भारत का पहला राष्ट्रपति कौन बनेगा, इस बारे में अखबारों में अटकले अप्रैल 1949 में ही शुरू हो गई थीं. सी. राजगोपालाचारी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद, दोनों इस लिहाज से बराबर कद के उम्मीदवार माने जा रहे थे. राजाजी गवर्नर जनरल थे और राजेंद्र बाबू संविधान सभा के अध्यक्ष थे, जिसे देश का पहला राष्ट्रपति चुनना था. संविधान सभा का कामकाज सितंबर 1949 तक लगभग पूरा हो गया था और नया संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू होने वाला था.
अटकलें और गप्पों को हतोत्साहित करने के लिए राजेंद्र बाबू ने 10 जून 1949 को निम्नलिखित बयान जारी किया-
‘सम्मान के किसी पद के लिए राजाजी और मेरे बीच किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता का कोई सवाल नहीं उठता. इसलिए मैं सबको आगाह करना चाहता हूं कि वे इस तरह के किसी प्रोपगैंडा से धोखे में न पड़ें. मैं सबसे यही आग्रह करता हूं कि वे इस तरह का कोई प्रोपगैंडा न करें.’
इसके बाद मामला कुछ समय के लिए शांत हुआ. वैसे, नेहरू ने कांग्रेस के नेताओं से राय-मशविरा किए बिना राजाजी के पक्ष में फैसला कर लिया था. राजेंद्र बाबू का पत्ता काटने के लिए उन्होंने 10 सितंबर 1949 को लिख भेजा-
‘संविधान सभा का अधिवेशन खत्म होने को है. जल्दी ही हमें गणतंत्र के राष्ट्रपति के चुनाव के तरीके के बारे में विचार करना होगा… मैंने इस मामले पर वल्लभभाई से बात की है और हमें लगता है कि… राजाजी राष्ट्रपति बने रह सकते हैं… इसीलिए वल्लभभाई को और मुझे लगा कि राजाजी का नाम आप सर्वसम्मति से चुनाव के लिए पेश करें…’
राजेंद्र बाबू ने 11 सितंबर 1949 क¨ इसका लंबा जवाब उन्हें लिख भेजा और इसकी प्रति पटेल को भी भेजी. वे बहुत आहत थे और उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया था कि पटेल और नेहरू उन्हें निर्देश दे रहे हैं-
‘इतनी लंबी चिट्ठी के लिए और मेरी इस भावना के लिए माफ कीजिएगा कि मैं यह महसूस कर रहा हूं कि मैं इससे बेहतर विदाई का हकदार था, खासकर इसलिए कि मैं इसमें दाखिल ही नहीं होना चाहता था…’
पटेल एकदम हैरान थे कि नेहरू ने इस मामले पर उनसे बात किए बिना उनका नाम घसीट लिया था. 11 सितंबर 1949 को नेहरू ने राजेंद्र बाबू को जवाब लिखा और इसकी प्रति पटेल को भेजी-
‘मैंने आपको जो कुछ लिखा, उसमें वल्लभभाई का किसी तरह से कोई लेना-देना नहीं है. यह मैंने पूरी तरह अपनी ओर से लिखा और वल्लभभाई से इस बारे में कोई बात नहीं की… वे नहीं जानते कि मैंने आपको पत्र लिखा है. अगर मैंने आपको किसी तरह आहत किया है या आपके मन में यह एहसास पैदा किया है कि मैं आपका आदर या आपकी फिक्र नहीं करता, तो मुझे गहरा दुख है.’
नेहरू राजाजी को इसलिए चाहते थे क्योंकि उन्होंने बड़े राजनयिक प्रतिनिधिमंडलों की अगवानी करने के तौरतरीके और शिष्टाचार सीख लिये थे-
“इन तौरतरीके और प्रोटोकॉल की नफासत को राजाजी ने धीरे-धीरे अपना लिया था. बदलाव का मतलब यह होता कि इस पूरी प्रक्रिया को फिर से दोहराया जाता. इन्हीं वजहों से मुझे लगा कि राजाजी ही बने रहें.”
नेहरू और राजेंद्र बाबू, दोनों पटेल को भी अपने पत्र भेजते रहते थे. पटेल ने 16 सितंबर 1949 को लिखा-
‘… ऊपर मैंने जो कुछ भी लिखा है, मुझे विश्वास है कि उसके मद्देनजर आप इस मामले पर दोबारा गौर करेंगे और आपने जवाहरलाल को लिखे अपने पत्र में जो भावना जाहिर की है उसके मुताबिक कुछ नहीं करेंगे… मामले को पूरी तरह शांत होने दीजिए और अपने मन से यह बात निकाल दीजिए कि हमारे बीच कोई दूरी पैदा होगी. हम इतने वर्षों से एक-दूसरे के जितने करीब रहे हैं, उतने करीब ही बने रहेंगे. हमारा आपसी सम्मान और प्यार एक महान संघर्ष की कसौटी पर भी खरा उतरा है. अब इसे दूसरी किसी कसौटी पर गुजरना पड़े तो वह इसकी तुलना में महत्वहीन होगा. मैं जब दिल्ली लौटूंगा तब इस मसले पर हम बात करेंगे. तब तक के लिए, मुझे थोड़ी राहत तब मिलेगी जब आपसे यह आश्वासन मिलेगा कि आपने आपने इस विचार को दिमाग से एकदम निकाल दिया है.’
नेहरू 6 अक्टूबर को पाँच हफ्ते के ब्रिटेन और अमेरिका के दौरे पर निकलने वाले थे, और चाहते थे कि इससे पहले राजाजी के पक्ष में फैसला हो जाए. उन्होंने अपना प्रस्ताव संविधान सभा की कांग्रेस पार्टी के सामने रखने का फैसला किया, जो प्रथम राष्ट्रपति का चुनाव करने वाली थी. पटेल ने कोशिश की कि मामला टल जाए लेकिन नेहरू रुके नहीं.
उस बैठक का एक ब्यौरा वी. शंकर ने प्रस्तुत किया है-
‘जैसे ही नेहरू ने प्रस्ताव रखा, माहौल में तनाव छा गया. कुछ मुखर सदस्यों ने उनके भाषण के दौरान टोकाटाकी की, जो बहुत शालीनतापूर्ण नहीं थी….नेहरू के बाद कई सदस्य बोले और सबने प्रस्ताव का जोरदार और कड़वे शब्दों में विरोध किया. बहस में कड़वाहट छा गई और यह साफ हो गया कि पार्टी का पूरा मत इस प्रस्ताव के खिलाफ था. इसी मौके पर पटेल ने माइक अपने हाथ में ली और दस मिनट तक भाषण देकर सभी को गरिमा और शालीनता बनाए रखने की अपील की और कहा कि मतभेदों के बावजूद कांग्रेस हमेशा अपने आम सदस्यों को संतुष्ट करने वाला फैसला करती रही है, उनका इस तरह का आचरण शोभा नहीं देता…’
पटेल के हस्तक्षेप के कारण नेहरू का प्रस्ताव खारिज होने से बच गया. लेकिन उस रात नेहरू ने पटेल को हस्तलिखित पत्र भेजा और बताया कि वे दौरे के बाद इस्तीफा दे देंगे. लेकिन भारत लौटने के बाद वे राजाजी के चुनाव के लिए काम करने में जुट गए. 8 दिसंबर 1949 को उन्होंने राजेंद्र बाबू को पत्र लिखा कि पार्टी की कितनी बुरी दशा हो गई है, सरकार किन समस्याओं में फंसी है. उन्होंने राजेंद्र बाबू को पार्टी अध्यक्ष का पद या योजना आयोग का अध्यक्ष पद सौंपने की पेशकश की. राजेंद्र बाबू ने उन्हें 12 दिसंबर 1949 को यह जवाब भेजा-
‘मैं मानता हूं कि गणतंत्र के राष्ट्रपति के बारे में तुरंत फैसला किया जाना चाहिए और अगर मैं इसमें किसी तरह मदद कर सकता हूं तो मैं यह मदद करने को एकदम राजी और तैयार हूं. कुछ वजहों से- जो सही या पूरी तरह गलत भी हो सकती हैं- संविधान सभा के सदस्यों का एक बड़ा मत चाहता है कि मैं गणतंत्र के राष्ट्रपति पद को कबूल करूं. इस बारे में मुझसे मिलने आए तमाम लोगों से बातचीत के बाद मुझे लगता है कि अगर मैं इस पेशकश कबूल नहीं करता तो इसे ‘वादाखिलाफी’ माना जाएगा. उन लोगों ने यही शब्द इस्तेमाल किया है और कहा है कि मैं उन्हें ‘धोखा’ न दूं और उन्हें ‘नीचा न दिखाऊं’…..’
ऐसा लगता है कि पटेल ने तब तक राजेंद्र बाबू के पक्ष में फैसला कर लिया था. 18 दिसंबर 1949 को उन्होंने राजेंद्र बाबू को पत्र लिखा-
‘आप जवाहरलाल के विचारों को जानते हैं. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मौलाना क्या सोचते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो आपने मुझ पर बहुत बड़ा बोझ डाल दिया है. मैं वाकई नहीं जानता कि क्या करूं. जवाहरलाल कहते हैं कि वे लौट कर आएंगे तब मुझसे इस पर बात करेंगे.’
इसके बाद पटेल ने मामले को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. डी.पी. मिश्र ने जब उनसे राजेंद्र बाबू की जीत की उम्मीद के बारे में पूछा तो पटेल ने मजाकिया शब्दों में कहा, “अगर दूल्हा पालकी छोड़ कर भाग न जाए, तो शादी नक्की.”
पटेल राजेंद्र बाबू के सौम्य, विनम्र और संकोची स्वभाव की ओर इशारा कर रहे थे र उन्हें डर था कि कहीं वे राजाजी की खातिर चुनाव से हटने को राजी न हो जाएं.
प्रो. माखन लाल दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट के संस्थापक निदेशक हैं और संप्रति विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के विशिष्ट फेलो हैं.