यह बिल्कुल ठीक है कि जगदीप धनखड़ के लिए बुरा महसूस करना गलत नहीं है, चाहे आपने राज्यसभा के चेयरमैन या पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के तौर पर उनके प्रदर्शन को लेकर जो भी राय रखी हो. किसी भी भारत के उपराष्ट्रपति को इस तरह अजीब और अचानक तरीके से अपना कार्यकाल खत्म करते हुए नहीं जाना चाहिए. इससे एक वरिष्ठ संवैधानिक पद की गरिमा कम होती है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए कभी अच्छा नहीं होता.
यह साफ है कि धनखड़ खुशी-खुशी नहीं गए. और यह भी स्पष्ट है कि उनकी तबीयत खराब होना उनके अचानक इस्तीफे की असली वजह नहीं थी. या तो उन्हें हटाया गया या उन्होंने हटाए जाने से पहले खुद ही इस्तीफा दे दिया. घटनाक्रम इसे साफ करता है. शाम 5:30 बजे तक उनके कार्यालय से आगे के कार्यक्रमों की जानकारी दी जा रही थी. और कुछ ही घंटों में उन्होंने अचानक इस्तीफा दे दिया.
उनके इस्तीफे की परिस्थितियों को लेकर कोई संदेह नहीं बचा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो सोशल मीडिया पर हमेशा तुरंत और विनम्र प्रतिक्रिया देते हैं, ने इस्तीफे की घोषणा के समय कोई स्नेहभरा अलविदा संदेश एक्स पर पोस्ट नहीं किया. दरअसल, मोदी ने अगले दिन एक बेहद ठंडा संदेश पोस्ट किया. उन्होंने लिखा कि धनखड़ को देश की सेवा करने के कई अवसर मिले और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य की शुभकामनाएं दीं. कोई निष्ठुर व्यक्ति इस पोस्ट को इस तरह भी देख सकता है: “काफी अच्छे पद मिले, अब चलो आगे बढ़ो.”
धनखड़ के इस तरीके से जाने से हमें इस सरकार के काम करने के तरीके के बारे में क्या पता चलता है?
मुझे लगता है कि तीन बातें समझ आती हैं.
योजनाओं में रुकावट डालने वाला
पहली बात, धनखड़ ने स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री की नजर में कोई बड़ी गलती कर दी. इस्तीफे के बाद जो संगठित लीक सामने आए हैं, उनके अनुसार यह मामला जस्टिस यशवंत वर्मा को लेकर था, जिनके घर से कथित तौर पर बड़ी मात्रा में नकदी बरामद हुई थी. चूंकि जज ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया था, तो महाभियोग ही अगला कदम था. विपक्ष ने वर्मा के खिलाफ नोटिस दिया और धनखड़ ने, राज्यसभा अध्यक्ष के रूप में, उसे स्वीकार कर लिया.
यह कोई असामान्य बात नहीं लगती — लेकिन लीक के अनुसार, विपक्ष का नोटिस स्वीकार कर धनखड़ ने सरकार की एक बड़ी योजना में खलल डाल दिया. योजना यह थी कि सरकार खुद जज के खिलाफ कार्रवाई करे और इसे न्यायपालिका के खिलाफ एक बड़े हमले की शुरुआत के रूप में इस्तेमाल करे. विपक्ष को पहला कदम उठाने देने से सरकार की रणनीति बिगड़ गई. रिपोर्ट्स के अनुसार, उसी शाम किसी वरिष्ठ व्यक्ति ने धनखड़ को फोन कर डांटा. कड़े शब्दों में बात हुई और या तो उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया या वह ऐसी स्थिति में डाल दिए गए जहां उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा.
हालांकि यह संस्करण बड़ी योजनाबद्ध तरीके से फैलाया गया है, मुझे इस पर यकीन करना मुश्किल लगता है. उपराष्ट्रपति को डांटने की हैसियत सिर्फ उन्हीं दो लोगों की हो सकती है जिनको खुश करने में धनखड़ ने एक दशक बिता दिया. उनके हालिया व्यवहार को देखकर नहीं लगता कि अगर उन्हें डांटा गया होगा तो वे गुस्सा हुए होंगे. वे माफी मांग लेते.
इसके अलावा, क्या हमारे देश के इतने ताकतवर नेता इतने छोटे से मुद्दे को लेकर इतने परेशान हो सकते हैं कि वे उपराष्ट्रपति को पद से हटा दें? यह बात कुछ जमती नहीं. राजनीति में अजीब चीजें होती हैं, लेकिन लगता है कि इस इस्तीफे के पीछे कुछ और भी है.
दूसरा सबक यह है कि चाहे आप सत्ता के लोगों को कितना भी खुश करने की कोशिश करें, आपकी कुर्सी कभी सुरक्षित नहीं होती. मैं धनखड़ को जानता हूं और पसंद करता हूं—जो उनकी सार्वजनिक छवि से उलट, तेज और दोस्ताना व्यक्ति हैं. वे खुद पर हंस सकते हैं और उनके सभी राजनीतिक दलों में दोस्त हैं. उनके बारे में बना यह चित्र कि वे गंभीर हिंदुत्व सैनिक हैं, गलत है. वे चंद्रशेखर सरकार में थे, बाद में कांग्रेस में आए और फिर 2003 में बीजेपी में शामिल हुए जब वे 50 की उम्र में थे.
मोदी युग में वे इसलिए आगे बढ़े क्योंकि वे सरकार के लिए एक प्रभावी हथियार की तरह काम करने को तैयार थे. जब उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया, तो उन्हें ममता बनर्जी की सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी करने के लिए भेजा गया था और उन्होंने ये काम पूरे जोश के साथ किया.
अधिकतर राज्यपाल सार्वजनिक रूप से राज्य सरकार की आलोचना नहीं करते, पर धनखड़ ने ऐसा कोई संकोच नहीं दिखाया. वे खुले तौर पर ममता पर आरोप लगाते थे, देशभर में घूमकर बताते थे कि राज्य सरकार कैसे गलत चल रही है.
मैंने एक बार मुंबई में एक पैनल डिस्कशन में धनखड़ और शशि थरूर के साथ मंच साझा किया. हम दोनों उनके ममता पर हमलों की तीव्रता से थोड़ा हैरान थे. लेकिन उनकी बुद्धि और हाज़िरजवाबी के कारण वे अपनी बात प्रभावी तरीके से कह गए और राज्यपाल के राजनीतिक निरपेक्ष रहने की परंपरा को दरकिनार कर गए.
तृणमूल कांग्रेस को हर चुनाव में हराने में बीजेपी नाकाम रही, लेकिन धनखड़ ही वो व्यक्ति रहे जिन्होंने ममता को परेशान करने में पार्टी की मदद की. शायद इसी वजह से मोदी ने उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया.
अब तक हम उपराष्ट्रपति के पद को प्रतीकात्मक मानते थे, लेकिन धनखड़ का कार्यकाल यह याद दिलाता है कि इस पद की असली ताकत राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में होती है.
एक बार फिर, उन्होंने वही किया जो उन्होंने पहले कोलकाता के राजभवन में किया था—सांसदों से भिड़ना (जया बच्चन के साथ मशहूर बहस सहित), केंद्र सरकार के पक्ष में पक्षपाती होने के आरोपों की परवाह न करना और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं पर सीधा हमला करना.
मुझे लगा कि उन्होंने मोदी की अपेक्षाओं से भी अच्छा प्रदर्शन किया, अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा को दांव पर लगाते हुए सभी परंपराओं और शालीनता की सीमाओं को लांघा, सिर्फ सरकार के लिए.
और फिर भी, आज हम यहां हैं. एक व्यक्ति जिसने एक दशक तक सरकार के लिए “हिटमैन” की भूमिका निभाई, अचानक बाहर कर दिया गया, और प्रधानमंत्री को लगता है जैसे उन्हें इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ा.
भारत की सबसे अपारदर्शी सरकार
धनखड़ के हटने से एक तीसरा सबक भी मिलता है, जो हमें अब तक समझ जाना चाहिए था. इस सरकार के भीतर असल में क्या चल रहा है, इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता.
जब उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की तलाश चल रही थी, तब राजनीतिक विश्लेषकों और टिप्पणीकारों ने संभावित उम्मीदवारों की सूची तैयार की. मुझे नहीं लगता कि उन सूचियों में धनखड़ का नाम भी था. और अगर था भी, तो वह कभी अग्रणी दावेदार नहीं माने गए. ज्यादातर पत्रकार भावी राष्ट्रपति उम्मीदवारों की ओर देख रहे थे या पहचान की राजनीति पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे (जैसे: सरकार किस समुदाय को खुश करना चाहती है?). कुछ ही लोगों ने यह समझा कि नरेंद्र मोदी ने एक चतुर गणना की थी: यह काम राज्यसभा को संभालने का है, तो ऐसा व्यक्ति चाहिए जो यह काम कर सके.
धनखड़ के हटने के साथ भी यही हुआ. किसी भी टिप्पणीकार ने यह नहीं देखा कि मोदी उनसे थक गए थे या उपराष्ट्रपति ने ऐसा क्या कर दिया जिससे उनके राजनीतिक आकाओं को नाराज़ कर दिया. अब जो भी थ्योरीज़ सामने आ रही हैं, वे सब बाद की घटनाओं को समझाने की कोशिशें हैं, और साफ़ तौर पर कहें तो उनमें से कोई भी पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है.
नरेंद्र मोदी भारत के एकमात्र प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इतनी अपारदर्शी सरकार चलाई है कि किसी को यह नहीं पता होता कि वास्तव में क्या हो रहा है या आगे क्या होगा. कोई अनजाने में लीक नहीं होता, और अब जबकि वे एक दशक से अधिक समय से सत्ता में हैं, तब भी किसी भी राजनीतिक टिप्पणीकार को यह समझ नहीं है कि प्रधानमंत्री के दिमाग में क्या चल रहा है. मंत्रिमंडल फेरबदल की भविष्यवाणियां हमेशा ग़लत साबित होती हैं. किसी भी संवैधानिक पद के लिए नामांकन हमेशा चौंकाने वाला होता है. और हर कोई किसी घटना के बीत जाने के बाद उसका अर्थ समझने की कोशिश करता रह जाता है.
शायद किसी दिन हमें पता चले कि धनखड़ ने क्या ग़लत किया और उन्हें क्यों हटाया गया. तब तक, मुझे उनके लिए थोड़ा अफ़सोस रहेगा. उन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने की बहुत कोशिश की—सारी परंपराएं ताक पर रख दीं. लेकिन शायद यह भी सत्ता के मालिकों को रास नहीं आया.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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