हर कोई चाहता है कि सरकार कुछ ज्यादा काम करे— जिन 10 करोड़ लोगों ने अपनी आजीविका गंवाई है उन्हें और ज्यादा राहत दे, व्यवसायियों को बड़ा पैकेज दे, राज्यों को ज्यादा वित्तीय सहायता दे, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा खर्च करे, आदि-आदि. इस सबके लिए पैसा कहां से आएगा, इस बारे में विशेषज्ञ लोग भी लगभग एकमत हो रहे हैं. चूंकि वित्तीय गुंजाइश ज्यादा नहीं है, नोट छापो और उन्हें गरीबों पर खर्च करो और परेशानहाल व्यापार जगत की रक्षा करो. इसे सामान्य स्थितियों में बेहद गैर-जिम्मेदाराना कदम ही कहा जाएगा. इसके लिए जो नतीजा भुगतना पड़ता है उसे मुद्रास्फीति या विदेशी मुद्रा का संकट (जो 1991 में आया था) या दोनों का मेल कहा जाता है. लेकिन आज तेल की कम कीमतों और पर्याप्त कोष के कारण इन दोनों, खासकर विदेशी मुद्रा के संकट को कम जोखिम वाला कदम माना जाता है. जहां तक सामान्य स्थितियों की बात है, फिलहाल जो स्थिति है उसे सामान्य नहीं ही कहा जा सकता.
कितने पैसे की जरूरत है ? कोई सही-सही नहीं बता सकता लेकिन इसकी किसी संख्या तक पहुंचने के लिए शुरुआत इस विचार को ध्यान में रखते हुए करनी होगी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने इस साल के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर 1.9 प्रतिशत रहने की जो भविष्यवाणी की है वह संदिग्ध है. संदेह का कारण यह है कि आशावादी भविष्यवाणी करने और बाद में उसे संशोधित करने का लंबा इतिहास रहा है आइएमएफ का. यह साल भी कोई अपवाद नहीं दिख रहा है.
इस बात की पूरी संभावना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल वृद्धि दर्ज करना तो दूर, सिकुड़ने वाली है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जिन तत्वों से बनता है उनमें से आधे— मैनुफैक्चरिंग, निर्माण, परिवहन एवं व्यापार, ऋण देने वाला वित्तीय क्षेत्र, मनोरंजन/आतिथ्य क्षेत्र— जिन्हें हरावल दस्ता कहा जा सकता है, जरा उन पर विचार करें. मार्च के आंकड़े बताते हैं कि बिजली उपभोग में 25 प्रतिशत की कमी आई है, बेरोजगारी तीन गुना बढ़कर 24 प्रतिशत पर पहुंच गई है, निर्यात में 35 प्रतिशत की गिरावट आई है. ये आंकड़े बर्बादी के संकेत देते हैं. अंत में, यह ध्यान रखिए कि चीन ने अभी-अभी कहा है कि ताज़ा तिमाही के लिए उसकी जीडीपी में 6.8 प्रतिशत की कमी आई है. ऐसी परिस्थितियों में भारत अगर वृद्धि दर्ज करता है तो इसे चमत्कार ही कहा जाएगा.
इसका वित्तीय पहलू यह है कि जब सरकार पर मांगों का बोझ बढ़ा होगा तभी टैक्स का आधार तेजी से सिकुड़ेगा. अगर टैक्स के मोर्चे पर 10-15 प्रतिशत तक की भी कमी आई तब भी केंद्र और राज्य सरकारें खुद को भाग्यशाली मानें. इसका मतलब होगा 5 खरब तक का घाटा. यानी वित्तीय घाटा (ठीक से हिसाब लगाने पर) उस स्तर पर पहुंच जाएगा जिस पर कभी नहीं पहुंचा था और यह 1990-91 वाली स्थिति से भी बुरी स्थिति होगी. इसके ऊपर अगर सरकार को संकट निवारण के उपायों पर भी खर्च करना पड़ा तो इसका अर्थ होगा अतिरिक्त 5 खरब तक का बोझ. यानी नोट छापने के सिवा कोई उपाय नहीं बचेगा.
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यह जोखिम से मुक्त नहीं होगा, क्योंकि अपवाद स्थितियों में उठाए गए असाधारण कदम तब तक के लिए आदत बन जाते हैं जब तक कि कोई दूसरा संकट नहीं आ जाता. आज ज्यादा बड़े घाटे में पड़ा अमेरिका जैसा देश तो इससे उबर जाएगा लेकिन वित्त के केन्द्रों के मुक़ाबले विकासशील देशों को हमेशा बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. यही वजह है कि उर्जित पटेल ने विकसित देशों की नकल करते हुए वैसे ही कदम उठाने के खिलाफ सावधान किया है. इस तरह की रूढ़िवादिता ठीक तो है मगर आज इसे बहुत कबूल नहीं किया जाएगा, वैसे मोदी सरकार ऐसे मामलों में आम तौर पर रूढ़िवादिता को ही पसंद करती है. जाहिर है, हम खतरनाक मोड़ पर हैं.
‘हेलिकॉप्टर मनी’ यानी नकदी भुगतान के लिए मौजूदा उत्साह, लघु व्यापारों को सहारा देने, बैंक लोन को लेकर सरकारी चेतावनी आदि से पहले ही सरकार पर मांगों का बोझ बढ़ रहा है. अब कई लोग जिस कल्याणकारी राज्य की मांग कर रहे हैं उसने एक नैतिक पहलू अख़्तियार लिया है, हालांकि संकट के बाद के दौर में अर्थव्यवस्था धीमी गति से ही उबर पाएगी और उसके पास संसाधन की कमी ही होगी. जो भी हो, प्रति व्यक्ति महज 2000 डॉलर की आय के बूते कल्याणकारी राज्य की कल्पना बेमानी ही होगी.
सरकार से उम्मीद की जा सकती है कि वह संभावनाओं का विस्तार करते हुए इस संकट के दौर में अधिकतम प्रयास करे. लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह जो भी करेगी वह पर्याप्त नहीं होगा. लोगों को तकलीफ उठानी पड़ेगी. कम आय वाली अर्थव्यवस्था जब उथलपुथल से रू-ब-रू होती है तो उसे इसकी कीमत चुकानी ही पड़ती है, और सबसे ज्यादा बोझ उन पर पड़ता है जो हाशिये पर होते हैं और जिनके पास कोई जमा-पूंजी नहीं होती. मुझे नहीं लगता कि इससे बचने का कोई उपाय है. सच से आंख मोड़ना पलायनवाद ही माना जाएगा.
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भारतीय अर्तव्यवस्था मूलतः कृषि पर आधारित है जो लेख में स्पर्श तक नहीं किया गया। यही क्षेत्र इसे उबरने में मदद करेगा। कृषि एवं कृषि आधारित उद्योग सबसे महत्वपूर्ण है। कोराना वायरस के निपटने के बाद मेरी टिप्पणी को संजो कर रखे। और the print हमेशा की तरह एक नकारात्मकता से घिरी दिखाई दिया । महामारी के बाद भारत ही पूरे विश्व का आर्थिक संचालन का केंद्र बिंदु होगा क्यूंकि चीन के खिलाफ सारा विश्व एकत्रित रहा है और भारत अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।
आपका जवाब सही है। प्रिंट के लेखकों में सिर्फ नकारात्मक विचारधारा है। ये समय सरकार के लिए नागरिकों की रक्षा का है। सिर्फ इकॉनमी की बात करनेवाले अमेरिका, टर्की, ब्राज़ील और कुछ पश्चिम यूरोपीय देशों की दुर्गति हमारे सामने है।
You are correct
The print is suggesting to central govt. Just like, it is playing a real Patriot role, paying taxes and all. Packages are when country is going through only financial crisis, but it’s the time of pendemic. I tumble by thinking if there were khangress in centre.