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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतनौकरियां अब लाखों लोगों की यादों में बसी कहानियां बनकर ही न रह जाएं, यदि प्रवासी नहीं लौटते तो उत्पादकता भी स्मृति होगी

नौकरियां अब लाखों लोगों की यादों में बसी कहानियां बनकर ही न रह जाएं, यदि प्रवासी नहीं लौटते तो उत्पादकता भी स्मृति होगी

लाखों लोग ऐसे हैं जो रोजगार को अब यादों का हिस्सा मान कर कामगारों की जमात से अलग हो चुके हैं. बढ़ती आबादी में छोटे वर्कफोर्स के कारण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को झटका लगेगा .

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कोविड-19 के दौर के बारे में सबसे ज्यादा यह याद आएगा कि इसके कारण जितनी बड़ी तादाद में लोग बेरोजगार हुए उतने तो दशकों पहले हुई भारी मंदी में भी नहीं हुए थे. उस मंदी ने जॉन स्टीनबेक की ‘द ग्रेप्स ऑफ रैथ’ और स्टड्स टेर्केल की ‘हार्ड टाइम्स : ऐन ओरल हिस्टरी ऑफ द ग्रेट डिप्रेसन’ सरीखी क्लासिक रचनाएं दी. स्टीनबेक ने नोबल पुरस्कार दिलाने वाले इस उपन्यास को कथेतर विधा में लिखा, इसलिए स्टालिन ने इस पर कथित रूप से इसलिए प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि वह यह नहीं चाहता था कि रूसी लोग यह जान जाएं कि गरीब अमेरिकी भी एक कार रख सकते थे (उस समय फोर्ड की टी मॉडल कार एक औसत परिवार के चार महीने के वेतन में आ जाती थी).

तो आज यह सवाल उठ सकता है कि रूस से किस तरह का साहित्य सामने आएगा, जबकि अप्रैल के अंत तक वहां मॉस्को को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में 78 फीसदी कर्मचारी बेरोजगार हो गए. यह खबर ‘फाइनेंसियल टाइम्स’ में आर्थिक विकास मंत्री के हवाले से दी गई है. आर्थिक गतिविधियों और टैक्स से आय में 30 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आई है.

उधर अमेरिका में बेरोजगारी 15 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है, और यह उस स्तर को छूने वाली है जिस स्तर पर यह 1939 में थी जब ‘ग्रेप्स…’ का प्रकाशन हुआ था. भारत में यह 27 फीसदी हो चुकी है, यानी ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनोमी’ के मुताबिक 12.2 करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके हैं. इनमें से 9.1 करोड़ लोग अकेले अप्रैल में बेरोजगार हुए, जिनमें से ज़्यादातर छोटे व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर हैं.


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हमारे प्रवासी मजदूरों की मौखिक कहानियां टेप रेकॉर्डर लिये किसी भारतीय स्टड्स टेर्केल का इंतज़ार कर रही हैं. ‘ग्रेप्स…’ के जोड फेमिली के पास तो एक कार थी और उसे मार्ग 66 पर सैकड़ों मील पैदल नहीं चलना पड़ा था, या थककर चूर हो जाने के बाद रेल पटरी पर ही नहीं सो जाना पड़ा था. और चीन में तो कोविड के कदम रखने से पहले ही भारी बदलाव शुरू हो गए थे, 2019 में उद्योगों में 1 करोड़ रोजगार खत्म हो चुके थे, जबकि 2015-18 के बीच 2 करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके थे.

यानी 10 करोड़ औद्योगिक रोजगारों में से सिर्फ 7 करोड़ बच गए थे. वैश्विक अर्थव्यवस्था आज जब सिकुड़ रही है और एक-के-बाद-एक हर देश ‘चीन की ओर ग्रेट वाल’ खड़ा करने के बारे में सोच रहा है, तब और अधिक औद्योगिक रोजगारों का खत्म होना निश्चित लग रहा है. इसके जवाब में भारत में कुछ मुख्यमंत्री खतरनाक रूप से यह सोच रहे हैं कि वे अधिकतर श्रम क़ानूनों को निलंबित करके, या प्रवासी मजदूरों को बंधुआ बनाकर वे उन रोजगारों को आकर्षित कर सकते हैं. कोविड ने जो उथलपुथल मचाई है उसके ऊपर वे एक नयी अराजकता को बुलावा दे रहे हैं.

भविष्य कई सवालों को जन्म दे रहा है. अगर ज्यादा लोग घर से काम करने लगेंगे तब क्या लोग पहले की तरह कार खरीदेंगे? कमर्शियल बिल्डिंगों में तब कितनी जगह खाली हो जाएगी और तब सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले तीन महकमों में से एक, कंस्ट्रक्सन उद्योग का क्या होगा? वैसे भी, घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों में से कितने फिर से झोपड़पट्टियों में लौट कर एक बार फिर जीवन-मृत्यु की लड़ाई का खतरा मोल लेंगे? क्या उन्हें वापस लौटाने के लिए नियोक्ता बेहतर कार्य-शर्तों की पेशकश करेंगे? मुख्यमंत्रीगण उनसे यह करने के लिए तो कह भी नहीं रहे हैं.

जो भी हो, लाखों लोग ऐसे हैं जो रोजगार को अब यादों का हिस्सा मान कर कामगारों की जमात से अलग हो चुके हैं. बढ़ती आबादी में छोटे वर्कफोर्स के कारण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को झटका लगेगा. क्या इसका कोई जनसांख्यिकीय लाभ होगा?


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इस संकट में नेताओं का क्या होगा? कोविड के शुरुआती दौर में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने वाले सत्ताधारी नेताओं को महामारी के फैलाव के साथ अपने समर्थकों की संख्या घटती नज़र आ रही है. अपनी रेटिंग पर दावे करने वाले डोनाल्ड ट्रंप जनमत सर्वे में जो बिडेन से काफी पीछे चले गए हैं. रूस के सर्वेसर्वा व्लादिमीर पुतिन 20 साल में अपनी लोकप्रियता के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके हैं.

शिन जिंपिंग को चीन में भी और दुनिया भर में भी अभूतपूर्व आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. ट्रंप की तरह कोविड को अनदेखा करने वाले ब्राज़ील के जाइर बोल्सोनारो व्यवसाय जगत में अपना समर्थन लगभग गंवा चुके हैं और अब वे केवल अपने पक्के समर्थकों के सहारे रह गए हैं जो उनके तानाशाही तरीकों का समर्थन करते हैं.

ब्रिटेन के बोरिस जॉनसन, जिन्होंने महामारी से लड़ने की रणनीति बीच में बदली, यूरोप में इस महामारी के कारण सबसे ज्यादा मौतों के लिए भारी आलोचना का सामना कर रहे हैं. लेकिन ये सब-के-सब उस्ताद राजनीतिक नेता हैं और अपनी-अपनी गद्दी बचा ले जा सकते हैं.

किस्मत से कुछ हीरो भी सामने आए है. केरल की स्वास्थ्य मंत्री के.के. शैलजा कुछ अच्छी हस्तियों (सभी महिलाएं) की इस जमात में शामिल हैं जिसमें सान फ्रांसिस्को की मेयर लंदन ब्रीड (अब तक केवल 31 मौतें, जबकि न्यू यॉर्क सिटी में 10,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी है) न्यू जीलैंड की प्रधानमंत्री जाकिंडा आर्डेन (21 मौतें) भी हैं, जिन्होंने जल्दी पहल की और निर्णायक कदम उठाए.

(इस आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. द प्रिंट का बहुत-बहुत धन्यवाद!
    यह ख़बर नहीं समझ है। इस प्रकार के आर्टिक हमारे दिमाग के आयाम को और विस्तारित करते हैं। इस प्रकार के आर्टिकल्स को निरंतर प्रकाशित करते रहें, जिससे हमारी समझ और समझदारी विकसित हो सके। इस प्रकार के लेख ही हमें बताते हैं, कि हिन्दी जगत में खास तौर पर पत्रकारिता के क्षेत्र में उम्मदा लोग मौजूद हैं, जो न्यूज नहीं व्यूज देने में विश्वास रखते हैं। और विश्वास रखते हैं, भारत एवं पाठक को समझदार बनाने में। आखिरकार यही तो फर्क है न, पढ़े-लिखे और समझदार होने में।
    एक बार पुनः द प्रिंट की टीम को साधुवाद…

  2. धन्यवाद आपको! बहुत अच्छे से अपने समझाया…हालांकि मन में एक ये भय भी हो आया कि आगे न जाने क्या होगा…

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