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Sunday, 22 December, 2024
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न्याय किया जाए तो वो मिलता हुआ दिखना भी चाहिए

कहने की जरूरत नहीं कि जो न्यायप्रणाली चीफ जस्टिस तक के लिए अफसोसनाक हो जायेगी, वह खुद में लोगों का विश्वास तो घटायेगी ही, कानून हाथ में लेकर अपराधियों से मौके पर ही हिसाब बराबर कर लेने को ललचायेगी भी.

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न्याय की सर्वमान्य अवधारणा व अर्थ सुनिश्चित करना सत्ताओं व व्यवस्थाओं के लिए हमेशा एक बड़ी समस्या रहा है-प्लेटो की इस ‘रूलिंग’ के बावजूद कि न्याय में संयम, बुद्धिमानी और साहस वगैरह का मतणिकांचन संयोग होना चाहिए. भले ही उनके बाद के विचारक भी, वे उनसे सहमत रहे हों या असहमत, न्याय के नैतिकता व तर्कसंगतता के साथ कानून, धर्म, इक्विटी और निष्पक्षता पर आधारित होने पर जोर दे गये हैं. ऐसे में क्या आश्चर्य कि इक्कीसवीं शताब्दी के तेईसवें साल में भी, खुद को लोकतांत्रिक कहने वाले देशों तक के पास न्याय की कोई सर्वथा लोकतांत्रिक परिभाषा नहीं है.

अपने देश के संदर्भ में बात करें तो यह देखना बहुत त्रासद है कि संविधान के तहत निर्वाचित और उसकी शपथ लेकर सत्ता में आई सरकारों को भी {जिनसे संविधान के अनुसार बिना भेदभाव किये शासन चलाने और कानून का पालन कराने की उम्मीद की जाती है} कानून अपने हाथ में लेकर तुरत-फुरत न्याय उपलब्ध कराने में मजा आने लगा है और लम्बी, खर्चीली, उबाऊ और अंततः निराश करने वाली अदालती प्रक्रिया से पीड़ित लोगों को भी. इस मजे के नशे में झूमते हुए ये दोनों यह नहीं देख पा रहे कि इससे इतनी विडम्बनाएं पैदा हो रही हैं कि न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी का रंग भी बहस-तलब हो चला है.

यह पहला एन्काउंटर नहीं

यहां बताना जरूरी है कि हम यह बात उत्तर प्रदेश में माफिया अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ की पुलिस हिरासत में हत्या अथवा उसके बेटे असद के ‘एन्काउंटर’ के सिलसिले में ही नहीं कह रहे. ठीक है कि अतीक के इस हश्र से उससे या किसी ग्रंथि से पीड़ित लोग ‘न्याय हुआ’ महसूस कर रहे हैं और इस सिलसिले में नियम-कायदों, कानूनों व लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की सारी बातों को हवा में उड़ा दे रहे हैं. लेकिन अदालतों के बाहर तुरत-फुरत न्याय के प्रति सरकारों के झुकाव के लिहाज से देखें तो यह कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है.

याद कीजिए, 27 नवम्बर, 2019 को हैदराबाद में एक महिला वेटरनरी डॉक्टर से वहशत हुई थी तो उसे तुरत-फुरत न्याय दिलाकर सारा बखेड़ा खत्म कर देने की राह चलकर तेलंगाना पुलिस ने चार आरोपियों को पकड़कर एनकाउंटर में मार डाला था. जैसे अब कई लोग अतीक, उसके भाई और बेटे को ‘करनी का फल’ मिल जाने से कुछ ज्यादा ही खुश हैं, उक्त एनकाउंटर के लिए हैदराबाद पुलिस को भी चैतरफा वाहवाही मिली थी. जैसे उत्तर प्रदेश के जलशक्तिमंत्री स्वतंत्रदेव सिंह ने अतीक कांड के फौरन बाद ट्वीट किया था कि पाप और पुण्य का हिसाब इसी जन्म में होता है, तेलंगाना के कानून मंत्री इंद्रकरण रेड्डी ने भी कहा था कि कानूनी प्रक्रिया से पहले ही भगवान ने आरोपियों को सजा दे दी.

यह तब था, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा जस्टिस सिपुरकर की अध्यक्षता में गठित पैनल ने जनवरी, 2022 में न्यायालय को दी गई अपनी रिपोर्ट में उक्त एन्काउंटर को फर्जी पाया था और उसमें शामिल पुलिसकर्मियों पर हत्या का मुकदमा चलाने की सिफारिश की थी.


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‘तारीख पर तारीख’ वाली न्याय प्रणाली

कौन जाने कल अतीक, उसके भाई और बेटे के मामले की जांच में भी ऐसा ही कोई निष्कर्ष सामने आ जाये! लेकिन उससे न्याय पाने से आह्लादित लोगों को शायद ही कोई फर्क पड़े.

यह फर्क न पड़ने का एक ही कारण है: ‘तारीख पर तारीख’ वाली न्याय प्रणाली ने आमलोगों की न्याय तक पहुंच मुश्किल बनाकर उसे एक परिकल्पित शब्द भर बना डाला है-ऐसा फल, जिसकी कल्पना भर की जा सकती है, उसे पाया नहीं जा सकता. इसके उलट न्याय प्रणाली को लेकर किसी माफिया, गुंडे, कातिल या बलात्कारी का लहजा शायद की कभी शिकायती होता हो. क्योंकि अदालतों में लिखा भले रहता हो कि वादी का हित सर्वोच्च है, इस न्यायिक अवधारणा का, कि ‘सौ गुनाहगार छूट जायें, किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए’, लाभ वादी से ज्यादा फसादी को ही मिलता है.

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे रमेशचन्द्र लहोटी ने एक नवम्बर, 2005 को सेवानिवृत्ति के वक्त अपने विदाई भाषण के इन्हीं हालात को लेकर कहा था कि देश की सबसे बड़ी अदालत के प्रधान की कुर्सी पर बैठकर मैंने देखा कि गरीब तो उसकी चैखट तक भी नहीं पहुंच पाते. इतना ही नहीं, उन्होंने अफसोस जताया था कि वे इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सके.

कहने की जरूरत नहीं कि जो न्यायप्रणाली चीफ जस्टिस तक के लिए अफसोसनाक हो जायेगी, वह खुद में लोगों का विश्वास तो घटायेगी ही, कानून हाथ में लेकर अपराधियों से मौके पर ही हिसाब बराबर कर लेने को ललचायेगी भी. यह लालच अब इतना बढ गया है कि उसके कारण अपराधी को दंडित करने में न्याय के लोकतांत्रिक तकाजे पूरे न भी हों तो लोग परवाह नहीं करते.

जघन्य अपराधों में ‘फांसी दो, फांसी दो’ की जो मांग उठने लगती है, वह भी इसी कारण कि अपनी दूषित चेतना के बन्दी लोग समझ नहीं कर पाते कि किसी अपराध की जघन्यता के आधार पर उसके असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हुए बिना और सुनवाई में अभियुक्त को अपने बचाव का मौका दिये बिना दंडित करने की परम्परा डाली गयी तो आगे राज्य और उसकी एजेंसियों {जिनके कर्तव्यपालन की राह कर्तग्वयहीनता, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता आदि जाने कितने कांटों से भरी पड़ी है} द्वारा उसका दुरुपयोग कितनी विषम स्थिति पैदा कर देगा!

फिर तो क्या पता, सरकारी न्याय भी उन खाप पंचायतों के न्याय जैसा हो जाये, जो इक्कीसवीं सदी में भी किसी युवा जोडे के प्रेम विवाह का दंड उसे सूली पर लटकाकर देतीं और फरमान जारी करती हैं कि युवतियां मोबाइल इस्तेमाल न करें. यह भी हो सकता है कि वह नक्सलवादियों द्वारा जंगलों में ‘जन अदालतें’ लगाकर दिये जाने वाले सर्वथा बेदिल न्याय जैसा हो जाये.

गौरतलब है कि ऐसी न्यायिक अतियों की हमारे अतीत में कोई कमी नहीं रही है.

एक कथा है कि एक बार एक राजा ने अपनी सारी प्रजा के लिए सच बोलना अनिवार्य करने का आदेश जारी कर उसके उल्लंघन पर मृत्युदंड देने का एलान कर दिया. राज्य की सीमाओं पर चैकियां बनवाकर उनमें अधिकारी भी तैनात कर दिये, जो किसी के सत्यवादी होने को लेकर आश्वस्त होने के बाद ही राज्य में प्रवेश दें. मंत्री ने राजा के आदेश पर यह कहकर एतराज जताया कि आमतौर पर सच के कई कोण होते हैं और जरूरी नहीं कि जो बात एक पक्ष के लिए सच हो, दूसरे पक्ष के लिए भी हो, तो राजा से उसे भी सच न बोलने का कुसूरवार करार देकर राज्य से निर्वासित कर दिया. यह कहकर कि मंत्री होने के नाते वह उसके साथ इतनी रियायत बरत रहा है कि मृत्युदंड नहीं दे रहा.

लेकिन अगले दिन मंत्री एक सीमा चैकी पर राज्य में प्रवेश चाहने वालों की पांत में सबसे आगे आ खड़ा हुआ. चकित अधिकारियों ने कहा, ‘अरे मंत्री जी, अभी कल ही आपको प्राणदान मिला और आज फिर अपने प्राण संकट में डालने आ गये! आखिर चाहते क्या है?’ मंत्री ने छूटते ही कहा, ‘फांसी पर लटकना चाहता हूं.’

अधिकारी चकराकर रह गये. यों तो, मंत्री ने झूठ बोला, जिसकी सजा फांसी है. लेकिन फांसी पर लटका दें तो उसकी बात सच हो जाती है, जिसके लिए कोई दंड ही नहीं है. वे देर तक कोई फैसला नहीं कर पाये तो बात राजा तक पहुंचाई. गनीमत थी कि राजा को अपने आदेश के अनर्थ का अहसास हो गया, उसने मंत्री से माफी मांगी और आदेश वापस ले लिया.

न्याय होना ही पर्याप्त नहीं, न्याय होता हुआ दिखना भी होता है

उस स्थिति के मुकाबले आज हम खुशकिस्मत हैं कि राजतंत्र को नकारकर राजा के कहे को ही न्याय मानने की विवशता से छुटकारा पा चुके हैं. इतना ही नहीं, लोकतंत्र में सांस लेते हुए राज्य के स्वार्थों से स्वतंत्र न्यायपालिका से बेहतर न्याय की उम्मीद कर सकते हैं. लेकिन अफसोस कि सरकारें हैं कि अदालतों में न्याय में भारी विलम्ब के चलते कई बार न्याय के न्याय ही न रह जाने की आड़ लेकर कानून अपने हाथ में लेकर तुरत-फुरत न्याय की पक्षधर हो चली जनभावनाओं के दौहन की आकांक्षी हो गयी हैं. वे इतना समझने भर को भी विवेक नहीं बचा पाई हैं कि लोकतंत्र में न्याय होना ही पर्याप्त नहीं माना जाता, न्याय को होता हुआ दिखना भी होता है. ये सरकारें कभी सबके लिए सामाजिक न्याय की बात करती थीं और अब सामान्य न्याय भी उपलब्ध नहीं करा पा रहीं.

है कोई जो उनसे कम से कम इसके लिए खेद व्यक्त करवा सके कि वे न्याय करने चलती हैं तो भी ‘अपना-पराया’ करने लगती हैं और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा ‘जयद्रथ वध’ में दी गई यह सीख भूल जाती हैं कि ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है’.

(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन- आशा शाह)


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