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Sunday, 22 December, 2024
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इज़रायल के पहले पीएम बेन गुरियन ने नेहरू को बोला था- ‘महान व्यक्ति’, मध्यस्थता करने के लिए की थी अपील

डेविड बेन-गुरियन ने 1963 में नेहरू से मिस्र के साथ मध्यस्थता में मदद करने की अपील की. उन्होंने एक पत्र में लिखा था,  'आपकी बातें दुनिया की परिषदों में एक विशेष महत्व रखती है.'

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इज़रायल-हमास युद्ध पिछले 100 दिनों से भी अधिक समय से चल रहा है और इसके जल्द ख़त्म होने का कोई भी संकेत नहीं है. हमास ने 120 से अधिक लोगों को बंधक बना रखा है और इज़रायल इसके प्रतिरोध में सैन्य कार्रवाई करने पर अड़ा हुआ है. गाजा में 20 लाख से अधिक लोग बेघर व परेशान हैं और खाने-पानी व दवा के बिना जिंदगी बितान को मजबूर हैं. इज़रायली बंधकों के हताश परिवार ‘उन्हें अभी घर लाओ’ के नारे के साथ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. शायद वे समझते हैं कि उनके नेताओं ने जो युद्ध छेड़ा है वह उनके प्रियजनों को वापस लाने में असफल रहेगा.

इस संघर्ष ने अतीत में कई मध्यस्थों को निराश किया है, इसलिए इसकी संभावना नहीं है कि इस बार कोई मध्यस्थ होगा. दिल्ली में फ़िलिस्तीनी दूत ने स्क्रॉल के साथ एक इंटरव्यू में सुझाव दिया कि भारत को इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच मध्यस्थता करनी चाहिए क्योंकि वह ऐतिहासिक रूप से फ़िलिस्तीनियों का समर्थन करता रहा है और फिलिस्तीनी उस पर विश्वास करते हैं. साथ ही इज़रायल के साथ भी इसकी रणनीतिक साझेदारी है. संयुक्त राज्य अमेरिका या यूरोपीय शक्तियों के विपरीत, भारत के पास मध्यस्थता करने का एक बेहतर मौका है क्योंकि दोनों पक्ष इस पर पर्याप्त भरोसा करते हैं. इजराइल के राष्ट्रपति इसहाक हर्जोग ने भी कहा कि भारत, दुनिया में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र के रूप में, इजराइल और इस क्षेत्र के लिए तर्कसंगत तरीके से सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मध्यस्थता एक मुश्किल काम है और भारत को अभी भी अनुभव हासिल करने की जरूरत है. लेकिन यह पहली बार नहीं है जब भारत को इस तरह के संघर्ष में मध्यस्थता करने के लिए कहा जा रहा है. इज़रायली अभिलेखागार के अनुसार, जवाहरलाल नेहरू को 1963 में इज़रायल के पहले और तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन द्वारा मध्यस्थता करने के लिए कहा गया था.


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कूटनीतिक दूरी

इज़रायल से नेहरू की कूटनीतिक दूरी और फिलिस्तीनी मुद्दे के प्रति उनके समर्थन के बावजूद, बेन-गुरियन नेहरू के प्रिय थे. यह इज़रायल के राजनयिक इतिहास में एक अभूतपूर्व और दोबार फिर कभी न घटित होने वाली घटना थी. नेहरू के लोकतांत्रिक नेतृत्व, धर्मनिरपेक्ष राजनीति और समाजवादी प्रवृत्ति ने बेन-गुरियन का ध्यान अपनी ओर खींचा. “भारत में लोकतंत्र हमारे समय के सबसे महान चमत्कारों में से एक है. निस्संदेह, यह काफी हद तक नेहरू के व्यक्तित्व के कारण है…” उन्होंने यह बात तब कही थी जब उन्हें कैलिफोर्निया के एक प्रभावशाली थिंक-टैंक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशंस में ‘विश्व में लोकतंत्र’ पर भाषण देने के लिए 1963 में आमंत्रित किया गया था.

नेहरू के अधीन भारत ने तत्काल राष्ट्रीय हित और इज़रायल-अरब/फिलिस्तीन मुद्दे का समाधान न होने सहित विभिन्न कारणों से इज़राइल से राजनयिक दूरी बनाए रखी. केवल कुछ ही समय के लिए नेहरू, इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध मार्च 1952 में शुरू करने वाले थे. प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में, 1951 के पहले आम चुनाव के बाद, उन्होंने सिविल सेवकों को तेल अवीव में एक रेज़िडेंट मिशन की स्थापना के लिए एक बजट तैयार करने का निर्देश दिया. लेकिन, इस तरह की संभावना को पहले बजटीय सीमा के कारण और बाद में स्वेज नहर संकट के कारण – जब 1956 में ब्रिटेन, फ्रांस और इज़राइल ने मिस्र पर हमला किया था – रोक दिया गया.

उस समय, नेहरू के सामने इज़रायल के बारे में विचार करने के बजाय दूसरी बड़ी तात्कालिक चिंताएं सामने खड़ी थीं. विभाजन के बाद भारत, आक्रामक पाकिस्तान और कश्मीर तथा हैदराबाद के विवाद से घिर गया था, जो जल्द ही अंतर्राष्ट्रीय मामला बन गया था क्योंकि नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र लेकर चले गए थे. भारत चाहता था कि अरब देश नई दिल्ली का समर्थन करें न कि पाकिस्तान का. इज़राइल के साथ संबंध न रखना भारत की अरबों के साथ एकजुटता की दिखाने की कोशिश थी.

यह भूराजनीतिक पैंतरेबाज़ी हर किसी को पसंद नहीं आई. कांग्रेस के प्रख्यात नेता और 1946-47 के दौरान पार्टी के अध्यक्ष रहे जेबी कृपलानी ने इज़रायल के साथ भारत के संबंधों के अभाव पर दुख व्यक्त किया. “मैंने खुद इज़राइल का दौरा किया है. मैं व्यक्तिगत रूप से श्री डेविड बेन-गुरियन से उनके आश्रम [किबुत्ज़, स्दे बोकर के लिए एक दिलचस्प शब्द, जहां बेन-गुरियन ने अपने अंतिम वर्ष बिताए थे] में मिला था.

अप्रैल 1966 में, नेहरू की मृत्यु के दो साल बाद उन्होंने कहा था, “मैं जानता हूं कि हमारे प्राचीन ज्ञान में उन्होंने कितनी रुचि दिखाई थी. मैं पहले ही संसद में बोल चुका हूं कि हमें इज़रायल के साथ करीबी रिश्ते रखने चाहिए.’ लेकिन हमारी सरकार अरब देशों से डरती है. हालांकि वे हमारी किसी भी तरह से मदद नहीं करते हैं.” अरब राज्यों ने कश्मीर मुद्दे पर भारत का समर्थन नहीं किया और इसने कृपलानी को इज़रायल के साथ भारत के राजनयिक संबंधों के न होने की आलोचना करने के लिए प्रेरित किया.

नेहरू की आवाज

भारत के तात्कालिक राष्ट्रीय हित, जैसे तेल और कश्मीर का संवेदनशील मुद्दा, मध्य-पूर्व में इसकी विदेश नीति को निर्धारित करते थे. इज़रायल जैसे युवा देश अरब राज्यों की तुलना में भारत को वास्तविक रूप से बहुत कम देने की स्थिति में थे. इसके अलावा, तथाकथित “तीसरी दुनिया” के नेता के रूप में, नेहरू फिलिस्तीनियों के साथ खड़े होना चाहते थे. फिर भी, बेन-गुरियन नेहरू का बहुत सम्मान करते थे और उनके इज़रायल से दूरी बना के रखने के बावजूद उनसे नाराज़ नहीं थे. बेन-गुरियन ने मई 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को बताया, “उन्हें (इज़रायल के प्रति उसके रुखेपन के लिए) आंकना मेरा काम नहीं है. वह एक महान व्यक्ति हैं. मैं उनकी प्रशंसा करता हूं. भारत में लोकतंत्र है; जापान को छोड़कर यह एशिया का एकमात्र देश है जो लोकतांत्रिक है. अगर नेहरू गए तो मुझे यकीन नहीं है कि क्या होगा; लेकिन [अभी के लिए] यहां लोकतंत्र है.”

किसी देश के मुखिया के लिए यह सामान्य बात नहीं है कि वह किसी ऐसे दूसरे देश के मुखिया की प्रशंसा करता रहे जिसने अभी तक उनके साथ राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किए हैं. फिर भी, बेन-गुरियन नेहरू का इतना आदर करते थे कि पूरे एक दशक तक बिना किसी सार्थकता के भारत के साथ राजनयिक संबंधों को निभाने के बाद 1963 में उन्होंने नेहरू को एक पत्र लिखा जिसमें उनसे मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर के साथ मध्यस्थता करने के लिए कहा गया, जिन्हें कथित रूप से सोवियत संघ से इज़रायल पर हमला करने के लिए हथियार मिल रहे थे.

जब नासिर ने 1963 में इज़रायल के खिलाफ सीरिया और जॉर्डन के साथ समझौता किया तो बेन-गुरियन चिंतित थे. यह जानते हुए कि नेहरू नासिर के अच्छे दोस्त थे, उन्होंने नेहरू से संपर्क साधा और कहा, “मेरे प्रिय प्रधानमंत्री, आपकी बातें दुनिया की परिषदों में एक विशेष महत्व रखती हैं, और आपके प्रशंसकों में से एक के रूप में, मुझे विश्वास है कि आप मिस्र के राष्ट्रपति को उस खतरनाक साहसिक कार्य पर जाने से रोकने के लिए अपने महान अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का पूरा उपयोग करेंगे जिसकी वह बात करते हैं और उन्हें मनाएंगे कि उन्हें इज़रायल के साथ शांति वार्ता शुरू करनी चाहिए.

जवाब में, नेहरू ने उन्हें लिखा, “मैं आपसे सहमत हूं कि वर्तमान स्थिति में हमारे सभी प्रयासों को अंतर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने, शांति के संरक्षण और संयुक्त राष्ट्र को मजबूत करने के लिए निर्देशित करना पहले से कहीं अधिक आवश्यक है.” लेकिन 1963 नेहरू के लिए एक परेशानियों भरा साल था; वह चीन के हमले के बाद राजनीतिक और रणनीतिक असफलताओं से जूझ रहे थे. वह इससे उबर नहीं सके और 1964 में उनकी मृत्यु हो गई.

इज़रायल और मिस्र ने 1967 और 1973 में युद्ध लड़ने के बाद 1978 में अपने संघर्ष को सुलझा लिया और 1993 में जॉर्डन व इज़रायल के बीच के विवाद भी सुलझ गए.

इज़रायल -फिलिस्तीन संघर्ष अभी भी अनसुलझा है, और इज़राइल व हमास के बीच मौजूदा युद्ध दोनों के बीच शांति स्थापित करने में मदद नहीं करेगा. हमास एक कट्टरपंथी और हिंसक संगठन है जिसने अभी तक द्वि-राज्य समाधान को स्वीकार नहीं किया है. इज़राइल के कट्टरपंथियों ने खुद को इतने लंबे समय तक धोखा दिया है कि वे फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्ज़ा ख़त्म किए बिना रह सकते हैं.

किसी भी मध्यस्थता का विफल होना निश्चित है, जैसा कि ओस्लो समझौते में हुआ था, जब तक कि दोनों पक्ष अपने विचारों की गलत धारणाओं और एक-दूसरे के प्रति गलतफहमियों को दूर नहीं कर लेते. मध्यस्थता तभी काम कर सकती है जब दोनों पक्ष ईमानदारी से शांति के लिए तैयार हों. लोगों – चाहे वे इजरायलियों की तरह अपने राज्य की रक्षा करने वाले हों, या फिलीस्तीनियों की तरह किसी राज्य के लिए लड़ने वाले हों – का नुकसान होना ही है जब तक कि उनके पास इस हिंसा के दुष्चक्र से निकालने वाला कोई प्रामाणिक नेतृत्व नहीं होगा.

(डॉ. खींवराज जांगिड़ तेल अवीव से लिखते हैं. वह सोनीपत के ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स के सेंटर फॉर इज़रायल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर और निदेशक  हैं. वह इज़रायल के नेगेव के बेन-गुरियन विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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