30 जनवरी 2020 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सामने की सड़क से ढेर सारे लोग जब महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने राजघाट के लिए शांतिपूर्ण मार्च कर रहे थे, तब अचानक एक नवयुवक ने, ‘मैं दूंगा आजादी’ कह कर भीड़ पर गोली चला दी, जिससे जामिया का एक छात्र बुरी तरह घायल हो गया. पिछले कुछ दिनों से दहशतगर्दी के माहौल में सोचना भी मुश्किल हो रहा है.
लेकिन जैसा कि महान दार्शनिक डेकार्ट कहते थे, मेरा सोचना ही मेरे होने का प्रमाण है, मैं बस जामिया के बारे में सोच रहा था, जहां मैं इन दिनों रहता हूं, पढ़ता हूं, पढ़ाता हूं.
इसी जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने तीन महीने पहले 30 अक्तूबर 2019 को जब अपना दीक्षांत समारोह मनाया, तो इसमें हमारे देश के महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था ‘मुझे खुशी है की कल 29 अक्टबूर को आप लोगों ने यूनिवर्सिटी का फाउंडेशन डे मनाया. अगले साल आपके यूनिवर्सिटी के सौ साल हो जाएंगे, यानी आप अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं. ये आप सभी के लिए अपने इतिहास, वर्तमान और आने वाले कल के बारे में संजीदगी के साथ गौरव फिक्र करने का है. इस यूनिवर्सिटी की शुरुवात जैसा कि हम सब लोग जानते हैं देश की आजादी की लड़ाई के इतिहास के साथ जुड़ी हुई है. विदेशी हुकूमत के खिलाफ चल रहे अहिंसा पूर्ण आंदोलन के दौरान, आज से ठीक सौ साल पहले वर्ष 1919 में हुए जलियांवाला बाग नर-संहार के बाद देश में स्वाभीमान और जागरण की नई लहर उठी थी. 1920 में असहयोग और खिलाफत आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा तथा सामाजिक एकता और भाईचारे की भावना को बल मिला.
महात्मा गांधी ने विद्यार्थियों से ये अपील की कि विदेशी हुकूमत के मदद से चलनेवाले शिक्षण संस्थानों को छोड़ दें. साथ ही उन्होंने ये भी आह्वान किया था कि राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जाये. जामिया तराना का एक मिसरा जो आप सभी ने सुना उसमें कहा गया है ‘उठे थे सुन के जो आवाजें, रहबराने-वतन’ जामिया के संस्थापकों के देश-प्रेम को बयां करता है.’
राष्ट्रपति जब अपने शालीन भाषण में जलियांवाला बाग की घटना का जिक्र कर रहे थे तब उन्हें भी कहां पता होगा कि दीक्षांत समारोह के ठीक 45वें दिन इस यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी पर भी कुछ वैसा ही कहर बरपेगा. उसी जामिया मिल्लिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र-छात्राओं के उपर पुलिस द्वारा बर्बरता से लाठियां और आंसू गैस के गोले बरसाए गए थे. इनमें से कई लड़के-लड़कियों के जख्म अब तक नहीं भरे हैं और एक छात्र की तो एक आंख हमेशा के लिए जाती रही. यह किसी भी लोकतांत्रिक मुल्क को शर्मसार करने वाली घटना थी. इस ज़्यादती के वीडियो जब वायरल हुए तो दुनियां भर के संस्थानों ने जामिया के विद्यार्थियों के प्रति संवेदना और समर्थन में अपनी आवाज़ बुलंद की जिनमें हार्वर्ड, येल, स्टेनफोर्ड, कोलंबिया जैसी बेहरतीन यूनिवर्सिटी भी शामिल हैं.
इस बर्बरता के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए जामिया हमदर्द के छात्र-छात्राओं और रंगकर्मियों ने 29 दिसंबर 2019 को एक नाटक का मंचन किया और इस ऐतिहासिक विडंबना को दर्शाने के लिए नाटक का नाम रखा- ‘जामियावाला बाग 2019’ इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने हिंदुस्तान अखबार में हालिया प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा कि किसी यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी पर ऐसे नृशंस हमले का ज़िक्र उपनिवेशी शासन के दौरान भी नहीं मिलता. इस हमले से आहत जामिया समुदाय ने बहुत ही दुःख और नाराज़गी के साथ अपना शांतिपूर्ण विरोध शुरू किया.
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जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के दौरान मैं भी कई प्रदर्शन का हिस्सा रहा था. लेकिन जामिया की कुछ बातें थीं जो मेरे दिल को छू गई. विद्यार्थियों द्वारा हर दिन प्रदर्शन के बाद सड़कों को साफ किया जाना, ‘रीड फॉर रिवोल्यूसन’ के नाम से सड़क के किनारे किताबें सजाकर बैठना, पढ़ना और पढ़ाना, फाइन आर्ट्स के विद्यार्थियों की रचनात्मक चित्रकारी. छोटे-छोटे बच्चों के गालों पर तिरंगा बनाना और इन सबसे बढ़कर एक बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया- नाराज़गी और विरोध के इस माहौल में भी बैनर पर ये न्योता देना ‘सुना है बहुत नफ़रतें हैं, दिल में तुम्हारे, कभी आओ हमारे चमन में, तुम्हारा दिल बदल देंगे.’ इन तस्वीरों को ध्यान से देखने पर मुझे अहिंसा, करुणा, सत्याग्रह और नई तालीम की एक रवायत दिखी और तभी मुझे ये समझ आया कि जामिया महात्मा गांधी के दिल के इतना करीब क्यों था.
बहरहाल जामिया-तराना, जिसका जिक्र महामहिम ने अपने भाषण में किया, इसके हर एक शब्द में वतन के लिए मोहब्बत और जुनून, मुल्क की बेहतरी के लिए मर मिटने का पैगाम है. मैंने पहली बार यह तराना 2010 में सुना जब मैं जामिया से औपचारिक तौर से जुड़ा, लेकिन एक तराना है जो हम सब बचपन से ही हिंदुस्तान के तमाम गली-मुहल्लों, कस्बों, स्कूलों, कॉलेजों, पंचायत-भवनों, आंगनबाड़ी- केन्द्रों में सुनते आये हैं. वह है तराना-ए-हिन्द: ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा.’
मुझे ये तो मालूम था कि ‘सारे जहां से अच्छा’ अल्ल्मा इकबाल ने लिखा है लेकिन जामिया आकर ही ये पता चला कि 1920 में अलीगढ़ में जिस फाउंडेशन कमिटी ने जामिया की नींव रखी थी, अल्ल्मा उस के एक प्रतिष्ठित सदस्य भी थे. कहते हैं गदर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल ने 1910 में एक जलसे के अध्यक्षीय भाषण के लिए गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में फिलोसोफी पढ़ाने वाले अल्ल्मा इकबाल को आमंत्रित किया था तो उन्होने भाषण की जगह इस तराने को ही पहली बार गाकर सुनाया था.
अभी हाल में, इस तराने का एक मिसरा मैंने सुना ‘गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में, समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा’, तो मेरे जेहन में बचपन की एक बात ताजा हो आई. मैं तब 6-7 साल का था शायद. बिहार-झारखंड सीमा पर बसे मेरे गांव से कई लोग धान-रोपनी के बाद कलकत्ता जाकर मजदूरी करते थे. जब वे दशहरे के मौके पर गांव लौटते तो कभी कभार अपने सगे-संबंधियों-दोस्तों के लिए कुछ लेकर वापस आते थे. इनमें से एक मेरे दादाजी के दोस्त भी थे. एक बार दशहरे के मौके पर जब वे मेरे लिए कोई खिलौना नहीं ला पाये थे तो मैं नाराज होकर दादा जी से जिद करने लगा कि वे खुद कभी कलकत्ता क्यों नहीं जाते, तो उनका जवाब था, ‘कलकत्ता परदेस है, हमें तो अपना वतन ही प्यारा है’ मैंने पूछा हमारा वतन कौन सा है? उनका जवाब था, ‘हमारा गांव…हमारा खेत-खलिहान.’
मेरे दादा के लिए कलकत्ता परदेस था और गांव वतन. आज दो दशक से भी ज्यादा समय से परदेस (दिल्ली) में रहते हुए पलटकर देखता हूं तो लगता है कि मेरा तो ज़्यादातर वक्त यूनिवर्सिटी परिसर में ही बीता, पढ़ते और पढ़ाते हुए. यहां तक कि अमेरिका और यूरोप की यात्राओं के दौरान भी रहना वहां की यूनिवर्सिटी कैम्पसों में ही हुआ. चूंकि जामिया का शाब्दिक अर्थ ही होता है यूनिवर्सिटी और मिल्लिया का अर्थ राष्ट्रीय, आज बड़े इत्मीनान से अल्ल्मा इकबाल के लफ्जों की मदद लेकर कह सकता हूं: ‘हिन्दी हैं हम ,वतन है जामिया हमारा’…सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा.’
(डॉ. अरविन्द कुमार, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल एक्स्क्लुसन एन्ड इन्क्लूसिव पॉलिसी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं.)