसी आरक्षण 27 प्रतिशत करने की कोशिश भी की गई. लेकिन ये मामला हाईकोर्ट में फंस गया. ओबीसी के हितों को लेकर कमलनाथ और कांग्रेस इस मामले पर गंभीर नहीं दिखी. कांग्रेस कभी दम ठोककर ये कह भी नहीं पाई कि उसने ओबीसी का आरक्षण बढ़ा दिया है. वह इस मामले में दिखावे की राजनीति करती नजर आई. इस तरह उसे न तो सवर्णों का समर्थन मिला और न ही ओबीसी का.


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निगमों/आयोगों में नियुक्ति नहीं: किसी को नाराज न करने के चक्कर में कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के विभिन्न निगमों, आयोगों आदि में भी नियुक्तियां नहीं की. अगर वे ये काम कर पाते तो इससे उनकी पार्टी के विधायकों में असंतोष की सम्भावना कम हो पाती. मध्य प्रदेश जैसे राज्य में, जहां कांग्रेस कई गुटों में बटीं है, सभी खेमे के विधायकों को पद देना ज़रूरी हो जाता है. पहले भी सरकारें ये करती रही हैं. लेकिन कमलनाथ यह करने में असफल रहे. इसके अलावा कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया या किसी और युवा नेता को उपमुख्यमंत्री बनाकर भविष्य के लिए एक मज़बूत क्षेत्रीय नेता खड़ा करने पर काम कर सकती थी. लेकिन कांग्रेस इस काम में भी चूक गयी.

कुल मिलाकर, कमलनाथ ऐसा कोई भी चमकदार काम नहीं कर पाए, जिसकी वजह से उनके पक्ष में जनसमर्थन उमड़ पड़ता. इसलिए उनकी सत्ता से विदाई को लेकर किसी तरह का कोई शोक नजर नहीं आया.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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