असल में क्लाइमेक्स तो यह था कि सेप्पुकु (आत्महत्या का कर्मकांड) वरण करने वाले समुराई (योद्धा) की पीड़ा खत्म करने के लिए कैशाकुनीन (सिर कलम करने वाला) की भमिका निभा रहे शख्स को सत्रहवीं सदी की तलवार से एक झटके में काम तमाम करना था, जो उसके प्रिया ने दिया था. मशहूर लेखक युकियो मिशिमा का यह आखिरी कृत्यु पटकथा के मुताबिक नहीं हो पाया.
इचिगाया मिलिट्री ठिकाने पर सैनिकों ने तख्तापलट के उनके आह्वान हंसी में उड़ा दिया. हेलिकॉप्टर के शोर में बाकी की बातें अनसुनी रह गई, जिसे मिशिमा ने सोचा था कि लाइव ब्रॉडकास्ट होगा. यहां तक कि आखिरी नतीजा भी गड़बड़ा गया. लेखक की गर्दन कटने से पहले तीन वार से लोथड़े निकल आए.
दार्शनिक हिदे इशेगुरो लिखते हैं, जापान में बहुतों को मिशिमा की 1970 में आत्महत्या की कार्रवाई ध्यान खींचने का तमाशा लगा, न कि किसी योद्धा की खालिस देशभक्ति, जिसने पराजय के बदले मौत को गले लगाया.
कुछ दिनों पहले, अपने पूर्ववर्ती शिंजो अबे हत्याकांड के बाद प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा दफ्तर यह संकल्प लेकर लौटे कि जापान के शांतिवादी संविधान में संशोधन करना है और मिलिट्री ताकत बढ़ानी है. मिशिमा जैसे राष्ट्रवादियों ने काफी पहले दावा किया था कि संविधान अपमान का दस्तावेज है, द्वितीय विश्वयुद्ध में हार के बाद उस पर थोप दिया गया.
एशिया के कई लोकतंत्रों की तरह जापान भी खतरनाक नए दौर की चुनौतियों से निपटने के लिए नए बाहुबली राष्ट्रवाद को अपना रहा है. समस्या यह है कि राष्ट्रवाद ऐसे विरले कलुषित इतिहास में लिपटा है, जो जापान के दुश्मनों को ही नहीं, बल्कि उसके सहयोगियों को भी आतंकित करता है.
नया राष्ट्रवाद
पिछले साल टोक्यो में यासुकुनी स्मारक पर दिसंबर 1941 की घटना की सालगिरह पर युद्ध शहीदों को श्रद्धांजलि देने करीब एक सौ सांसद पहुंचे थे. दिसंबर 1941 में शाही जापानी सेना के जवान प्रशांत महासागर में अमेरिका, ब्रिटेन और हॉलैंड के बलों के बीच फंस गए थे. श्रद्धांजलि देने पहुंचे सांसद सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) के तो थे ही, उसके दक्षिणपंथी विचारधारा विरोधी जापान इनोवेशन पार्टी और जापान की नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद भी थे.
विद्वान नाओतो हिगुची ने कहा कि यह जमावड़ा ‘दक्षिणपंथ की मुख्यधारा’ का था. दशकों से जापान के अति दक्षिणपंथी समाज के हाशिए पर थे, जिनमें मिशिमा जैसे साम्राज्यवाद को वापस लाने की ख्वाहिश रखने वाले, संगठित अपराधों से जुड़े फासीवादी, और कोरियाई आप्रवासियों के कत्लेआम चाहने वाले हैं.
इस महीने के शुरू में प्रत्यक्ष तौर पर व्यक्तिगत गिले-शिकवे से ग्रस्त एक व्यक्ति द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री अबे की हत्या ने ऐसे विचारों को केंद्र में ला दिया. 2020 में इस्तीफे के बाद अबे यासुकुनी जवानों के सम्मान में सिर झुकाए खड़े हुए, जिनमें कत्लेआम और मानवता के खिलाफ अपराध के लिए सजा पाए 1,600 युद्ध अपराधी भी हैं.
इससे चीन में उग्र विरोध प्रदर्शन हुए, जहां जापानी बलों ने नांजिंग जैसे शहरों में लाखों आम लोगों का कत्ल कर दिया था, और बायोलॉजिकल युद्ध के औजारों को प्रयोग किया था, जिससे ऑखट्जि जैसी भयावह नजारे दिखे. नाराजगी कोरिया में भी उभरी, जहां जापानी सेना ने हजारों औरतों को यौन गुलामी में धकेल दिया था.
आधुनिक जापान के इतिहासकार एलेक्सिस डुड्डेन ने लिखा कि अबे ने जापान के ऐतिहासिक युद्ध अपराधों को धो डालने की कोशिश की थी. अबे ने औरतों की यौन गुलामी पर लीपापोती करने और रूसो-जापान युद्ध को पराक्रम बताने वाले संशोधनवादी कोशिशों को विश्वसनीयता प्रदान की, जिससे कोरिया उपनिवेश बना लिया गया था. अबे ने अपनी किताब टुआर्ड्स ए ब्यूटिफुल कंट्री में लिखा है कि युद्ध अपराध को भुला देना जापान को असली ताकत के रूप में नए उभार के लिए बेहद जरूरी है.
यासुकुनी स्मारक का म्यूजियम नांजिंग में 1937 के कत्लेआम को ‘दुर्घटना’ बताता है, जिसमें 2,00,000 आम लोगों का कत्ल और 20,000 औरतों के साथ बलात्कार किया गया था. उसमें दावा किया गया है कि जापान के युद्धों से एशिया भर में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का दौर शुरू हुआ. अबे जापान नेताओं की पीढ़ी के थे, जिन्होंने ऐसी बोली-भाषा को विश्वसनीयता दिलाई. भारत ने भले जापान के साम्राज्यवादी अभियान के डरावने पक्ष को भुला देना चाहा, क्योंकि वह सुभाष चंद्र बोस की स्मृति से जुड़ा है. लेकिन ताइवान से ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में उन वर्षों की यादें बुझी नहीं हैं.
यह भी पढ़ें : श्रीलंका में सफेद हाथी साबित हुए चीन के नाकाम प्रोजेक्ट भारत के लिए एक सबक हैं
देशभक्ति का संकट
यह देखने के लिए किसी कल्पना की दरकार नहीं है कि क्यों जापान में कई लोग उस राष्ट्रवाद को गले लगा रहे हैं, जिसे पांच दशक पहले ढकोसला माना जाता था, जिसके स्याह पक्ष की कोई राजनैतिक अहमियत नहीं है. पूरे पूर्वी चीन सागर में ड्रैगन के उभार ने आग भड़का दिया और सेनकाकु द्वीप पर खतरा मंडराने द्वीपों पर खतरा मंडराने लगा. उत्तरी कोरिया के एटमी मिसाइल प्रोग्राम ने कत्लेआम का डर फिर जगा दिया, जिससे 1945 में सामना हुआ था. फिर, तेजी से बूढ़ी हो रही जनसंख्या और गिरती जन्म दर से पैदा हुई सांस्कृतिक बेचैनी भी है. कुछ लोगों की राय में, लगता है, जापान राष्ट्रीय आत्मघात के किनारे खड़ा है.
अबे के नाना नोबुसुके किशि 1957 में एलडीपी सरकार के प्रधानमंत्री चुने गए थे. वे युद्ध के बाद शुरुआती वर्षों में अमेरिका के कब्जे के दौरान युद्ध अपराधी माने गए थे, लेकिन दूसरे हजारों के साथ माफी पा गए थे. उन्होंने जापान को अमेरिका की अगुआई में शीतयुद्ध रणनीतिक साझेदारी में जोड़ने में मदद की. उन्होंने एक सुरक्षा संधि पर दस्तखत किया, जिससे वाशिंगटन को वहां मिलिट्री ठिकाने बनाने में मदद मिली.
ऐसा लगा कि अबे चाहते थे कि जापान को अब अमेरिका की वस्तुत: गुलामी से उबर कर बराबरी की हैसियत पाना चाहिए. उनका घोषित संवैधानिक लक्ष्य तो सीमित था. संविधान का अनुच्छेद 9 कहता है कि जापान के लोग ‘युद्ध को हमेशा के लिए त्याग देने को राष्ट्र का संप्रभु अधिकार बनाएं.’ अबे इसमें संशोधन चाहते थे, ताकि जापान को अपना आत्मरक्षा बल के गठन को मान्यता मिले.
संवैधानिक संशोधन के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की दरकार नहीं होती, बल्कि रायशुमारी में 51 फीसदी के बहुमत की भी दरकार थी. इस मुद्दे पर बुरी तरह बंटे समाज में ऐसा संशोधन अबे की पहुंच से दूर था. प्रधानमंत्री किशिदा संविधान संशोधन के उनके वादे को पूरा करने के लिए संसद के बहुमत के करीब हैं, मगर जनमत खिलाफ बना हुआ है.
अनिश्चित भविष्य
अगर किशिदा संख्या बल जुटाने में कामयाब हो जाते हैं, तब भी संवैधानिक संशोधन से शॉर्ट-टर्म में क्या बदलेगा, यह पूरी तरह साफ नहीं है. मौजूदा संविधान जापान को लंबी दूरी की मिसाइल के विकास या उत्तर कोरिया या चीन के हमले के खिलाफ जवाबी कार्रवाई से नहीं रोकता है. हालांकि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के मामले में देश का रक्षा खर्च कम बना हुआ है, लेकिन आक्रमण की क्षमता वाले हथियारों में अहम निवेश किया गया है.
साफ है कि संवैधानिक बहस सेना के आधुनिकीकरण के बारे में नहीं, बल्कि कुछ और बड़ी बहस का हिस्सा है. यानी, नई चुनौतियों के नाटकीय दौर में जापान को किस तरह की सांस्कृतिक मर्यादाओं की जरूरत है?
जापान की सेना में युकिओ मिशिमा के अति-राष्ट्रवाद की कुछ स्पष्ट अपील है. देश सर्वोच्च सैनिक पदाधिकारी जनरल तोशियो तमोगामी को 2008 इसलिए हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने एक लेख में जापानी उपनिवेशवाद को नैतिक रूप से उचित, मानवीय और एशिया के लिए लाभकारी बताया था. दक्षिण कोरिया और चीन में जायज या नाजायज डर है कि इन बीजों से जापान सैन्यवाद के फूल निकलेंगे. ये डर अतिशयोक्ति हो सकते हैं, मगर ये तो यकीनन ऐतिहासिक धारणाओं से ही पैदा हुए हैं.
लगभग तय है कि एशिया के रणनीतिक हालात जापान को घातक विकल्प चुनने को मजबूर करेंगे. उसने अपनी जमीन पर अमेरिका का सैन्य ठिकाना बनाने की इजाजत दी हुई है, लकिन जापान ने साबित किया है कि एक लक्ष्मण रेखा लांघने को तैयार नहीं है. जापान खुद को अमेरिका की विस्तारित कवच से एटमी हमले से सुरक्षित समझता है, लेकिन जर्मनी के उलट वह अपनी जमीन पर रणनीतिक हथियारों को रखने के खिलाफ नहीं है.
हालांकि, दशकों से जापान का रणनीतिक समुदाय इस पर चुपचाप चर्चा करता रहा है कि अगर विपदा आ जाए तो क्या किया जाएगा और अमेरिका ने साबित किया है कि द्वीपों की रक्षा के लिए अपने शहरों को छोड़ने को तैयार नहीं है. जापान के पास देश में नौ टन और ब्रिटेन तथा जर्मनी में 35 टन प्लूटोनियम का भंडार है, जिसका एटमी हथियार के अलावा कोई और इस्तेमाल नहीं है.
जापान के विदेश मंत्रालय ने 1970 में चुपचाप देश में ‘एटमी हथियार बनाने के लिए आर्थिक और तकनीकी क्षमता’ तैयार रखने का इंतजाम कर लिया था. तब से कुछ प्रभावी आवाजें उठती रही हैं कि मौका आए तो जापान को इस विकल्प पर विचार करना चाहिए.
भारत-प्रशांत क्षेत्र के दूसरे लोकतंत्रों की तरह भारत का भी मानना है कि चीन के खतरे को रोकने के लिए अच्छा उपाय गठजोड़ बनाने और सैन्य ताकत में इजाफा ही है. जापान में जारी बहस से पता चलता है कि यह प्रक्रिया कितनी मुश्किल होगी.
लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट कर करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : ऋषि सुनक, साजिद जाविद और नादिम जहावी ब्रिटिश PM पद के एशियाई मूल के उम्मीदवार, क्या है इनकी मुश्किल