हाल ही में सामने आई अपनी किताब में बराक ओबामा की राहुल गांधी पर टिप्पणी सुर्खियों में रही. लेकिन एक कलंक और भी है जो भारत में चर्चा का विषय होना चाहिए. हमारे नौकरशाही के बारे में ओबामा लिखते हैं कि वो देश की तरक्की की राह में एक बाधा है: ‘अपने वास्तविक आर्थिक विकास के बावजूद, भारत एक अव्यवस्थित और गरीब जगह है: काफी हद तक धर्म और जाति से बंटा हुआ है, भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों और सत्ता के दलालों की सनक ने उसे बंधक बना रखा है और एक संकीर्ण नौकरशाही ने उसे पंगु किया हुआ है, जो बदलाव में अवरोध पैदा करने वाली है’.
भारत में शासन के इस मूल्यांकन से, वो अन्य लोग भी सहमत हैं जिन्हें हमारे सिस्टम में झांकने का मौका मिलता है. एक विदेशी राजनयिक ने हाल ही में मुझसे बताया कि उनके लिए दिल्ली में अपनी कार बेचना कितना मुश्किल था. एक विदेशी राजनयिक ने मुझसे कहा कि कोविड के कारण एयरपोर्ट पर कागज़ी कार्रवाई परेशान करने वाली थी: ‘मुझे फॉर्म भरने पड़े, ये पुष्टि करने के लिए कि मैंने फॉर्म भर लिए थे, जिससे इस बात की पुष्टि हुई कि मेरा आरटी-पीसीआर टेस्ट हुआ था, जो निगेटिव था’.
कोई भी, नरेंद्र मोदी जैसा मज़बूत लीडर भी, भारतीय नौकरशाही के तौर-तरीकों को बदलवा नहीं सकता- उनके परफेक्ट एसओपीज़ में गैर-ज़रूरी कदम कम करना और लोगों के जीवन को आसान बनाना. ऐसा लगता है कि नौकरशाही का वजूद ही, लोगों की जीवन को मुश्किल बनाने के लिए है क्योंकि पहिए का हर दांता, सिर्फ अपनी डेस्क के प्रति निष्ठावान रहने की कोशिश में लगा रहता है. बड़ी तस्वीर को कोई नहीं देखता और कहीं कोई जवाबदेही नहीं है.
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), अप्रत्यक्ष करों को आसान और सुगम बनाने के लिए लाया गया था. बहुत से देशों में इसने यही किया है. भारत में इसके वही परिणाम क्यों नहीं मिलने चाहिए? अब दाखिल होती है भारतीय नौकरशाही. जीएसटी के बारे में खासकर इसके शुरूआती दिनों में शिकायत ये थी कि ये कुछ ज़्यादा ही जटिल था. सिर्फ भारतीय नौकरशाह ही ऐसे उपाय को पेचीदा बना सकते हैं, जो चीज़ों को आसान बनाने के लिए था.
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कमांड व कंट्रोल के लिए कोविड एक मौका
महामारी के दौरान भारतीय नौकरशाही का सबसे खराब चेहरा सामने आया. कोविड टीकाकरण शुरू हो गया है लेकिन गृह मंत्रालय के आदेश के तहत देशभर में अभी भी स्विमिंग पूल्स चलाने की अनुमति नहीं है. कुंभ में लाखों लोगों के साथ, आप गंगा में डुबकी लगा सकते हैं लेकिन किसी पूल में नहीं तैर सकते. किसी ने एमएचए को नहीं बताया कि कोविड पानी से फैलने वाली बीमारी नहीं है. जिम खुले हैं- बंद जगहें, जहां खुले हुए पूल के मुकाबले, कोविड फैलने की संभावना अधिक है. पूल के लिए भीड़ का बहाना दिया जाता है. अगर ऐसा है तो क्या उत्तर भारत में कम से कम सर्दियों में पूल्स को खोलने की अनुमति दी जा सकती है? अगर मसला भीड़ का है, तो क्या हमारे नौकरशाहों ने हाल ही में किसी बाज़ार में जाने के बारे में सोचा है?
स्विमिंग पूल्स पर पाबंदी ने पेशेवर तैराकों के करियर को नुकसान पहुंचाया है. जब एमएचए ने सिर्फ एथलीट्स के लिए पूल्स को इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी, उसके बाद भी सभा राज्यों ने उन्हें नहीं खोला. कलम चलाने वाले स्वेच्छाचारी नौकरशाह ये फैसले अपने कक्षों में बैठकर करते हैं, जिनसे लाखों लोगों के जीवन, जीविका और स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं.
जैसा कि दि इकॉनमिस्ट ने यादगार ढंग से लिखा, भारतीय नौकरशाही लालफीताशाही की मदद से एक संक्रामक बीमारी से लड़ी. दिल्ली-एनसीआर में यातायत का आवागमन, इसकी एक अच्छी मिसाल थी, जिसमें एक राज्य अपनी सीमाएं खोल रहा था, जबकि दूसरा बंद कर रहा था और आपस में कोई तालमेल नहीं दिख रहा था. उसके बाद ये रात के कर्फ्यू रहे हैं, जिससे लोगों को मजबूरन मिलने-जुलने के काम, भीड़ भरे दिन के समय में करने पड़े और नतीजे में वायरस के फैलने का खतरा बढ़ गया था. बहुत से शहरों में, ट्रैफिक पुलिस ऐसे लोगों का भी मास्क न पहनने पर चालान कर रही थी, जो अकेले बंद गाड़ी चला रहे थे. आखिरकार अदालतों को दखलअंदाज़ी करके नागरिकों को जेबें ढीली करने के इस बेतुके उत्पीड़न से निजात दिलानी पड़ी.
एक एप भी था. आरोग्य सेतु, बाहर के इसी तरह के एप्स की तरह था, जो यूज़र्स को अलर्ट करता था, अगर वो किसी ऐसे व्यक्ति के नज़दीकी संपर्क में आ गए, जो बाद में कोविड संक्रमित पाया गया. कभी किसी को ये अलर्ट नहीं मिला. आरोग्य सेतु इतना बेकार था कि कुछ हफ्तों के बाद, एयरपोर्ट सिक्योरिटी ने भी इसके लिए पूछना बंद कर दिया. सरकार बेशक दावा करती है कि इस एप से, उसे कोविड के क्लस्टर्स का पता लगाने में मदद मिली. हमारे पास कोई चारा नहीं है, सिवाय उन पर यकीन करने के.
एयरलाइन्स को अभी भी लोगों से एक स्वास्थ्य घोषणा फॉर्म भरवाना पड़ता है. इससे अधिक मूर्खता भरा फॉर्म कोई हो ही नहीं सकता. अगर कोई यात्री बुखार होने के बाद, एक पैरासिटेमॉल लेकर उड़ान भर रहा है तो क्या आप अपेक्षा करेंगे, कि वो सरकारी घोषणा फॉर्म में ये कहेगा कि उसे बुखार है? फॉर्म भरने के इस पागलपन में कोई तुक ही नहीं है.
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जानवर से बात मत करो
जब लॉकडाउन घोषित किया गया, तो पुलिस घरों के अंदर रहने के लिए लोगों को पीट रही थी, जिनमें वो लोग भी शामिल थे जो एक मुकम्मल बंद में, अपनी जीविका कमाने की कोशिश कर रहे थे. हम सत्ताधारी नेताओं को दोष दे सकते हैं लेकिन नौकरशाहों से कोई सवाल नहीं किए जाते. अगर नौकरशाही लोगों की सेवा के लिए होती, न कि सिर्फ नियम लागू करने के लिए तो लॉकडाउन को कामयाब बनाने के लिए, उसने लोगों को इसमें शामिल किया होता. उसका मतलब होता एक अच्छा संवाद और समझाना-बुझाना. लेकिन फिर पुलिस की लाठी क्या करेगी?
कुछ हफ्ते पहले गुवाहाटी जाते हुए, मुझे नहीं मालूम था कि असम में दाखिल होने वाले सभी लोगों का अनिवार्य आरटी-पीसीआर टेस्ट किया जा रहा था. मेरी गलती थी, मुझे चेक करना चाहिए था. मेरी तरह दूसरे यात्री भी हक्का-बक्का थे. हमसे फॉर्म्स भरवाए गए, भीड़ भरी लाइनों में खड़ा कराया गया और फिर एक बे-आराम बस में भरकर, एक स्टेडियम में ले जाया गया जहां हमारे टेस्ट किए गए- और किसी एक इंसान ने भी इस प्रक्रिया या हमारे विकल्पों के बारे में, हमें कुछ नहीं बताया. हमें ऐसा लगा जैसे हमारे साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जा रहा था. आप जानवरों से बात नहीं करते, उन्हें बस इधर-उधर हांकते हैं. किसी ने भी हमारे साथ इंसानों जैसा बर्ताव नहीं किया, और ये नहीं बताया कि हम पैसा देकर तुरंत रिपोर्ट ले सकते थे, और इस तरह अनिवार्य क्वारेंटीन से बच सकते थे. मेरे हाथ पर तारीख की मुहर लग गई, तो मैंने विरोध किया. तब जाकर उन्होंने कहा कि पैसा देकर मैं क्वारेंटीन से बच सकता हूं. लेकिन फिर मुहर का क्या होगा? उन्होंने कहा, अरे, थोड़ा सा कोलिन लगा लीजिए.
मज़े की बात ये है कि अगर आप सड़क के रास्ते असम में दाखिल हों, तो किसी आरटी-पीसीआर टेस्ट की ज़रूरत नहीं है!
यहां पर परेशानी राजनेता नहीं हैं. कोई ये नहीं कहेगा कि कोविड से बचने के लिए, असम का राज्य में आने वाले लोगों का, कोविड टेस्ट कराना सही नहीं है. ये नौकरशाही है जिसे कार्यक्रमों को लागू करना होता है. मसलन, किसी नौकरशाह को ये खयाल नहीं आएगा कि एयरलाइन्स से कहें कि टिकट बुक कराते समय या बुक कराने के बाद, वो यात्रियों को ताज़ा नियमों से अवगत कराएं. टेक्नोलॉजी की सहायता से ये आसानी से हो सकता है. लेकिन नौकरशाह लोगों की आसानी की परवाह क्यों करेंगे? उनका काम नियमों को लागू करना है, जीवन की क्वॉलिटी सुधारना नहीं है.
(लेखर दिप्रिंट के कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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