आजकल हर तरफ जम्मू-कश्मीर पर लागू रही धारा-370 की चर्चा है, इसे लेकर बहुत कुछ लिखा व बोला जा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि जम्मू कश्मीर की तमाम समस्याओं का कारण धारा-370 ही थी. एक तरह से धारा-370 को ‘खलनायक’ माना जा रहा है. मगर असल में ‘खलनायक’ था पिछली कईं सरकारों का कुशासन. इस कुशासन के कारण ही धारा-370 के कई सकारात्मक पहलू भी कहीं पीछे छूट गए. एक आध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो जम्मू कश्मीर के लोगों को पिछले कई वर्षों से सुशासन कभी देखने को मिला ही नही. हालांकि, इस कुशासन के लिए कहीं से भी धारा-370 ज़िम्मेवार नही कही जा सकती, गलती या ज़िम्मेवारी उन दलों व नेताओं की रही है जिन्होंने वर्षों वर्ष सत्ता का सुख भोगा.
जम्मू और लद्दाख के साथ भेदभाव की शिकायतें हाल के वर्षों में कम होने की जगह बढ़ती गई. कश्मीर केंद्रीत राजनीति ने जम्मू और लद्दाख में लगातार निराशा पैदा की जिसके लिए नेशनल कांफ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) समान रूप से जिम्मेवार रहे. कांग्रेस भी जम्मू व लद्दाख की भेदभाव से जुड़ी शिकायतों को दूर नही कर सकी.
आज धारा-370 की समाप्ति को लेकर सबसे अधिक मुखर और नाराज़ दिखाई दे रहे गुलाम नबी आज़ाद की ही बात की जाए तो कईं परतें खुलती नज़र आएंगी. मूल रूप से जम्मू संभाग से संबंध रखने के बावजूद गुलाम नबी आज़ाद मुख्यमंत्री बनने पर भी जम्मू संभाग के साथ अनदेखी की शिकायतों को दूर नही कर पाए. आज़ाद 2005 से 2008 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे मगर इन तीन वर्षों में राज्य में सुशासन दे पाने में भी वे नाकाम रहे. उनके कार्यकाल में सरकारी कर्मचारियों के तबादलों को लेकर जो खेल खेला गया वो खेल ‘ट्रांसफ़र इंडस्ट्री’ के रूप में खूब मशहूर हुआ. यही नही गुलाम नबी आज़ाद ने जिस तरह की राजनीति और नेताओं को प्रोत्साहित किया उससे कांग्रेस का तो नुक्सान हुआ ही आम लोगों का शासन पर से विश्वास भी कम हुआ.
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मुख्यमंत्री के रूप में खुद गुलाम नबी आज़ाद की राज्य के कामकाज में बहुत अधिक दिलचस्पी कभी नही रही. राज्य का मुख्यमंत्री रहते राज्य में रहने की जगह उस दौरान अपना ज़्यादा समय दिल्ली में ही बिताया करते थे. उन दिनों उन्हें ‘एनआरआई’ और ‘पार्ट टाईम’ मुख्यमंत्री तक भी कहा जाता था. यही नही उनकी सरकार द्वारा जिस तरह से 2008 में अमरनाथ भूमि आंदोलन और आंदोलनकारियों से निपटा गया वह भी साफ दर्शाता है कि उन्होंने किस तरह का शासन दिया. इस आंदोलन के बाद से ही कांग्रेस की ज़मीन ऐसी खिसकी की अभी तक उसकी वापसी नही हो सकी है.
उमर के दौर में भी फलती-फूलती रही ‘ट्रांसफ़र इंडस्ट्री’
गुलाम नबी आज़ाद के बाद राज्य को एक नौजवान मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्ला मिले. उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में 2009 में बनी नेशनल कांफ्रेस-कांग्रेस सरकार से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं. विशेषकर उमर अब्दुल्ला को लेकर लोगों में बेहद उत्साह था. मगर आज़ाद की तरह उमर का भी अधिक वक्त दिल्ली में ही बीतता रहा. उमर अब्दुल्ला के बारे में तो यहां तक कहा जाता था कि – ‘वे जम्मू या श्रीनगर में नज़र आने की जगह एक राष्ट्रीय चैनल विशेष की सक्रीन पर ज़्यादा नज़र आते हैं.’
मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्ला ने जिस तरह से 2010 में कश्मीर में भड़की व्यापक हिंसा से उपजे हालात से निपटा उससे उनकी प्रशासनिक क्षमता पर कईं सवाल उठे. उल्लेखनीय है कि 2010 में कश्मीर में कई महीनों तक हिंसा रही जिसमें करीब 115 लोग मारे गए जिनमें अधिकतर युवा थे.
भ्रष्टाचार और कुशासन के मामले में भी उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेस-कांग्रेस सरकार ने तमाम रिकार्ड तोड़ डाले. उस दौर में भी ‘ट्रांसफ़र इंडस्ट्री’ फलती-फूलती रही. यह वह दौर था जब एक सरकारी अध्यापक और डॉक्टर तक को भी अपना तबादला करवाने के लिए लाखों रुपए रिश्वत के रूप में देने पड़ रहे थे.
अध्यापकों के तबादलों से चर्चा में आए उमर मंत्रीमंडल के तत्कालीन शिक्षा मंत्री (जोकि उपमुख्यमंत्री भी थे) तारा चंद और उनके जन संपर्क अधिकारी (पीआरओ) के क़िस्से आज भी जम्मू कश्मीर में सत्ता के गलियारों में सुने जा सकते हैं. इस ताकतवर बहुचर्चित ‘पीआरओ’ पर जम्मू कश्मीर सतर्कता विभाग ने कईं मामले दर्ज कर रखे हैं और कुछ मामले जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में भी चल रहे हैं.
यह वह समय था जब शिक्षा विभाग में हर दो-तीन महीने बाद शिक्षा निदेशक के पद पर तैनात रहने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा व कश्मीर प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का तबादला कर दिया जाता. यह अपने आप में एक रिकार्ड है कि जनवरी 2013 से लेकर जनवरी 2015 तक शिक्षा निदेशक के पद पर 10 अधिकारी रहे. यानी एक अधिकारी को काम करने के लिए औसतन दो से तीन महीने ही मिले.
इन अधिकारियों के तबादले तत्कालीन शिक्षा मंत्री और उनके बहुचर्चित ‘पीआरओ’ की वजह से होते रहे. आए दिन होने वाले तबादलों से तंग आकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी को छुट्टी तक पर भी जाना पड़ा था.
आम जनश्रुति है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद के साथ क़रीबी संबंधों का लाभ पूर्व उप मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री तारा चंद को मिलता रहा और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला इस सारे मुद्दे पर आंखे बंद किए रहे.
उमर अब्दुल्ला के इसी दौर में तथाकथित कश्मीर ‘विशेषज्ञों’ का भी उदय हुआ. आम जनमानस से जुड़ने और उनमें लोकप्रिय होने के स्थान पर उमर अब्दुल्ला इन तथा कथित कश्मीर विशेषज्ञों में अधिक लोकप्रिय होते चले गए. उन दिनों कई ‘विशेषज्ञों’ की उमर सरकार में दख़लअंदाज़ी भी देखी गई.
बख्शी, सादिक और शेख अब्दुल्ला के बाद नही मिला योग्य प्रशासक
दरअसल स्वर्गीय बख्शी गुलाम मोहम्मद, गुलाम मोहम्मद सादिक और स्वर्गीय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जैसा जम्मू कश्मीर को कोई योग्य प्रशासक मिला ही नही. स्वर्गीय बख्शी गुलाम मोहम्मद लगभग दस साल लगातार (1953-1963) जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री (उस समय मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) रहे. स्वर्गीय बख्शी गुलाम मोहम्मद और गुलाम मोहम्मद सादिक को राज्य में हुए कई प्रशासनिक सुधारों के लिए आज भी याद किया जाता है. बख्शी और सादिक राज्य के जम्मू संभाग में भी समान रूप से लोकप्रिय और आम लोगों से जुड़े हुए राजनेता थे.
विराट व्यक्तित्व और कड़क छवि के स्वामी शेख मोहम्मद अब्दुल्ला भले ही कई तरह से विवादास्पद रहे मगर उन्हें एक कुशल प्रशासक के रूप में देखा जाता है.कश्मीर में उन जैसी लोकप्रियता आज तक कोई हासिल नही कर सका. शेख के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेस ने लोगों में ज़बरदस्त पकड़ बनाई. यह एक सच्चाई है कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के जीवनकाल में कश्मीर में जमाएते-इस्लामी जैसे संगठन कमजोर ही रहे.
लेकिन शेख मोहम्मद अब्दुल्ला निधन के बाद नेशनल कांफ्रेस जैसे ताकतवर राजनीतिक दल का आम लोगों से लगातार संपर्क कमजोर होता चला गया. जम्मू व लद्दाख तो दूर शेख के बाद कश्मीर में ही लोगों की नेशनल कांफ्रेस से नराज़गी बढ़ती चली गई.
शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के निधन के बाद उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला ने अपने पिता की तरह पार्टी और शासन चलाने की कोशिश तो की मगर वे कामयाब नही हो सके. फारूक अब्दुल्ला 1982 से लेकर 1984, 1986 से 1990 और फिर 1996 से 2002 तक तीन बार मुख्यमंत्री रहे मगर उनकी सरकार मुख्यत: नौकरशाह ही चलाते रहे.
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मुख्यमंत्री और एक राजनीतिक नेता के रूप में फारूक अब्दुल्ला की लोकप्रियता तो खूब रही मगर उनकी छवि एक लापरवाह व ग़ैरज़िम्मेदार प्रशासक व नेता की बन गई.
उल्लेखनीय है कि 1982 से लेकर 1984 और 1986 से 1990 तक फारूक अब्दुल्ला फ़िल्म अभिनेत्रियों को मोटर साईकिल पर घुमाने के लिए ही अधिक चर्चित रहे जबकि 1996 से लेकर 2002 तक फारूक अब्दुल्ला की सरकार पुरी तरह से दो बहुचर्चित नौकरशाहों के इशारों पर चलती रही. उन दिनों आम चर्चा थी कि फारूक अब्दुल्ला के वरिष्ठ मंत्रियों तक को भी इन नौकरशाहों को भी सलाम बजाना पड़ता था.
मुफ्ती मोहम्मद सईद को नही मिला समय
फारूक अब्दुल्ला की सरकार बदलने पर 2002 में जब पीडीपी और कांग्रेस का गठबंधन हुआ और मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने तो यह जम्मू कश्मीर में पहली ऐसी सरकार थी जिसमें नेशनल कांफ्रेस की कोई भूमिका नही थी.
मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सत्ता में आते ही एक कुशल प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश की. यही नही जम्मू और लद्दाख में भी उन्होंने लोगों के बीच जाना शुरू किया मगर इससे पहले कि मुफ्ती अपने को स्थापित कर पाते पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी)-कांग्रेस में खींचतान शुरू हो गई और मुफ्ती मोहम्मद सईद को बीच में ही रुकना पड़ा.
लेकिन मुफ्ती के नेतृत्व में तीन साल तक चली पीडीपी-कांग्रेस सरकार को स्वर्गीय शेख अब्दुल्ला के निधन के बाद आने वाली एकमात्र बेहतर सरकार के रूप में याद किया जाता है. हालांकि, मुफ्ती मोहम्मद सईद को काम करने के लिए मात्र तीन वर्ष ही मिल सके. गुलाम नबी आज़ाद के मुख्यमंत्री बनने की ज़िद ने और कांग्रेस के साथ हुए समझौते के कारण मुफ्ती मोहम्मद सईद की पारी 2005 में बीच में ही खत्म हो गई.
मुफ्ती मोहम्मद सईद की मुख्यमंत्री के रूप में दूसरी पारी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी की सरकार का नेतृत्व करने से शुरू हुई मगर बेमेल गठबंधन और स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों के कारण मुफ्ती अधिक कुछ कर नही पाए.
उमर अब्दुल्ला के कार्यकाल में सक्रिय रहने वाले तथाकथित कुछ कश्मीर विशेषज्ञ इस दौर में मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे ज़मीनी नेता की भी कमजोरी बन गए. मुफ्ती जब 2015 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो ऐसे ही एक ‘विशेषज्ञ’ को मंत्री का दर्जा देकर मुफ्ती ने अपना सलाहकार भी बनाया. इससे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) में ज़बरदस्त नराज़गी भी रही.
पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद महबूबा मुफ्ती को पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी सरकार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, मगर उनका कार्यकाल भी गठबंधन की दिक्कतों की भेंट चढ़ गया. महबूबा मुफ्ती के कार्यकाल में भी ‘ट्रांसफ़र इंडस्ट्री’ पर कोई लगाम नही कसी जा सकी और सरकारी अध्यापकों और डॉक्टरों के तबादलों को लेकर कई तरह की चर्चाएं सामने आईं. गौरतलब है कि शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग भारतीय जनता पार्टी के पास थे मगर गठबंधन की मजबूरियों के चलते महबूबा भी कुछ नहीं कर सकीं.
(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं.यह लेख उनके निजी विचार हैं)