उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे योगी आदित्यनाथ की सरकार के पक्ष में आएं या विपक्ष में, उनके विरोधियों के नाम यह नाकामी अभी से दर्ज होती दिखाई दे रही है कि वे उनको गोरखपुर शहर सीट पर, जहां से वे खुद चुनाव लड़ रहे हैं, ठीक से घेरने में विफल रहे हैं.
भाजपा द्वारा इस सीट से योगी की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद उनकी प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी ने जिस तरह इसे अयोध्या व मथुरा से योगी का पलायन बताकर पहले के चुनाव में यहां से जीते भाजपा विधायक डाॅ. राधामोहनदास अग्रवाल और उनके खराब रिश्तों का लाभ उठाने की कोशिश की, साथ ही अग्रवाल को सपा के टिकट पर उनके खिलाफ ताल ठोकने का खुला ऑफर दिया, उससे एकबारगी लगा था कि वह योगी को उनके गढ़ में ही घेर लेने के लिए साम, दाम, दंड, भेद कुछ भी उठा नहीं रखेगी.
लेकिन अग्रवाल द्वारा उसके ऑफर के प्रति उत्साह न दिखाने और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद द्वारा अपनी पुरानी घोषणा के अनुरूप योगी के विरुद्ध खुद को मैदान में उतार देने के बाद लगता है, उसने अपनी रणनीति बदल ली है. हालांकि प्रेक्षकों द्वारा अभी भी कयास लगाये जा रहे हैं कि वह योगी के खिलाफ किसी ऐसे प्रत्याशी की तलाश में है, जो उनके खेमे में सेंध लगाकर उन्हें कमजोर कर सके.
यह भी पढ़ें: अविश्वसनीय क्यों हो गए हैं ओपिनियन पोल?
चंद्रशेखर आजाद का इतिहास दोहराने का दावा
इस बीच मीडिया का फोकस सपा की ओर से हटकर चन्द्रशेखर आजाद की ओर हो गया है, जो दावा कर रहे हैं कि वे योगी को चुनाव हराकर गोरखपुर के लोगों द्वारा 1971 में बनाये गये उस इतिहास को दोहरा देंगे, जो उन्होंने जिले की मानीराम सीट पर तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह को करारी शिकस्त देकर बनाया था. उनका दावा है कि वे खुद भी 36 छोटे दलों के ‘सामाजिक परिवर्तन मोर्चा’ की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, जो प्रदेश की सभी 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रहा है और मुकाबला पूरी तरह बराबरी का है.
यकीनन, 1971 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह की चुनावी शिकस्त के जिस इतिहास की वे बात कर रहे हैं, उसे लेकर गोरखपुर के लोग बहुत गौरवान्वित रहते हैं, लेकिन उसके बाद से प्रदेश की नदियों में इतना पानी बह चुका है कि कोई भी उनकी इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं है कि वे सचमुच उस इतिहास की पुनरावृत्ति कर सकेंगे. वे विपक्ष के साझा उम्मीदवार होते तो भी लोगों को इस पर थोड़ा एतबार होता, लेकिन यहां तो हालत यह है कि सपा से गठबंधन की उनकी कोशिश नाकाम हो चुकी है और उनकी पार्टी वोटकटवा होने के आरोप झेल रही है. तिस पर उनके और उनके समर्थक दलित संगठनों के उत्साह को छोड़ दें तो गोरखपुर में सब कुछ उनके खिलाफ है. इसलिए लगता यही है कि इस चुनावी लड़ाई में वे सुर्खियां जितनी भी बटोर लें, योगी को कोई गम्भीर चुनौती नहीं पेश कर पायेंगे. बड़बोले दावों के बावजूद न उनके पास ठीक-ठाक सांगठनिक ताकत है, न व्यापक समर्थन और न ही आंकड़े उनके पक्ष में हैं. योगी की सरकार की जो नाकामियां-महंगाई व बेरोजगारी में वृद्धि, भर्ती घोटाले, कोरोना से निपटने, कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा के मुद्दों पर विफलता-वे गिना रहे हैं, उन्हें लेकर गोरखपुर में योगी के खिलाफ लोगों में नाराजगियां भले हों, ऐंटीइन्कम्बैंसी जैसा कोई फैक्टर नहीं है और कोई बड़ा उलटफेर ही उन्हें मुश्किल में डाल सकता है.
समीकरण भाजपा के पक्ष में, लगातार जीतती आ रही
लेकिन आजाद के आने से मुकाबला दिलचस्प हो जाने के बावजूद ऐसा कोई उलटफेर होता नहीं दिखता. तिस पर जानकारों के अनुसार नये परिसीमन के बाद गोरखपुर शहर सीट योगी कहें या भाजपा के लिए सवर्ण बहुल होकर और अनुकूल हो गई है क्योंकि अल्पसंख्यक और निषाद समेत पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र में चला गया है और ब्राह्मण, वैश्य व कायस्थ भाजपा के परम्परागत मतदाता हैं, जबकि पिछड़े वर्ग में आने वाली चैहानों और कुछ दलितों के वोट भी उसे मिलते रहे हैं.
प्रसंगवश, गोरखपुर शहर सीट पर भाजपा 1989 के बाद 2002 को छोड़ लगातार जीतती आ रही है. 1989 में उसके मतदाताओं ने भाजपा के लिए पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को हराने में भी संकोच नहीं किया था, जो कांग्रेस के टिकट पर तिकड़ी मारने के लिए मैदान में थे और 1980 व 1985 में जीत चुके थे. इसी तरह 2002 में यहां के मतदाताओं ने योगी की हिन्दू महासभा के प्रत्याशी डाॅ. राधामोहन दास अग्रवाल के लिए भाजपा के दिग्गज शिव प्रताप शुक्ल को धूल चटा दी थी. उन दिनों योगी की भाजपा से ठनी हुई थी. इसलिए कहने वाले यह भी कहते हैं कि इस सीट के मतदाताओं की पहली पसन्द योगी ही हैं और भाजपा उनकी दूसरी प्राथमिकता है.
लगे हाथ एक नजर गोरखपुर के मतदाताओं द्वारा मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले को हराने के उस इतिहास पर भी डाल ली जाये, जिसका जिक्र कर चन्द्रशेखर आजाद योगी के विरुद्ध मनोवैज्ञानिक बढ़त लेने के फेर में हैं.
कांग्रेस के 2 मुख्यमंत्री हार चुके हैं चुनाव
दरअसल, 1970 में प्रदेश की तत्कालीन चौधरी चरण सिंह सरकार के पतन के बाद कांग्रस (ओ) के नेता त्रिभुवन नारायण उर्फ टीएन सिंह कांग्रेस (ओ), जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय क्रांति दल की नई गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने तो प्रदेश विधानमंडल के किसी सदन के सदस्य नहीं थे. नियमानुसार उन्हें 6 महीनों के भीतर यह सदस्यता अर्जित कर लेनी थी. इसके लिए वे 1971 में गोरखपुर जिले की मानीराम विधानसभा सीट को अपने लिए सुरक्षित मानकर उसके उपचुनाव में उतरे तो कुछ ऐसी हवा चली कि मतदाताओं ने उनको विधानसभा का मुंह नहीं देखने दिया. बताते हैं कि गोरखपुर की गोरक्षपीठ ने भी उनका समर्थन किया था, फिर भी वे मतदाताओं का आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर सके और प्रतिष्ठापूर्ण मुकाबले में कांग्रेस के प्रत्याशी रामकृष्ण द्विवेदी ने उन्हें हरा दिया. तब द्विवेदी ने इस जीत का सारा श्रेय अपना प्रचार करने आई इंदिरा गांधी की झोली में डाला था. इस हार के बाद त्रिभुवन नारायण उर्फ टीएन सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना पड़ा था.
लेकिन त्रिभुवन नारायण सिंह उत्तर प्रदेश विधानसभा का उपचुनाव हारने वाले पहले मुख्यमंत्री नहीं थे. इससे पहले 1958 में तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त ने हमीरपुर जिले की मौदहा सीट के अपने समर्थक विधायक ब्रजराज सिंह का इस्तीफा दिलाया और उपचुनाव में वहां से प्रत्याशी बने तो अप्रत्याशित रूप से एक निर्दल महिला प्रत्याशी से शिकस्त खा गये थे. उन्हें हराने वाली यह प्रत्याशी थीं-बुंदेलखंड स्थित राठ के दीवान शत्रुघ्न सिंह की पत्नी रानी राजेंद्र कुमारी. वे स्वतंत्रता संघर्ष में चार बार जेल जा चुकी थीं.
उस उपचुनाव में रानी की जीत व गुप्त की हार का एक बड़ा कारण मतदान से पहले कांग्रेस व गुप्त के विरोधियों द्वारा जानबूझकर उड़ाई गई यह अफवाह थी कि गुप्त रानी से जबरन शादी करने के फेर में हैं और जीत गये तो जबर्दस्ती उनका डोला उठवा ले जाएंगे. इस अफवाह के शिकार मतदाताओं ने रानी के प्रति हमदर्दी में गुप्त के खिलाफ एकतरफा वोटिंग कर दी.
उपचुनाव के नतीजे आये तो गुप्त इतने दुःखी हुए कि खुद को यह कहने से नहीं रोक पाये थे कि मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुख्यमंत्री रहते उपचुनाव हार जाऊंगा. मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें मिली इस शिकस्त की कसक की अभी भी रस लेकर चर्चा की जाती है.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: आज की राजनीति में देश को क्या दूसरा लालबहादुर शास्त्री मिलेगा