पूर्व वायुसेना अध्यक्ष एअर चीफ मार्शल आर.के.एस. भदौरिया ने भाजपा में शामिल होकर देश की सेनाओं के कथित राजनीतिकरण को लेकर बहस को फिर से तेज कर दिया है. इस खबर पर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं उनसे यह स्पष्ट है कि इस मसले पर मतभेद हैं. इस मामले को कई तथ्यों—सामाजिक, संगठनात्मक, और व्यक्तिगत तथ्यों— के मद्देनजर आंका जाना चाहिए.
सेनाएं जिन लोगों से गठित होती हैं वे लोग उसी समुदाय से आते हैं जिसकी वे सेवा करते हैं और जिनकी रक्षा करने की वे शपथ लेते हैं. वर्दी वाली सेवा, उसके साथ जुड़ी तमाम सीमाओं का पालन करते हुए पूरी करने के बाद ये सैनिक अंततः उसी समाज में लौटते हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वर्दी में होते हुए वे समुदाय के हिस्से नहीं हैं, इसका मतलब सिर्फ यह है कि वे अलग तरह के नियमों-कानूनों से संचालित होते हैं और उनका आकलन अलग मानदंडों से किया जाता है.
क्या सेना के लोग राजनीति में जा सकते हैं?
समाज सैनिक को ऊंचे पायदान पर रखता है और सेना से उसका सर्वश्रेष्ठ पाने की उम्मीद रखता है, और कुछ नहीं. ड्यूटी पर हो या छुट्टी पर, हमेशा लोगों की नजर में रहना— यह ऐसी सलीब है जिसे ढोना कठिन होता है. सैनिक को जिस ऊंचे सम्मान की नजर से देखा जाता है उसके मद्देनजर यह प्रशंसा की बात होनी चाहिए कि ऐसी क्षमता वाले लोग सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति की हंगामाखेज दुनिया में कदम रखें. वैसे भी, ऐसी कोई संवैधानिक या वैधानिक रोक नहीं है कि सेनाओं के अध्यक्ष या दूसरे फौजी सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीतिक दल में शामिल नहीं हो सकते.
वैसे, सेना अपने सभी सेवारत कर्मियों पर कुछ पाबंदियां लगाती है, खासकर उनके मौलिक अधिकारों पर ताकि वे अनुशासन बनाए रखें और कर्तव्यों का समुचित पालन करें. हालांकि, संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है लेकिन इसका अनुच्छेद 33 संसद को यह अधिकार देता है कि वह सैनिकों तथा अन्य लोगों के इन अधिकारों पर पाबंदी लगा सकती है उन्हें खत्म कर सकती है. सेना के लोगों को अभिव्यक्ति की सीमित स्वतंत्रता दी गई है, खासकर सैन्य मामलों और राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों के बारे में. कर्मचारी संघ या यूनियन बनाने के उनके अधिकार पर पाबंदी लगा दी गई है. इसके अलावा, सभी दर्जे के सैनिकों को किसी राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने की छूट नहीं है और उनसे अ-राजनीतिक रहने की अपेक्षा की जाती है. ये पाबंदियां इसलिए लगाई गई हैं ताकि सेना की ईमानदारी और उसका प्रभाव कायम रहे और वे बिना किसी बाधा या बिना हितों के किसी टकराव के काम कर सकें.
राजनीतिक गतिविधियों से संबंधित इस मुद्दे को अक्सर गलत समझा जाता है. सेवारत सैनिक को किसी राजनीतिक रैली में भाग लेने या किसी राजनीतिक दल में शामिल होने की छूट नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सैनिक मतदान करने के अपने मौलिक अधिकार का उपयोग नहीं कर सकते. एक संगठन के तौर पर सेना को अ-राजनीतिक रहना है, न कि उसके कर्मियों को. व्यक्ति के तौर पर वे किसी भी दल को अपना वोट दे सकते हैं. इसके अलावा, सेना संगठन के तौर पर ऐसा कोई ‘व्हिप’ नहीं जारी करती कि वे वोट दें या न दें.
सेवा शर्तों के मुताबिक मताधिकार का उपयोग पोस्टल बैलट के जरिए किया जा सकता है, जो कि अपने आप में थकाऊ प्रक्रिया है. निरंतर स्थानांतरण के कारण पोस्टल मतदान अक्सर देर से मिलते हैं या नहीं ही मिलते हैं. इसके अलावा, इन वोटों पर तभी विचार किया जाता है जब उस चुनाव क्षेत्र में विजेता उम्मीदवार की जीत का अंतर कुल पोस्टल मतपत्रों की संख्या से कम हो. इसलिए, व्यवहार में इनका बहुत महत्व नहीं होता. ऐसे नियम बनाए गए हैं कि सैनिक जहां तैनात हैं वहीं मतदान कर सकें लेकिन इसका भी असर नगण्य होता है.
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अधिकार और कर्तव्य में फर्क
इन सभी बातों को ध्यान में रखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि सेना के लोग अपने मताधिकार का उपयोग कर सकें इसकी तमाम सुविधाओं के बावजूद यह लगभग अधूरा ही रहता है. इस तरह संयोग से यह संगठन अ-राजनीतिक ही बना रहता है, जैसा कि इसे होना भी चाहिए. सेना के सभी कर्मचारी मान्य क़ानूनों का पालन करते हुए संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की शपथ लेते हैं और तत्कालीन सरकार और रक्षा मंत्री के कार्यालय के रूप में कार्यपालिका के जरिए संसद के प्रति जवाबदेह होते हैं. तत्कालीन सरकार के प्रति जवाबदेह होने का अर्थ सेना का राजनीतिकरण कतई नहीं है. यह एक हकीकत है.
यह हमें व्यक्तिगत अधिकारों, सेवा काल और सेवानिवृत्ति के बाद भी ‘परेड’ वाली स्थिति में रहने के सवाल के सामने ला खड़ा करता है. सेना जबकि व्यक्तिगत अधिकारों पर कुछ पाबंदी लगाती है, लेकिन यह सेवा काल के दौरान या सेना का प्रतिनिधित्व करने की स्थिति में लगाई जाती है. सेवा से हटने के बाद सैनिक आम नागरिकों की तरह तमाम स्वाधीनताओं का लाभ उठाते हैं जिनमें संविधान की प्रस्तावना के तहत हासिल न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा का उपभोग करते हैं. वे अपने समुदाय के रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करने के लिए भी स्वतंत्र होते हैं. उदाहरण के लिए, अगर वे किसी ऐसे धर्मस्थल की तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां उन्हें दाढ़ी रखना जरूरी है और सैन्य कार्रवाई की दृष्टि से मान्य है तो उन्हें इसकी इजाजत दी जाती है. एक लोकतांत्रिक देश में यह व्यक्तिगत स्वाधीनता का मामला है.
इसी तरह, सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति में शामिल होना या न होना, व्यक्तिगत फैसले पर निर्भर है. सेना के कई सेवानिवृत्त अधिकारी राजनीतिक क्षेत्र में सफल हुए हैं और सार्वजनिक जीवन को उनकी नेतृत्व क्षमता और अनुभवों का लाभ मिला है. इसमें शक नहीं कि कई सेवानिवृत्त सैनिकों ने अपने गहरे अनुभव और अनुशासन के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा और नीति निर्माण के क्षेत्रों में अहम योगदान दिया है.
ऐसे सैनिक अगर चुनाव के मैदान में उतरते हैं तो यह समाज और फौजी बिरादरी के लिए भी गर्व का विषय होना चाहिए. ऐसे और सैनिकों को इसके लिए प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है. लेकिन राजनीति में उतारने का यह फैसला तो अंततः सेवानिवृत्त सैनिकों की व्यक्तिगत आकांक्षाओं और देश के लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर निर्भर करता है. जो भी हो, उनकी जो भी पृष्ठभूमि हो या वे जिस पार्टी से भी जुड़ें, उन्हें जनता का सामना करना पड़ेगा और बहुमत में उनका वोट हासिल करना पड़ेगा. लोकतंत्र यही तो है, और यही भारत को अपने पड़ोसियों से अलग साबित करता है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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