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Monday, 29 April, 2024
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आंबेडकर को सिर्फ दलित प्रतीक मानना ठीक नहीं, भारतीय महिलाओं के प्रति उनके नारीवादी दृष्टिकोण को भी समझें

मनुस्मृति में कहा गया है कि 'महिलाओं को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं है.' उनकी शिक्षा और संपत्ति के अधिकारों के लिए अंबेडकर की लड़ाई से पता चलता है कि वह सिर्फ एक दलित प्रतीक क्यों नहीं थे.

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आंबेडकर एक महान राष्ट्र-निर्माता थे जो देश के समग्र विकास में महिलाओं को धुरी मानते थे. जुलाई 1942 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय दलित वर्ग महिला सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ”मैं किसी समुदाय की प्रगति को महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति से मापता हूं.” महिलाओं की मुक्ति के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील और उदार था क्योंकि उनका मानना था कि सामाजिक न्याय केवल आधुनिक संस्थागत ढांचे के भीतर ही संभव है. इस प्रकार, उन्होंने संवैधानिकता की भावना को बढ़ावा दिया जिसने महिलाओं के लिए समान अधिकार और सम्मान सुनिश्चित किया.

आंबेडकर के प्रयासों की याद दिलाने वाली दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं हिंदू कोड बिल और उनका बौद्ध धर्म को स्वीकार करना है. हालांकि, यह एक विडंबना है कि कुछ नारीवादियों द्वारा किया जाता है कि हिंदू कोड बिल ‘राजनीतिक स्टंट’ था. यह आंबेडकर को एक नारीवादी दार्शनिक के रूप में स्वीकार करने में सवर्ण नारीवादियों के बीच जातिगत पूर्वाग्रह को दर्शाता है. भारतीय समाजशास्त्री और विद्वान शर्मिला रेगे ने बताया है कि आंबेडकर की दृष्टि महिलाओं के दृष्टिकोण से भारतीय आधुनिकता पर पुनर्विचार करने की थी. वह एक नई जगह बनाना चाहते थे जहां महिलाएं खुद को आवाज दे सकें, खासकर उत्पीड़ित जातियों की महिलाएं.

आंबेडकर एक व्यावहारिक व्यक्ति थे जो महिलाओं को मुक्त करने के यथार्थवादी, तर्कवादी और व्यावहारिक तरीकों में विश्वास करते थे. उन्होंने महिलाओं को समान अवसर देने के लिए संवैधानिक दर्शन का उपयोग किया, जो ऐतिहासिक रूप से उन्हें नहीं दिया गया था.

हिंदू महिलाओं के उद्धारक

महिलाओं की मुक्ति में आंबेडकर का योगदान उनके कार्यों और लेखों में परिलक्षित होता है, जिसमें प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति और हिंदू धर्म की पहेलियां शामिल हैं. सामाजिक न्याय का प्रश्न उनके लेखन के केंद्र में था, जिसमें उस समय महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात की गई थी जब सामाजिक संरचनाएं अभी भी पारंपरिक और गहराई से जाति-प्रेरित थीं. इस सामाजिक संरचना में दलित और अन्य उत्पीड़ित जाति की महिलाएं दोगुनी हाशिये पर थीं.

आंबेडकर ने तर्क दिया कि महिलाओं की कमज़ोल स्थिति मनुस्मृति के कारण आई है जो उन्हें शिक्षा तक पहुंच से वंचित करती है. उनकी कृति द राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ हिंदू वुमन में मनुस्मृति (IX.18) के नियम के बारे में कहा गया है: “महिलाओं को वेदों का अध्ययन करने का कोई अधिकार नहीं है. इसीलिए उनके संस्कार बिना वेद मंत्रों के किये जाते हैं. स्त्रियों को धर्म का कोई ज्ञान नहीं है क्योंकि उन्हें वेदों को जानने का कोई अधिकार नहीं है. पाप दूर करने के लिए वेद मंत्रों का उच्चारण उपयोगी है. चूंकि स्त्रियां वेद मन्त्रों का उच्चारण नहीं कर सकतीं; इसलिए वे असत्य जैसी हैं.” [बीएडब्ल्यूएस, खंड 17(2), पेज नं. 119]

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आंबेडकर के अनुसार, मनुस्मृति से पहले, महिलाओं को समाज में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त थी. जैसा कि अथर्ववेद और श्रौत-सूत्र (खंड 17(2), पृष्ठ 122) में वर्णित है, उन्हें शिक्षा तक पहुंच प्राप्त थी. उन्होंने ऋषि गार्गी, विद्याधारी और सुलभा मैत्रेयी जैसी प्राचीन भारत की महिला हस्तियों को भी स्वीकार किया, जो अपने समय की महान विदुषी थीं और जिनका उल्लेख मनु-पूर्व साहित्य में किया गया है.

मनुस्मृति जैसे ग्रंथों की आलोचना के पीछे आंबेडकर का उद्देश्य महिलाओं के लिए शिक्षा को बढ़ावा देना था. सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर शैलजा पाइक ने महिलाओं की शिक्षा के प्रति अंबेडकर की प्रतिबद्धता पर अपनी चर्चा में बात की है कि बाबासाहेब ‘सुधारना’ में विश्वास करते थे, जिसका अर्थ शिक्षा के माध्यम से महिलाओं की बुद्धि और आत्म-विकास को बढ़ावा देना था. आंबेडकर द्वारा स्थापित समाचार पत्र बहिष्कृत भारत के 3 फरवरी 1928 के संस्करण में उन्होंने लिखा, “ज्ञान और शिक्षा केवल पुरुषों के लिए नहीं है; वे महिलाओं के लिए भी आवश्यक हैं…यदि आप भावी पीढ़ियों के लिए सुधार चाहते हैं, तो लड़कियों को शिक्षित करना बहुत महत्वपूर्ण है. आप मेरे भाषण को भूलने या उसे व्यवहार में लाने में असफल होने का जोखिम नहीं उठा सकते.”

महिलाओं के अधिकारों के लिए आंबेडकर का महत्वपूर्ण योगदान 1950 के दशक के दौरान हिंदू कोड बिल के पारित होने में उनकी कोशिश थी.

विधेयकों के प्रति आंबेडकर का उत्साह महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित करने की उनकी इच्छा से आया था, जो मनुस्मृति और धर्मशास्त्रों के प्राचीन हिंदू कानून कोड में उन्हें देने से इनकार किया गया था. पारंपरिक रूप से महिलाओं के स्वामित्व वाली एकमात्र संपत्ति ‘स्त्रीधन’ थी, जिस तक महिला का वास्तविक अधिकार था और वह भी केवल सजातीय विवाहों में ही संभव था. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के माध्यम से, एक हिंदू महिला को अपनी संपत्ति पर पूर्ण अधिकार मिल गया. अधिनियम की धारा 6 ने परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा ही पारिवारिक संपत्ति को पाने के अधिकार को समाप्त कर दिया और हिंदू महिलाओं के लिए भी अधिकार बढ़ा दिया.

हिंदू महिलाओं को दिए गए संपत्ति के अधिकार के साथ, अंबेडकर यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि महिलाओं के पास भौतिक संसाधनों पर अधिकार और नियंत्रण हो. इस प्रकार, महिला मुक्ति के प्रति उनका दृष्टिकोण केवल बयानबाजी नहीं थी, बल्कि सामाजिक-कानूनी ढांचे में समानता का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए एक यथार्थवादी दृष्टिकोण था.

समसामयिक कल्चरल प्रेक्टिस

जातिगत रूप से हाशिए पर पड़ी महिलाओं के लिए, आंबेडकर किसी अन्य के विपरीत सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं. आंबेडकर को लेकर गीतों, चित्रों और लेखों के रूप में सांस्कृतिक उत्पाद दलित-बहुजन महिलाओं द्वारा उनकी स्वीकार्यता को दर्शाता है.

यह विडम्बना है कि आंबेडकर एक महत्वपूर्ण नारीवादी नेता थे, लेकिन उन्हें काफी हद तक एक ‘दलित आइकन’ होने तक सीमित कर दिया गया है. ऐसा संकीर्ण दृष्टिकोण आधुनिक राष्ट्र-निर्माण के उनके दृष्टिकोण को समाहित करने में विफल रहता है. भारत के संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में, अम्बेडकर ने हाशिए के लोगों, विशेषकर महिलाओं को शामिल करके नागरिकता और न्याय के प्रतिमानों को फिर से डिजाइन किया.

अंबेडकर जयंती पर, जब बाबासाहेब अंबेडकर के इर्द-गिर्द एक सांस्कृतिक उत्सव का माहौल रहता है, तो लोगों को यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं को भारत के विकास के केंद्र में लाने के लिए उन्हें किस तरह के संघर्ष से गुजरना पड़ा. महिलाओं की मुक्ति के लिए एक सामाजिक-कानूनी न्यायगत ढांचा स्थापित करने के लिए, आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी सत्ता संरचनाओं के साथ गंभीरता से काम किया था, जो समाज में महिलाओं की ख़राब स्थिति के मूल में थे.

बी.आर. आंबेडकर के बाद आंबेडकर के नेतृत्व में, कई दलित और उत्पीड़ित जाति की महिलाएं सामने आईं और उन्होंने सवर्ण समुदाय द्वारा जारी और इसका सामान्यीकरण किए गए अन्याय के खिलाफ बात की. उन्होंने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक क्षमताओं में जाति-विरोधी संघर्ष में भाग लेकर खुद को स्थापित किया. प्रमुख लेखिका उर्मिला पवार और मीनाक्षी मून ने दलित समुदाय की कई महिलाओं की चर्चा की है जिन्होंने सामाजिक न्याय के संघर्ष में आंबेडकर के साथ एकजुटता दिखाई.

केवल जब हम बाबासाहेब के नारीवादी दृष्टिकोण को उसके वास्तविक सार में स्वीकार करते हैं, तभी हम भारतीय महिलाओं और उनके अधिकारों के लिए एक दूरदर्शी के रूप में उन्हें उचित श्रद्धांजलि दे सकते हैं.

(के. कल्याणी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में सहायक प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @FiercelyBahujan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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