हाथरस में एक वाल्मीकि दलित महिला का, चार ऊंची जाति के ठाकुरों के हाथों बेख़ौफ तरीक़े से बलात्कार और हत्या, और इस जघन्य अपराध पर, उत्तर प्रदेश सरकार की घटिया प्रतिक्रिया ने, आख़िरकार लोगों को इतना हिला दिया, कि वो फिर से सड़कों पर उतर आए हैं. इससे पहले, लोकतंत्र के संवैधानिक मूल्यों को बचाने के लिए, हमारे देशव्यापी सीएए/एनआरसी विरोधी आंदोलन के बाद, अलोकतांत्रिक गिरफ्तारियों का एक लंबा सिलसिला चला था.
जिस चीज़ ने लोगों को स्तब्ध कर दिया है, वो है इस सब की निर्लज्जता- यूपी पुलिस द्वारा परिवार की अनुपस्थिति में, पीड़िता के शव के देर रात आनन-फानन में दाह संस्कार से लेकर, हाथरस ज़िला प्रशासन द्वारा सीमाओं को सील करके, पत्रकारों के घुसने पर प्रतिबंध लगाने तक. यूपी प्रशासन ने केवल मीडिया को प्रतिबंधित नहीं किया, ऐसा करके उसने उन्हें प्रेस की आज़ादी के मौलिक अधिकार से भी वंचित कर दिया. सबसे बड़े विपक्षी दल के दो चेहरों- राहुल और प्रियंका गांधी को भी रोका गया, और यूपी पुलिस ने कथित रूप से उनकी पिटाई भी की.
दिल्ली-यूपी सीमाएं प्रभावकारी रूप से बंद कर दी गईं हैं, और नोएडा इलाक़े में भारी पुलिस गश्त हो रही है. योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में यूपी प्रशासन, अधिकारियों पर ये दिखाने के लिए दबाव बना रहा है, कि ये गैंगरेप का मामला नहीं था, जबकि अलीगढ़ अस्पताल की एमएलसी रिपोर्ट कुछ और कहती है. चारों कथित बलात्कारी ठाकुर हैं, जो राजनीतिक रूप से एक प्रभावी समुदाय है. सीएम योगी आदित्यनाथ भी इसी समुदाय से हैं.
जहां तक इस जांच का सवाल है, मुझे यूपी पुलिस पर भरोसा नहीं है. न ही सीबीआई पर है. इस केस में स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच, कोई एसआईटी ही कर सकती है, जिसमें दो जांच अधिकारी पीड़िता के परिवार द्वारा सुझाए हुए हों. इसके लिए दलित नेताओं, और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं या वकीलों को, परिवार से मिलने की अनुमति मिलनी चाहिए, ताकि वो उन्हें ऐसे जांच अधिकारियों के नाम सुझाने पर राज़ी कर सकें, जिनकी निष्ठा बेदाग़ हो. लेकिन ये देखते हुए कि बाजेपी के राज में यूपी और भारत का हाल क्या हो गया है, ये संभावना बहुत कम दिखती है.
लेकिन विरोध प्रदर्शन भड़क उठने के बाद से, ये घटनाक्रम जितना चिंताजनक रहा है, मेरे और मेरे जैसी सोच वाले बहुत से लोगों के दिमाग़ में, एक सवाल बार बार उठ रहा है: क्या ऐसे आंदोलनों का कोई असर होगा? क्या हम किसी वास्तविक बदलाव की, अपेक्षा कर सकते हैं, चाहे जो कितना भी छोटा क्यों न हो?
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जाति-केंद्रित बलात्कार भारत के पितृ सत्तात्मक समाज की एक वास्तविकता
इस संदेह को समझने के लिए, हमें अपने सामाजिक-राजनीतिक इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है. बलात्कार भारत के पितृसत्तात्मक समाज की एक वास्तविकता है, और जाति पर आधारित रेप भी, हमारी सामंती व मनुवादी व्यवस्था की एक सच्चाई है. 1970 के दशक में मथुरा कस्टोडियल रेप, एक ऐतिहासिक केस बन गया- एक आदिवासी-बहुजन लड़की का महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में दो पुलिसकर्मियों ने बलात्कार कर लिया. इस केस का समापन उच्चतम न्यायालय के एक चौंकाने वाले फैसले से हुआ, जिसने अभियुक्तों को बरी कर दिया, और कहा कि वो रेप नहीं हो सकता था, क्योंकि ‘उसके शरीर पर घावों के कोई निशान नहीं थे, जिससे पता चलता है कि कोई संघर्ष नहीं था, और इसलिए वो रेप नहीं था’. इस फैसले ने सिविल सोसाइटी, नारीवादी समूहों, और कानूनी बिरादरी के विवेक को झकझोर दिया. हज़ारों लोग विरोध में सड़कों पर उतर आए, फैसले के खिलाफ लेख लिखे गए, अभियान चलाए गए, और आंदोलन के नतीजे में आख़िरकार, भारत के बलात्कार क़ानून में बड़े बदलाव किए गए.
1990 के दशक में भी, ग्रामीण राजस्थान में एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता के गैंगरेप के बाद, यही घटनाक्रम देखने को मिला. भंवरी देवी का बलात्कार गुर्जर लोगों ने किया था, लेकिन निचली आदालत के जज ने, ये कहते हुए अभियुक्तों को बरी कर दिया, ‘वो ये अपराध कर ही नहीं सकते थे. ऊंची जाति का आदमी निचली जाति की महिला का रेप करके, ख़ुद को अशुद्ध नहीं करेगा’. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989, तब तक लागू नहीं हुआ था. अभियुक्तों के बरी होते ही, फैसले के खिलाफ देशव्यापी आंदोनल शुरू हो गया. मथुरा की तरह, भंवरी देवी की कहानी ने भी व्यापक विरोध प्रदर्शन, नारीवादी विद्रोह, और राजनीतिक बदलाव को हवा दे दी, जिससे अंतत: भारत के कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न क़ानून में, हमेशा के लिए एक बदलाव कर दिया गया. हमें वापस इन कहानियों पर नज़र डालने की ज़रूरत है, ये देखने के लिए कि दलित और आदिवासी महिलाएं, किस तरह हमारी क़ानूनी व्यवस्था और समाज के हाथों, इंसाफ से हमेशा वंचित रही हैं. ऐसी घटनाएं राजनीतिक संदर्भ में, तब और अब में आए एक अहम बदलाव पर भी रोशनी डालती हैं.
उस समय इन मामलों में ऊंची जाति वाले, या ताक़तवर अपराधियों को कोई क़ानूनी सज़ा नहीं मिली, लेकिन इसके साथ ही भारत के बलात्कार क़ानूनों में, हमेशा के लिए कुछ बड़े बदलाव हो गए. आज, एक ऐसे इंसान के नाते, जिसने ऊना और रोहिल वेमुला की संस्थागत हत्या, और अब वाल्मीकि गैंगरेप पीड़िता के लिए आंदोलनों में हिस्सा लिया, मुझे डर है कि किसी ठोस जीत के आसार घट रहे हैं. पिछली सरकारें कार्यकर्ताओं के प्रति उदासीन होती थीं, लेकिन आज सरकार न सिर्फ उदासीन है, बल्कि हमें अपराधी बनाने में एक सक्रिय सहभागी है.
ऊना, वेमुला आंदोलनों से मैंने क्या सीखा
2016 की ऊना घटना के- जिसमें गौ रक्षकों ने एक दलित परिवार के सात सदस्यों पर हमला किया था- फिल्माए जाने और वीडियो के साझा किए जाने के बावजूद, बीजेपी से जुड़े अपराधियों को ऐसे ही छोड़ दिया गया, लेकिन आयोजकों की हमारी टीम को, जिसमें मैं भी था, कई मामलों में धर लिया गया, और शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने पर हमारे खिलाफ प्राथमिकियां दर्ज कर ली गईं. मेरे साथी कार्यकर्ता, जिन्होंने ऊना यात्रा के बाद, दलितों के लिए ज़मीन की मांग की थी, अपनी आवाज़ उठाने के जुर्म में, आज तक स्थानीय अदालतों में पेशियां लगा रहे हैं. इसी तरह रोहित वेमुला की मां राधिका को भी, बीजेपी लगातार बदनाम करती रही. 2018 का भीमा कोरेगांव समारोह, जो दलित असंतोष का शक्तिशाली प्रतीक था, उसे ‘शहरी नक्सलियों’ का जमावड़ा क़रार दे दिया गया है, और आनंद तालतुंबे व सुधा भारद्वाज जैसे, बहुत से वरिष्ठ कार्यकर्ता और वकील, इस समय जेल में बंद हैं.
हालांकि बहुत ज़रूरी है कि हम उम्मीद न छोड़ें, और हाथरस प्रदर्शनों में भी इंसाफ की उम्मीद रखें, लेकिन एक दमन की भावना स्पष्ट दिख रही है. आज हम किसानों और जाति-विरोधी आवाज़ों को सड़कों पर देख रहे हैं, लेकिन यूपी के दो पूर्व मुख्यमंत्री- मायावती और अखिलेश यादव- अभी तक पीड़िता से मिलने हाथरस नहीं गए हैं. ख़ामोश कर देने की बीजेपी की ताक़त साफ दिख रही है.
योगी सरकार आसानी से कांग्रेसी नेताओं को कुचलकर निकल सकती है. इसी तरह मीडिया को भी, जिसने दिसम्बर 2012 के दिल्ली गैंगरेप में, यूपीए सरकार के खिलाफ खुलकर नाराज़गी दिखाई थी, आज राज्य सरकार की उपेक्षा और जाति की भूमिका पर, सवाल पूछने में शर्मा रहा है. पड़ोसी बलरामपुर में जहां एक और दलित महिला का रेप हुआ, वहां दक्षिण पंथी न्यूज़ मीडिया के लिए, कथित बलात्कारी की मुस्लिम पहचान ज़्यादा अहम बन गई. हाथरस में ठाकुर आरोपियों को लेकर एक भी आवाज़ नहीं उठी है.
दलितों के खिलाफ अपराध हमेशा से चले आ रहे हैं, और हम भी ऐसे ही विरोध करते आ रहे हैं, जैसे आज करते हैं. लेकिन हिंदुत्ववादी सरकार के रहते, किसी भी जाति-विरोधी आंदोलन से, कोई सकारात्मक राजनीतिक बदलाव आएगा, ये कहना बहुत मुश्किल है. जितना मैं समझता हूं, अगर इस सरकार के साथ कुछ वास्तविक बदलाव देखना है, तो हमें वास्तव में एक व्यापक आधार के गठबंधन की ज़रूरत होगी, जिसमें ख़ासकर सभी वर्गों के श्रमिक और श्रमिक आंदोलन शामिल हो सकें. अभी तक, श्रमिकों का रोष सिर्फ थोड़े समय के लिए, प्रवासियों के जन-पलायन के समय देखा गया है. अस्ली सवाल ये है कि आने वाले वर्षों में, क्या इसे वास्तविक रूप से, एक लंबे विरोध प्रदर्शन के रूप में क़ायम रखा जा सकता है.
जिग्नेश मेवानी गुजरात विधान सभा में एक निर्दलीय विधायक हैं, और राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के संयोजक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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(लेखक गुजरात के वडगाम विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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