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Wednesday, 29 May, 2024
होममत-विमतजगदीप धनखड़ के पास कुछ विकल्प हैं, बंगाल में अपने कर्तव्यों से पीछे हटना उनमें शामिल नहीं

जगदीप धनखड़ के पास कुछ विकल्प हैं, बंगाल में अपने कर्तव्यों से पीछे हटना उनमें शामिल नहीं

ममता बनर्जी को गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपा राज्य के नेताओं की तरह किसी हाई कमान को रिपोर्ट नहीं करना है इसलिए दिल्ली उन्हें डरा नहीं पाती है.

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मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ जारी रस्साकशी के बीच पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ नई दिल्ली में हैं, और उनकी गृह मंत्री अमित शाह से मिलने की योजना है. हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी और अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के बीच का राजनीतिक मुकाबला मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच संवैधानिक संघर्ष में बदलता दिख रहा है. इसकी तात्कालिक वजह चुनाव के बाद भाजपा के कार्यकर्ताओं और कार्यालयों पर केंद्रित हिंसा प्रतीत होती है. ये राज्यपाल का दायित्व है कि वे इस मुद्दे को उठाएं और कानून व्यवस्था की स्थिति पर नजर रखें. बेशक, राज्यपाल को व्यवहार कुशल होना चाहिए और संवैधानिक प्रमुख की भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन उन्हें प्रशासक बनने की कोशिशों से बचना चाहिए. वैसे अंतहीन हिंसा के मद्देनजर उनके पास सीमित विकल्प ही हैं, और अपने दायित्वों से मुंह मोड़ना निश्चय ही से उनमें शामिल नहीं है.


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टकराव की स्थिति

हिंसा का चक्र रोकने के लिए राज्य सरकार को पूरी तत्परता और गंभीरता से काम करना होगा. ममता बनर्जी ये कहकर हिंसा को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकतीं कि टीएमसी कार्यकर्ताओं पर भी हमले हो रहे हैं. हिंसा पीड़ितों से मुलाक़ात पर राज्यपाल से सवाल करने के बजाय, वह अपनी पार्टी के किसी शीर्ष पदाधिकारी को उनके साथ भेजकर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण हो रही निर्मम हत्याओं के खिलाफ एकता की तस्वीर पेश कर सकती थीं. ऐसा करने पर शायद भाजपा विधायकों को सीआईएसएफ सुरक्षा देने के नरेंद्र मोदी सरकार के कदम की नौबत नहीं आती, जिसकी गलत मिसाल वाले कदम के रूप में आलोचना हुई है.

राज्यपाल और केंद्र सरकार के साथ ममता बनर्जी के असहयोग से गलत संदेश जाता है और इससे राज्य के विकास की संभावनाएं भी प्रभावित होती हैं. उनके लिए जीत में बड़प्पन दिखाना और शासन को राजनीति से ऊपर रखना व्यावहारिक होगा. हालांकि केंद्र को भी उन मुख्यमंत्रियों से उचित बर्ताव करना सीखना होगा जोकि राज्य स्तर पर मज़बूत नेता हैं.गौरतलब है कि ऐसे गैरकांग्रेसी और गैरभाजपाई नेताओं के पास अपनी बात रखने के लिए कोई अखिल भारतीय तंत्र या शीर्ष निकाय नहीं होता है. चूंकि उन्हें किसी आलाकमान को रिपोर्ट नहीं करना होता, इसलिए मनोवैज्ञानिक रूप से वे शायद एक तरह की स्वतंत्रता और निरंकुशता दिखाने के लिए प्रवृत्त होते हैं. लेकिन पार्टी और राज्य के सूक्ष्म प्रबंधन में फंसने, पार्टी की विचारधारा के करीब माने जाने वाले पुलिस अधिकारियों को दोबारा तैनात करने तथा राज्यपाल और प्रधानमंत्री के साथ टकराव मोल लेने से मुख्यमंत्री की कोई अच्छी छवि नहीं बन रही है.

यास तूफान से हुए नुकसान का आकलन करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की समीक्षा बैठक से अनुपस्थिति ने उनकी अपरिपक्वता ही जाहिर हुई, जिसके कारण केंद्र को राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव अलपन बंद्योपाध्याय को वापस बुलाने का निर्देश देना पड़ा था. केंद्र और राज्य दोनों अब टकराव की राह पर हैं जिसका दुष्परिणाम पश्चिम बंगाल के विकास कार्यों पर पड़ेगा.

पश्चिम बंगाल का नुकसान

पश्चिम बंगाल में आर्थिक विकास तथा औद्योगिक और कृषि उत्पादन में सुधार की काफी संभावनाएं हैं. भारत में शायद किसी अन्य राज्य को पश्चिम बंगाल के समान बारंबार विभाजन और राजनीतिक और आर्थिक झटकों का सामना नहीं करना पड़ा है, न ही कोई अन्य राज्य इस कदर कड़ी प्रतिद्वंद्विता और राजनीतिक हिंसा का केंद्र रहा है. ब्रिटिश राज की राजधानी रहा बंगाल विभिन्न स्थानीय और बाह्य कारकों के कारण हाशिए पर पड़ा अविकसित राज्य बन गया. और, 34 साल लंबे कम्युनिस्ट शासन के दौरान पश्चिम बंगाल औद्योगिक और कृषि रूप से पिछड़े राज्य में तब्दील हो गया. उनका एकमात्र योगदान था हड़ताल और ‘चोलबे ना, चोलबे ना’ के नारे. कम्युनिस्टों से सत्ता हथियाने वाली तृणमूल कांग्रेस भी कोई बदलाव नहीं ला सकी है.

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1977 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम ने 178 सीटों के साथ निर्णायक जीत हासिल कर कांग्रेस को मात्र 20 सीटों पर सीमित कर दिया था, लेकिन उसके बाद के चुनावों में ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ ने औसतन 40 सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था. 2011 के चुनाव में, टीएमसी को 184 सीटें, जबकि सीपीएम और कांग्रेस दोनों को लगभग 40-40 सीटें मिली थीं. लेकिन अब ये बिल्कुल स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में चुनाव द्विदलीय मुकाबला बन गया है. सीपीएम ने कांग्रेस को विस्थापित कर दिया है, जबकि टीएमसी ने सीपीएम द्वारा रिक्त जगह को भरने का काम किया है. ममता बनर्जी इस बात से वाकिफ हैं कि 2021 में 70 सीटें जीतने वाली भाजपा के लिए अगले चुनाव में टीएमसी को हटाने की रणनीति तैयार करना महज समय की बात है. और समय ममता के पक्ष में नहीं है. दूसरी ओर, भाजपा ने चुनाव जीतने और हार के जबड़े से जीत छीनने की कला में महारत हासिल कर ली है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा उनके वोट बैंक और उनकी पार्टी में भी सेंध लगा चुकी है. ये सही है कि चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भाजपा में शामिल हुए टीएमसी के कुछ सदस्य ‘घर वापसी’ कार्यक्रम के तहत टीएमसी के दफ्तरों में वापस आ रहे हैं. ऐसे तत्व न तो भाजपा के किसी काम आए और न ही उनसे टीएमसी को कोई लाभ होगा. वे ‘आया राम, गया राम’ किस्म के नेताओं के अनगढ़ उदाहरण मात्र हैं, जिनसे भारत की लगभग सभी पार्टियों का पाला पड़ चुका है.

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि टीएमसी में ईमानदार और सामर्थ्यवान लोग भी हैं जो खुली छूट दिए जाने पर शानदार प्रदर्शन कर सकते हैं. ऐसे लोगों में से एक हैं पूर्व में एक उद्योग संघ का नेतृत्व कर चुके राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा. जबकि टीएमसी पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी, जो अब भाजपा में हैं, की प्रतिभा का सदुपयोग नहीं कर पाई. ममता बनर्जी को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करते हुए मजबूत और स्थिर शासन देने का प्रयास करना चाहिए.

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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