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Friday, 15 November, 2024
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यह महाशक्तियों के हितों का टकराव ही नहीं है, यूक्रेन संकट से भारत को भी है खतरा

यह अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि यूक्रेन में महाशक्तियों के बीच जारी संघर्ष कब खत्म होगा. लेकिन, इतना तय है कि यह हर हाल में, दशकों तक भारत की विदेश नीति को प्रभावित करेगा.

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नई दिल्ली: बर्लिन की दीवार टूटने के तीन महीने बाद, टिमोथी गार्टन ऐश ने उसे ‘धरती की सबसे बड़ी पार्टी कहा’ था. जब नवंबर, 1989 की रात हजारों लोग अपने ‘हाथों में फ़ावड़ा और मोमबत्तियां, गुलदस्ते और शैंपेन की बोतल’ लिए बर्लिन की सड़कों पर निकल आए थे. वे शीतयुद्ध के केन्द्र में रही उस दीवार को गिरा देना चाहते थे. दूसरी तरफ अमेरिका में वहां के शीर्ष अधिकारी एक गोपनीय घोषणापत्र पढ़ रहे थे जिसमें दुनिया की नई संरचना बनाने की योजना बनाई गई थी.

साल 1994-1999 की डिफेंस प्लानिंग गाइडलाइन के ड्राफ्ट के मुताबिक अमेरिका का रणनीतिक लक्ष्य, ‘नए प्रतिस्पर्धियों को फिर से मजबूत नहीं होने देता है. इसमें कहा गया है, ‘हमें संभावित प्रतियोगियों को हतोत्साहित करना है और उनकी वैश्विक भागीदारी बढ़ने से रोकने की व्यवस्था को भी बनाए रखना है.’

पिछले एक सप्ताह में रूस के एक लाख से ज्यादा सैनिक यूक्रेन की सीमा से लगे क्षेत्रों में भेजे गए हैं. हालांकि, लगातार चले कूटनीतिक प्रयासों के बाद इनमें से कुछ सैनिकों को वापस भी बुलाया गया है. गौरतलब हो कि यह घटना भारत जैसी देशों के लिए चिंता का विषय है. रूस हाल के वर्षों में फिर से पुराना रुतबा पाना चाहता है. चीन की तरह वह भी अपने आस पास के देशों में अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है और राष्ट्र-राज्यों के मामलों को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है.

शीत युद्ध के बाद के युग को आकार देने वाले वादे

शीतयुद्ध के खत्म होने के बाद यह माना गया कि प्रभुत्व हासिल करने का चलन खत्म हो गया है. लेकिन, इन घटनाओं से यह साफ हो गया है कि बर्लिन ग्रेट स्ट्रीट पार्टी के बाद भी महाशक्तियों का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है. गोपनीय दस्तावेजों से पता चलता है कि ये स्थितियां क्यों बनी हैं और इन समस्याओं का कोई पुख्ता समाधान निकाल पाना आसान क्यों नहीं है.

बर्लिन की दीवार गिरने के बाद, अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ ने शीत युद्ध के बाद के यूरोप पर अपनी-अपनी शक्ति की सीमाएं तय करने की चर्चाएं शुरू कर दीं. जर्मनी को एक करने की इच्छा के चलते ऐसा लगा कि अमेरिका, रूस से उसके पूर्वी यूरोप के ब्लाक के टूटने की चिंता पर भी बातचीत करना चाहता है.

एक गोपनीय दस्तावेज में दर्ज बयान के मुताबिक राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के विशेष दूत जेम्स बेकर सोविय यूनियन के राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बाचोब से कहते हैं, ‘मैं आपको बताना चाहता हूं कि न तो राष्ट्रपति और न ही मैं एकपक्षीय फ़ायदा चाहता हूं.’ ‘नाटो का वर्तमान क्षेत्र पूर्व की ओर एक ईंच भी नहीं बढ़ेगा.’ अब यह दस्तावेज सार्वजनिक हो चुका है.

वर्षों से महाशक्तियां दुनिया चलाती रही हैं. साल 1823 में राष्ट्रपति जेम्स मोन्रो ने अमेरिका(लैटिन अमेरिका) पर यूएएस का प्रभुत्व होने का दावा किया था.

दूसरे विश्वयुद्द के बाद, फ्रैंक्लिन रूज़वेलट ने दुनिया को सुरक्षित रखने के लिए ‘चार पुलिसवाले’ का जिक्र किया. शीत युद्ध के दौरान उन्होंने किसी का पक्ष नहीं लिया जब रूस ने विद्रोह को दबाने के लिए चेकोस्लोवाकिया, हंगरी और पोलैंड में कार्रवाई की.

सोवियत संघ के विघटन के बाद, अमेरिका का आत्मविश्वास बढ़ा. डिफेंस प्लानिंग गाइडेंस के लेखक, गणितज्ञ और नव-रूढ़िवादी विचारक पॉल वोल्फोविट्ज़ का मानना है कि शीत युद्ध के समय अमेरिका पर जो पाबंदिया थीं वह पूरी तरह से खत्म हो गई हैं. अब उसका एकछत्र राज है. वोल्फोविट्ज़ के एक लीक ड्राफ्ट में अमेरिका पर साम्राज्यवादी होने का आरोप लगाया गया है.

अमेरिका ने उसका अनुकरण एक छोटे से रूप में किया भी गया जो नए युग में अमेरिकी सोच को दर्शाता है. अमेरिका ने इराक पर हमला किया, पनामा के सैन्य शासक मैन्यूअल नॉरेगा को गद्दी से उतारा, सर्बिया पर वहां के हत्यारे शासक स्लोबोदान मिलोसेविक के विरोध में बमबारी की.

अमेरिका के बहुत सारे लोगों के लिए, जिस उदारवादी विश्व व्यवस्था की बात कही गई, वह नैतिक जान पड़ती हैः हर देश को अपनी विदेश नीति बनाने का अधिकार है और अगर वह साझा नियमों का उल्लंघन करता है तो उस देश को दोषी ठहराया जाएगा.

जैसा कि प्रसिद्ध विद्वान रॉबर्ट कगान ने कहा था, ‘उदारवादी विश्व व्यवस्था भी वैसी ही है जो दूसरों पर थोपी जाती है, और जैसा कि हम पश्चिम में बैठकर सोचते हैं कि उसे श्रेष्ठ नैतिकता द्वारा लागू किया जाएगा लेकिन वैसा होता नहीं है. सामान्य तौर इसे महाशक्तियां ही लागू करवाती है.’

नाटो का पूर्वी झुकाव

अमेरिकी मंशा से 1990 के मध्य से नाटो का झुकाव पूर्वी देशों की ओर होने लगा. यह झुकाव पूर्व सोवियत के प्रभाव वाले पूर्वी यूरोप के पोलैंड और दूसरे बाल्टिक राज्यों में फैला.
बहुत से रूसी नेताओं को यह अस्तित्व का खतरा जैसा लगा जिससे क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उनके सामने प्रतिष्ठा का सवाल खड़ा हो गया. इस चिंता को चेचेनिया में इस्लामिक
कट्टरपंथियों से चले लंबे और कठोर युद्ध से और बल मिला.

साथ ही, रूस के विघटन का भय भी दिखने लगा. वोल्फोविट्ज़ गाइडेंस डाक्यूमेंट में वाशिंगटन को सलाह दी गई

‘उसे ध्यान रखना चाहिए कि रूस में लोकतांत्रिक बदलाव संभव नहीं है. भले ही वह संकटों से गुजर रहा हो, लेकिन रूस यूरेशिया में सर्व शक्तिशाली बना रहेगा. साथ ही, दुनिया की वह एकमात्र शक्ति होगा जो अमेरिका के विध्वंस की क्षमता रखेगा.’ रूसी नेताओं की नजर में नाटो की कार्यवाई का मतलब था कि यह उसकी बची-खुची ताकत को समाप्त कर दिया जाए.

उदारवादी विपक्षी नेता ग्रेगरी यावलिंस्की का कहना था, ‘ऐसा कहना बहुत हास्यास्पद होगा कि नाटो सैन्य गठबंधन नहीं है और यह नाटो कुछ अलग है. यह कुछ वैसा ही होगा जैसे कोई भीमकाय वस्तु जो आपके बगीचे में आ रही है, वह तोप नहीं है क्योंकि वह गुलाबी रंग की है, फूलों से लदी है और उसमें मजेदार संगीत बज रहा है. आप उसे कैसे ही सजाएं,

गुलाबी तोप, तोप ही रहेगी.’

मामले ने 2014 में उस समय तूल पकड़ा जब एक जन आंदोलन के बाद रूस समर्थक यूक्रेन के राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को पद से हटा दिया गया.

क्रैमलिन को लगा कि यानुकोविच को गद्दी से हटाने में अमेरिका का हाथ है. बदले में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के क्रीमिया और डॉनबॉस क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया.


यह भी पढ़ें- यूक्रेन पर रूस के हमले की आशंका अब भी बनी हुई है, ‘निर्णायक’ जवाब देने के लिए तैयार : बाइडन


पुतिन का यूक्रेन में शक्तिप्रदर्शन

अमेरिका ने इस बार चेतावनी दे डाली कि वह कब्जे को लेकर ‘निर्णायक जवाब देगा और इसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगे’.

राष्ट्रपति जोय बिडेन पुतिन को कितना नापंसद करते हैं सबको पता है, उन्होंने रूसी राष्ट्रपति को ‘हत्यारा’ कहा था और उन्हें इसकी ‘कीमत चुकाने’ की चेतावनी भी दी थी.

हालांकि, यह अभी स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में अमेरिका अपने छोटे यूरोपीय मित्रों की रक्षा के लिए सचमुच कोई लड़ाई लड़ सकता है.

इसी तरह पुतिन को लगता है कि यूरोपीय नेताओं को पहले ही संदेश मिल चुका है. रूस के पास यूक्रेन के इर्द-गिर्द लाखों की संख्या में सैन्य टुकड़ियां हैं जबकि अमेरिका की नहीं.

कई कारणों से यह शक्ति प्रदर्शन उचित भी लगता है. रूस के ऊपर गैस के लिए बहुत निर्भर होने की वजह से जर्मनी ने इस साल अपने आखिरी परमाणु रिएक्टर को बंद कर दिया है और 2038 तक कोयले से बिजली बनाने पर बैन करने वाला
है.
साथ ही, अगर किसी तरह का नियंत्रण लगता है तो वह अपने नार्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन प्रोजेक्ट को भी बंद कर सकता है. वहीं फ्रांस के नेताओं की चिंता है कि अमेरिका,रूस को चीन के करीब ला रहा है.

हालांकि, यूरोपीय यूनियन और अमेरिका के प्रतिबंधों का प्रतिकूल प्रभाव रूसी अर्थव्यवस्था पर जरूर पड़ा है, लेकिन वह बर्बाद हो जाएगा ऐसा नहीं लगता. वास्तव में देखें तो रूस ने लंबे संकट से निपटने के लिए अपने विदेशी एक्सचेंज को रेकार्ड स्तर तक बढ़ा लिया है.

इस संघर्ष से पीछे जाने के लिए भी अमेरिका को कुछ वास्तविक परिणाम भी झेलने पड़ेंगे. अगर वह रूस के साथ संघर्ष में असफल रहता है तो अमेरिकी साख का उसके मित्र देशों यूरोप और एशिया पर क्या असर होगा?

रूस, पश्चिमी ताकतों को अपनी शक्ति से कितना प्रभावित करेगा? और चीन जो पहले से ही अपने नजदीकी छोटे देशों पर अपनी दादागीरी करने में जुटा है उसपर इस संकट का क्या असर होगा? यह कहना अभी थोड़ा मुश्किल है कि यूक्रेन में चल रहा सत्ता- संघर्ष कैसे समाप्त होगा, लेकिन यह तो तय है कि भारत की
दुनिया आने वाले दशकों में जरूर बदल जाएगी.

व्यक्त विचार निजी हैं

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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