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Sunday, 16 June, 2024
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बसपा जैसी पार्टियों का आकलन सिर्फ चुनावी सफलता के आधार पर करना गलत है

बसपा उत्तर भारत की एक मात्र ऐसी पार्टी है जिसने सदियों से समाज में हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार सहने वाले एक बहुत बड़े वर्ग को बहुजन के रूप में एक राजनीतिक पहचान दी.

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उत्तर प्रदेश में चल रहा विधान सभा चुनाव इन दिनों भारतीय राजनीति के केंद्र में बना हुआ है. वैसे तो विधान सभा के चुनाव 4 अन्य प्रदेशों में भी है (गोवा और उत्तराखंड में 14 फरवरी को संपन्न हुए, जबकि पंजाब में 20 फरवरी और मणिपुर में 28 फरवरी और 5 मार्च को होंगे). लेकिन सबका ध्यान उत्तर प्रदेश के ऊपर टिका है. इसकी सीधी सी वजह है उत्तर प्रदेश की विशाल जनसंख्या, जिसकी वजह से यह राज्य राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण है. भारतीय राजनीति में एक बहुत पुरानी कहावत है की दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है.

उत्तर प्रदेश चुनाव के संदर्भ में एक बात जो हर जगह सुनाई दे रही है वो है मायावती का इस चुनाव में सक्रिय भूमिका न निभाना. आप किसी भी चाय के दुकान पे चले जाएं या चौक चैराहों पर लोगों से बात करें. आपको कई सारे लोग यह बातें कहते हुए मिल जायेंगे की मायावती पर सीबीआई का दबाव है या मायावती ने अंदरखाने भाजपा से तालमेल कर लिया है. देश के कई सारे राजनीतिक पंडित भी उत्तर प्रदेश के चुनाव को भाजपा और सपा गठबंधन के बीच का मुकाबला बता रहे है. खैर उत्तर प्रदेश में कौन सी पार्टी सत्ता में आती है और मतदाता किसे विपक्ष में बैठने का आदेश देते है इसका फैसला तो 10 मार्च को ही चलेगा जब मतगणना होगी. लेकिन चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों बसपा का योगदान देश और विशेष कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण रहा है और उसकी वजह यह है:


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बसपा सरकार में कुशल नेतृत्व 

बसपा संस्थापक कांशीराम, संविधान निर्माता बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की इस बात से बहुत प्रभावित थे कि राजनीतिक सत्ता ही वो चाभी है जिसे हासिल करके समाज में हाशिये पर रह रहे एक बहुत बड़े वर्ग के जीवन में सकारात्मक बदलाव आ सकता है. इसी सोच के साथ 14 अप्रैल 1984 को बामसेफ और डी एस 4 की सफलता के बाद कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. एक राजनीतिक पार्टी के रूप में बसपा उत्तर प्रदेश में बेहद कामयाब रही है. अपनी स्थापना से एक दशक से भी कम समय में बसपा ने 1993 के विधान सभा चुनाव में 67 सीटें जीतकर, सपा के साथ गठबंधन की सरकार बनाई. हालांकि यह गठबंधन सिर्फ 2 सालों तक चला और 1995 में अति निंदनीय गेस्ट हाउस कांड के बाद टूट गया.

इसके ठीक बाद 03 जून 1995 को बसपा ने भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई और मायावती उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनी. मायावती के मुख्यमंत्री बनने को उस वक्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने लोकतंत्र का चमत्कार कहा था. 1995 से 2002 तक बसपा की जो तीन सरकार उत्तर प्रदेश में बनी वो सब भाजपा के समर्थन से भले ही बनी, लेकिन तीनों ही सरकार में मायावती ने दलित बहुजन के लिए काफी कुछ किया. चाहे वो अंबेकडर ग्राम योजना को सफलतापूर्वक लागू करना हो जिसके तहत दलितों के बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं को पहुंचाया गया या फिर पुलिस थानों में आरक्षण देकर दलितों को यह विश्वास दिलाना हो की वो बिना किसी डर के पुलिस के पास जाकर अपनी शिकायतों को रख सकते है.

गौरतलब है की 1995 के सितंबर माह में विश्व हिंदू परिषद ने यह सोचकर की उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही है, मथुरा में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर एक बड़ा आयोजन करने का निश्चय किया. विश्व हिंदू परिषद ने देश भर से साधु संतों और हिंदुओं से मथुरा पहुंचने का आह्वान किया. वीएचपी के इस आयोजन से सांप्रदायिक सौहार्द को पहुंचने वाले खतरे को भांपते हुए मायावती की सरकार ने यह सुनिश्चित किया की मथुरा में मौजूद मस्जिद के तीन किलोमीटर के दायरे में कोई भी आयोजन न हो. मायावती के इसी कुशल नेतृत्व का नतीजा है की उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता सांप्रदायिक सौहार्द के लिए बसपा की सरकार को सबसे अच्छा मानते है.

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तीन बार भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने के बाद 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा ने पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद से यह पहला मौका था जब किसी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी हो. यह बात सच है कि 2007 के बाद से बसपा को 2 लोकसभा और 2 विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है. लेकिन हर पार्टी को इस दौर से गुजरना पड़ता है.

हाशिए पर पार्टी

कांग्रेस ने 1989 से उत्तर प्रदेश में कोई चुनाव नहीं जीता है, 5 से 6 फीसदी वोट के साथ पार्टी हाशिए पे है. भाजपा नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की वजह से आज उत्तर प्रदेश में भले ही एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में स्थापित हो गई है, लेकिन 2017 के विधान सभा में जीत से पहले बीजेपी को भी लगातार तीन बार विधान सभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था. मुलायम सिंह यादव, आजम खान, शिवपाल सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह (दोनो का अब निधन हों चुका है) जैसे कद्दावर नेताओं के होने के बावजूद समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार उत्तर प्रदेश में सिर्फ एक बार 2012 में बनी. उस चुनाव में सपा का नेतृत्व युवा अखिलेश यादव कर रहे थे.

निश्चित तौर पर लोकतंत्र में चुनावी सफलता का सबसे बड़ा महत्व होता है. चुनावी सफलता किसी भी पार्टी को न सिर्फ अपना कार्यक्रम लागू करने का मौका देती है बल्कि कैडर और संगठन को भी उत्साहित रखती है. बसपा के सामने भी बदलते हुए राजनीतिक माहौल और चुनावी तौर तरीके में खुद को ढालने की चुनौती है लेकिन सिर्फ कुछ चुनावी हार की वजह से बसपा को चुका हुआ मानना सही नही है.


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सिर्फ चुनावी नहीं सामाजिक लोकतंत्र भी 

बसपा उत्तर भारत की एक मात्र ऐसी पार्टी है जिसने सदियों से समाज में हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार सहने वाले एक बहुत बड़े वर्ग को बहुजन के रूप में एक राजनीतिक पहचान दी.

आजादी के बाद बाबा साहब भीम राव अंबेडकर के प्रयासों से दलितों और आदिवासियों को संवैधानिक अधिकार तो मिले लेकिन 1947 से 1980 तक उत्तर प्रदेश में दलित बहुजन कांग्रेस के वोट बैंक से बढ़कर कुछ नही थे. बसपा के आने के बाद से ही देश के सबसे बड़े राज्य में वंचितों और शोषितों की अपनी एक स्वायत्त राजनीति आई. मेरा मानना है कि पिछले 3 दशक से उतर प्रदेश में सामाजिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जितना काम बसपा ने किया है उतना किसी और दल ने शायद ही किया हो.

उत्तर प्रदेश के मौजूदा चुनाव की सबसे खास बात है बड़े पैमाने पे छोटी-छोटी पार्टियों का मैदान में होना. चाहे वो ओम प्रकाश राजभर की सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी हो, संजय निषाद की निषाद पार्टी हो, अनुप्रिया पटेल की अपना दल (सोनेलाल) हो, उनकी माताजी के नेतृत्व में चल रही अपना दल (कमेरावादी) हो, या फिर केशव देव मौर्य की महान दल हो. यह सभी पार्टियां आज भले ही सपा और भाजपा के साथ गठबंधन में है. लेकिन इन सभी पार्टियों में एक बात खास है और वो यह की इन सभी पार्टियों के नेताओं ने अपनी राजनीति की शुरुवात कांशीराम के नेतृत्व में बसपा से की. यह कांशीराम, मायावती और बसपा के संघर्षों का ही नतीजा है की दलित और अति पिछड़े वर्गो में राजनीतिक चेतना आई और आज यह सब जातियां अपनी स्वायत्त राजनीति की और बढ़ रही है.

हो सकता है की आने वाले चुनाव में बसपा को अपेक्षाकृत सफलता न मिले लेकिन बसपा ने हिंदी पट्टी के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दलित बहुजन आंदोलन को जो धार देने का काम किया है वो हमेशा खास रहेगा और इसकी मिसाल मुझे दिखी रविदास जयंती के मौके पर बनारस में. बाबा विश्वनाथ की इस नगरी में जिस धूम धाम से रविदास जयंती को मनाया गया वह कहीं न कहीं बसपा की सफलता की कहानी को भी बयां करती है.

(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में  सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में रिसर्च स्कॉलर हैं. यहां व्यक्त विचार निजी है)


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