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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअमेज़न, एप्पल, फेसबुक और गूगल कठघरे में हैं, इसका ताल्लुक अर्थव्यवस्था से नहीं है

अमेज़न, एप्पल, फेसबुक और गूगल कठघरे में हैं, इसका ताल्लुक अर्थव्यवस्था से नहीं है

अमेरिकी कांग्रेस नया कानून बना भी ले और ‘बिग टेक’ के एकाधिकार को तोड़ने की कोशिश में एंटीट्रस्ट कार्रवाई भी करे तो भी वह इनकी बड़ी ताकत का सीधा मुक़ाबला नहीं कर पाएगी.

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अमेज़न, एप्पल, फेसबुक, और गूगल के सीईओ पिछले सप्ताह जब अमेरिकी कांग्रेस की ‘एंटीट्रस्ट’ कमिटी के सामने पेश हुए तब इसके साथ एक प्रतीकात्मकता भी जुड़ी थी. दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने दुनिया की सबसे मूल्यवान कंपनियों के चार प्रमुखों को, टेक इंडस्ट्री के कप्तानों और दुनिया की चंद सबसे अमीर हस्तियों को अपनी सफाई पेश करने के लिए बुलाया था.

पेशी में ये चारों शख्स उपयुक्त रूप से विनम्र और पश्चाताप की मुद्रा में दिखे. वे सिलिकन वैली के सुपरहीरो वाली अपनी ट्रेडमार्क पोशाक की जगह सादे-से सूट में दिखे, जैसा कि उनकी ऊपर की आधी तसवीरों से लगा. यानी, यहां राज्यसत्ता निजी कंपनियों पर अपना वर्चस्व जताती नज़र आई, क्योंकि साम्राज्य के सबसे धनी व्यापारी सम्राट के दरबार में कोर्निश करते दिखे.

दिलचस्प बात यह थी कि सुनवाई ब्रॉडबैंड इंटरनेट पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हुई, जिसने उजागर कर दिया कि आधुनिक राज्यसत्ता टेक्नोलॉजी कंपनियों पर कितनी आश्रित है. यही नहीं, कोविड-19 की महामारी के बावजूद, बल्कि वास्तव में उसके कारण, इन चार कंपनियों की अर्थव्यवस्था ने शेष अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कहीं पीछे छोड़ दिया है.

आज इन चारों का कुल मूल्य 5 ट्रिलियन (50 खरब) डॉलर के बराबर है. जिस दिन उनकी पेशी थी उस दिन माइक्रोसॉफ्ट को मिलाकर वे सब स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्स के 500 शेयरों के शेयर बाज़ार सूचकांक के 20 प्रतिशत हिस्से के बराबर थे. धन का ऐसा केन्द्रीकरण असाधारण है और ऐसा 42 साल बाद हुआ है. ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के एक पत्रकार ने कबूल किया कि एक साधारण नागरिक के लिए आज उस टेक्नोलॉजी और सेवाओं का इस्तेमाल किए बिना जीना असंभव है, जो ये कंपनियां दे रही हैं.

सिर्फ अर्थव्यवस्था का मामला नहीं

‘बिग टेक’ ने बाज़ार पर सिर्फ अपना वर्चस्व नहीं बनाया है, उसने बाज़ार बनाया भी है जिसके जाल में व्यक्ति से लेकर व्यवसाय जगत और सरकारें भी दरअसल फंस चुकी हैं. पिछले तीन दशकों में हमने देखा है कि नेटवर्क के चलते बाज़ार की ताकत का जबरदस्त और तीव्र केन्द्रीकरण हुआ है, और जो विजेता है वह सब कुछ समेट लेता है. जाहिर है, यह कानून बनाने वालों के लिए चिंता का विषय है.

इसके आर्थिक नतीजे तो बड़े मसले का सिर्फ नमूना भर हैं. बाज़ार पर ‘बिग टेक’ फार्मों के वर्चस्व का ज्यादा बड़ा और अदृश्य-सा नतीजा यह है कि वे ग्राहकों के डेटा इतने भारी परिमाण में इकट्ठा कर रहे हैं, उन पर कब्जा कर रहे हैं और उनका इस्तेमाल कर रहे हैं कि उनके पास लोगों की पसंद-नापसंद को बड़ी बारीकी से बदल डालने की ताकत जमा हो रही है. इसलिए इन ‘बिग टेक’ मंचों के संभावित राजनीतिक परिणामों को लेकर सबका, खासकर राजनीतिक नेताओं और निर्वाचित पदाधिकारियों का चिंतित होना स्वाभाविक है. इसलिए, ‘बिग टेक’ के एकाधिकार के कारण उभर रही राजनीतिक चुनौती उतनी ही बड़ी है जितनी आर्थिक चुनौती है. लेकिन दिक्कत यह है कि केवल आर्थिक चुनौती से निबटने की जद्दोजहद की जा रही है.

इसलिए राज्यसत्ता ने ‘बिग टेक’ की बढ़ती ताकत से निपटने का पहला हथियार जो चुना है वह है प्रतिस्पर्द्धा से संबंधित कानून. वास्तव में, ‘बिग टेक’ प्रतिस्पर्द्धियों को खरीद लेता है, स्वतंत्र डेवलपरों की विशेषताओं की नकल कर लेता है और अपने ग्राहकों के बूते प्रतिस्पर्द्धा से निबटता है. अमेरिकी जनप्रतिनिधियों की कमिटी, खासकर उसके डेमोक्रैट सदस्यों ने इन कंपनियों के खिलाफ काफी विस्तार से तैयार किया गया आरोपपत्र पढ़ा और उम्मीद है कि यह कमिटी उन कई व्यावसायिक प्रक्रियाओं पर रोक लगाने की सिफ़ारिश करेगी जिनके चलते प्रतिस्पर्धा बाधित होती है.


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इस पर एक तरह की द्विपक्षीय सहमति है, लेकिन ऐसी रोक लगाना आसान नहीं होगा क्योंकि यह साबित करना बहुत मुश्किल होगा की ज्यादा कीमत रखने या विकल्पों को सीमित करने से उपभोक्ताओं के हितों को चोट पहुंची है. ‘वायर्ड’ के गिलाड एडेलमैन ने लिखा है कि कमिटी ने ‘एक अलग तरह की कमजोरी की पहचान की है- ‘बिग टेक’ के एकाधिकार से हमेशा ऐसा नहीं होता कि कीमतें ऊंची हो जाती हैं लेकिन इसके चलते निम्न स्तर के प्रोडक्ट चलाए जा सकते हैं और ग्राहक की प्राइवेसी के मामले में भी ऐसा ही कुछ हो सकता है.’ दरअसल, कमिटी में शामिल रिपब्लिकन सदस्य मसले की जड़ के ज्यादा करीब थे क्योंकि उनकी चिंता यह थी कि डेटा और प्लेटफॉर्मों पर नियंत्रण सार्वजनिक विमर्श को प्रभावित करेगा. लेकिन बदकिस्मती से वे असली निशाने से दूर भी हैं और यह शिकायत करने पर अपनी ऊर्जा जाया कर रहे हैं कि दक्षिणपंथी विमर्श को बाधित करने के लिए साजिशें की जा रही हैं.

लोकतंत्र के कायदे

अमेरिकी कांग्रेस ‘बिग टेक’ पर लगाम कसने के लिए अगर कोई नया कानून बना भी दे तो ‘एंटिट्रस्ट’ कार्रवाइयों से इन प्लेटफॉर्मों की राजनीतिक ताकत को कोई सीधी चोट नहीं पहुंचने वाली है. वास्तव में, यह तर्क देने के पर्याप्त कारण हैं कि टेक इंडस्ट्री में एकाधिकार को लेकर जरूरत से ज्यादा डर फैलाया जा रहा है, क्योंकि निवेशकों और उद्यमियों के पास इतनी ताकत होती है कि वे अपने आश्रितों के बिजनेस मॉडल और एकाधिकार को भंग कर सकें. गौर करने वाली बात है कि इस ताजा पेशी में आइबीएम और माइक्रोसॉफ्ट नहीं थीं, जो एक समय विश्व के एंटीट्रस्ट रेगुलेटरों का निशाना बनी थीं.
इस कमजोरी के मद्देनजर लोकतांत्रिक देशों को नये मानदंड बनाने पड़ेंगे जिनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्यसत्ता के अधिकारों के बीच संतुलन की नयी व्याख्या करनी होगी ताकि टेक प्लेटफॉर्मों की राजनीतिक ताकत का हिसाब भी लगाया जा सके.

सुरक्षित देश

‘बिग टेक’ पर लगाम लगाने की आवाज़ें एक और कोने से उठ रही हैं, वह है राष्ट्रीय सुरक्षा. वैंडरबिल्ट लॉ स्कूल के प्रोफेसर गणेश सीतारमण ने एक लेख में लिखा है, ‘चीन से मुक़ाबला करना तो दूर, कई ‘बिग टेक’ कंपनियां देश के अंदर ही ओपरेट कर रही हैं और उनकी बढ़ती गतिविधियों के कारण वे अपनी फर्मों को खुफियागीरी और आर्थिक दबाव के खतरे में डाल कर अमेरिका के लिए मुश्किलें बढ़ा रही हैं.’ दरअसल, वे इस तर्क को मजबूत कर रहे हैं कि कई छोटी, प्रतिस्पर्द्धी फर्मों के जरिए काम करने वाला उद्योग विदेशी दुश्मनों द्वारा कब्जा किए जाने, सेंसर किए जाने या खरीदे जाने की चालों का बेहतर तरीके से मुक़ाबला कर पाएगा.


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अमेरिका ‘बिग टेक’ कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए जो कुछ करेगा उसका पूरी दुनिया पर असर पड़ेगा. 1980 के दशक में एटी ऐंड टी के विभाजन से दुनिया भर में टेलिकॉम क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त करने की शुरुआत हुई थी और इसके बाद इंटरनेट का भारी फैलाव हुआ था. अगर ‘बिग टेक’ पर सचमुच लगाम लगाया- चाहे इसका जो भी मतलब हो- जाता है तो इसका भी विश्वव्यापी असर होगा.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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