हत्यारों के चाकुओं ने जब उन पर अपना काम पूरा कर लिया तब शोधकर्ता, पत्रकार, कूटनीतिज्ञ लॉरेंस पॉल एलवेल-सट्टन यह सोचने लग गए कि आखिर यह किया क्यों गया : “शालीन और सटीक पश्चिमी राजनीति को अबूझ पुरबियों से मात खानी पड़े, यह सचमुच में शायद ही ठीक है”. 1951 की गर्मियों में अतिवादी ईरानी नेता मोहम्मद मोस्सदिक ने ब्रिटेन की कीमती तेल कंपनी की शाखा एंग्लो-ईरानी तेल कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया. पश्चिमी खेमा गुस्से में आकर उनका तख्ता लटने की गुप्त साजिश में जुट गया था क्योंकि उसे लग रहा था कि ईरान कम्यूनिज़्म की ओर बढ़ रहा है.
अब इस हफ्ते इज़रायल के सटीक हवाई हमलों ने ईरान पर राज कर रहे मजहबी सत्तातंत्र के आक्रामक शाही मुखौटे को तार-तार कर दिया. ईरान की यह व्यवस्था लंबे समय से धोखे के बूते चलती रही है. ईरान की शीतयुद्ध वाले दौर की डगमगाती वायुसेना और बहुचर्चित देसी हवाई सुरक्षा अपने अहम सैन्य ठिकानों की रक्षा न कर सकी, देश के आला अधिकारी इन सटीक हमलों में मानो काट डाले गए. ईरान ने कम लागत से देश में तैयार की गई बैलिस्टिक मिसाइलों से जवाब देने की कोशिशस की, लेकिन वह कारगर नहीं हुईं.
इज़रायल को अगर अपनी रणनीति को सफल बनाना है तो उसने, अमेरिका और ब्रिटेन ने 1953 में जो किया था उससे आगे बढ़कर ईरान की हुकूमत को गिराना होगा. वजह सीधी-सी है : इज़रायल ने यह कोशिश की है कि मध्य-पूर्व में कोई भी प्रतिद्वंद्वी ताकत उसके गुप्त परमाणु हथियारों के लिए खतरा न बने. डेविड अलब्राइट सरीखे परमाणु विशेषज्ञों का कहना है कि फिलहाल इस बात के फीके संकेत ही हैं कि यूरेनियम परिष्करण के फोर्दों, इस्फहान और नतांज स्थित गहरे अंडरग्राउंड ठिकानों को कोई गहरा नुकसान पहुंचा है.
लड़ाई खत्म हो जाए और हुकूमत कायम रही तो ईरान परमाणु हथियार के निर्माण और परीक्षण का विनाशकारी फैसला कर सकता है. इसमें अधिकतर लोगों की कल्पना से कम समय ही लग सकता है. भौतिक विज्ञानी हुइ झांग का कहना है कि चीन ने परीक्षण योग्य परमाणु हथियार 1964 में मात्र तीन हफ्ते के अंदर तैयार कर लिया था, जबकि उसके पास आधुनिक साजोसामान भी नहीं थे.
इज़रायल को उम्मीद है कि उसके हमलों के कारण, अपनी सरकार से परेशान ईरानी लोगों के लिए अयातुल्लों की हुकूमत को गिराने का रास्ता आसान हो जाएगा. या वह इस्लामिक स्टेट अथवा स्थानीय बलूच बागी हुकूमत को आत्मपरीक्षण करने पर मजबूर कर देंगे. यह बड़े दांव वाला जुआ है, जो प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के किए-धरे पर पानी फेर सकता है.
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जीत की पूर्व घोषणा
हालांकि, ईरान की मिसाइल क्षमताओं की चर्चा दुनिया भर के विशेषज्ञों ने की है, लेकिन हकीकत यही है कि अयातुल्ला की फौज को जंग लग चुकी है. पिछले साल रडार के चित्र अप्रत्याशित रूप से ईरानी समाचार चैनलों पर लीक हो गए जिससे पता चला कि नतांज की सुरक्षा 1970 के दशक में सोवियत संघ में बनी रडार सिस्टम कर रही है और देश में बनीं मिसाइलों में आपस में अच्छी तरह तालमेल बिठाने की क्षमता नहीं है. यहां तक कि ईरान को जो रूसी एस-400 सिस्टम सीमित संख्या में दिए गए थे वह इज़रायल के आधुनिक एफ-22 और एफ-35 जेट विमानों के सामने बेअसर दिखे.
इससे भी बुरी बात यह है कि ईरान की वायुसेना अभी भी शीतयुद्ध वाले दौर के एफ-4 फैंटम-2 विमानों और नॉर्थ्रोप एफ-5 विमान के देसी संस्करण पर निर्भर है. ये दोनों शुरू में अमेरिका ने उसे दिए थे. वायुसेना के पास सोवियत युग के मिग-29 जेट विमान भी थोड़ी संख्या में मौजूद हैं, लेकिन न तो चीन और न ही रूस इस इस्लामी गणतंत्र को आधुनिक लड़ाकू विमान या अत्याधुनिक मिसाइल सिस्टम देने को तैयार है.
ईरान ने 2024 में इज़रायल पर मिसाइलों से जो जवाबी हमला किया था उसने उसके ‘आत्मनिर्भर’ मिसाइल प्रोग्राम की सीमाओं को उजागर कर दिया था. उसकी कई मिसाइलें लान्च ही नहीं हो पाईं, कई को बीच में ही मार गिराया गया और कई ने लक्ष्य से काफी दूर जाकर निशाना दागा. ये कमियां मुख्यतः इसलिए थीं क्योंकि प्रतिबंधों के कारण ईरान को सटीक निशाना लगाने वाली तकनीक नहीं दी गई.
इस हफ्ते इज़रायली हमलों के ईरानी जवाब ने इन सीमाओं को और उजागर कर दिया. ‘हेसा शाहेड 136’ जैसे ड्रोन जबकि यूक्रेन में कुछ कारगर रहे हैं, ऐसी सफलता एकदम अलग किस्म के युद्धक्षेत्र में हासिल हुई है, जहां प्रतिद्वंद्वी आमने-सामने हैं और उन्हें हवाई सुरक्षा नहीं हासिल है. इसके विपरीत इजरायल काफी कम आबादी वाले इलाकों को कई स्तरों वाली हवाई सुरक्षा नेटवर्क से सुरक्षा दे रहा है. इसमें उसे ईरान से धीमी गति से चले ड्रोनों से मदद मिलती है, जिन्हें काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ती है.
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के रिपोर्टर फरनाज़ फस्सीही ने लिखा है कि ईरान के शीर्ष नेतृत्व ने इज़रायली हमले के खतरों का गलत आकलन किया. वह यह मान बैठा कि इज़रायल अमेरिका के साथ वार्ता के महज़ चंद दिनों पहले कार्रवाई नहीं करेगा. इसने इज़रायली स्पेशल फोर्स को ज़मीन पर पहले से तैनात अपने एजेंटों का इस्तेमाल करके ईरान के आला अधिकारियों को निशाना बनाने की छूट दे दी.
लेकिन इन रणनीतिक सवालों के उत्तर स्पष्ट नहीं हैं कि क्या इज़रायली हमले ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से वास्तव में रोक देंगे? और तब क्या होगा जब वह ऐसा नहीं कर पाए?
ईरान-इजरायल जोड़ा
अमेरिकी खुफिया उपग्रह ने सितंबर 1979 में हिंद महासागर में दूरदराज़ के एक द्वीप पर जलती जिन दो रोशनियों का पता लगाया था उन्होंने दुनिया को जता दिया था कि अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बाद इज़रायल छठी परमाणु शक्ति बन गया है. इतिहासकार एवनर कोहेन ने लिखा है कि फ्रांसीसी सहायता ने इज़रायल को परमाणु हथियार बनाने में बड़ी तकनीकी और वित्तीय बाधाओं को पार करने में मदद की.
विडंबना यह है कि फ्रांस ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम की नींव डालने में भी मदद की. सोवियत संघ की धमकी और पश्चिमी देशों की ओर से सुरक्षा गारंटियों की परवाह न करते हुए ईरान के बादशाह शाह रज़ा पहलवी ने असैनिक परमाणु कार्यक्रम शुरू करने की मंजूरी दे दी, जो गुप्त ‘वेपन्स प्रोजेक्ट’ के साथ-साथ चला. 1974 में, ईरान ने दो ‘प्रेसराइज्ड वाटर रिएक्टर’ बनाने का करार फ्रांसीसी कंपनी ‘फ्रामाटोम’ के साथ किया. इसके बाद ऐसे छह और रिएक्टर बनाने का करार जर्मनी के साथ किया.
शोधकर्ता मुस्तफा किबारोग्लू ने लिखा है कि 1970 के दशक में फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका के बीच व्यापारिक होड़ के कारण पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, ईरान और लीबिया जैसे देशों के लिए संवेदनशील परमाणु टेक्नोलॉजी हासिल करना आसान हो गया. शोधकर्ता त्रिता पारसी ने लिखा है कि एक विडंबना यह भी है कि इज़रायल ने जब अपना मिसाइल उत्पादन संयंत्र बनाया तो ईरान ने आधुनिक ‘गाइडेड मिसाइल प्रोग्राम’ की नींव डाल दी.
शाह का तख्ता पलटने वाली 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान ने 1987 में पाकिस्तान के साथ रणनीतिक सहयोग का समझौता किया. जैसा कि राजनीतिशास्त्री मॉली मैकेलमैन की प्रामाणिक कृति बताती है, इस समझौते ने ईरान को अब्दुल कादिर खान द्वारा चलाए जा रहे काला बाज़ार से परमाणु प्लांट का खाका और साजोसामान उपलब्ध करा दिया.
ये सब सद्दाम हुसैन के इराक के साथ उसके बर्बर युद्ध से मिले सबक की देन थीं. पश्चिमी देशों के समर्थन के साथ ईरान ने खुद को एक क्रूर युद्ध में उलझा पाया. इसके जवाब में उस समय ईरानी संसद के स्पीकर और मिलिटरी चीफ अकबर हाशमी रफसनजानी ने घोषणा की कि “हमें हमला करने और अपनी हिफाजत के लिए रासायनिक, बैक्टेरियोलॉजिकल और रेडियोलॉजिकल हथियारों से पूरी तरह लैस हो जाना चाहिए.”
ईरान की मजहबी हुकूमत के लिए वजूद को लेकर चिंताओं ने परमाणु क्षमता को एक ज़रूरत बना दिया. इज़रायल को यह उभरता खतरा महसूस होने लगा, जिसे मुल्क के नेता बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.
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ईरान में आखिरी चाल
इज़रायली खुफिया तंत्र ने चोरी के जिन दस्तावेज़ को हासिल किया उनसे साफ हो गया कि ईरान ने परमाणु हथियार हासिल करने का पक्का राजनीतिक फैसला 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही कर लिया था. संभव है, कई परिस्थितियों ने ईरान के मजहबी नेतृत्व के फैसले को स्वरूप प्रदान किया. पहली बात तो यह हुई कि 1990 में खाड़ी युद्ध ने साफ कर दिया कि अमेरिका ईरान की फौज से बेहतर सद्दाम हुसैन की फौज को तेज़ी से नष्ट कर सकता है. इसके अलावा, युद्ध खत्म होने के बाद भी ईरान को इराक से खतरा बना रहा. ईरानी नेतृत्व ने अपने वैज्ञानिकों को प्रारंभिक प्रतिरोध के लिए 10 किलोटन के पांच परमाणु बम बनाने के आदेश दे दिए.
लेकिन 9/11 कांड और खान के परमाणु तस्करी नेटवर्क के खुलासे ने दुनिया बदल दी. पश्चिमी देशों के साथ सुलह के इरादे से ईरान ने परमाणु हथियारों के अपने कार्यक्रम को आंशिक तौर पर स्थगित कर दिया और अपने परमाणु संयंत्रों और यूरेनियम भंडार के दरवाजे इंटरनेशनल एटमिक इनर्जी एजेंसी (आइएईए) द्वारा जांच के वास्ते खोल दिए.
ईरान ने अंततः 2015 में जर्मनी समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों के साथ समझौता किया. प्रतिबंधों की वापसी के एवज में ईरान ने यूरेनियम के परिष्करण की सीमा 3.67 प्रतिशत निर्धारित की, जो 20 प्रतिशत की सीमा से काफी कम है, जिस सीमा तक हथियारों की खातिर परिष्करण की इजाजत है.
लेकिन इज़रायल के दबाव में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप 2015 में इस समझौते से मुकर गए. इज़रायल का तर्क था कि ईरान का मिसाइल प्रोग्राम उसे परमाणु बम गिराने की क्षमता से लैस करता है, जिसे उसके अपने अनुभव के मुताबिक गुप्त रूप से तैयार किया जा सकता है.
प्रतिबंधों ने ईरान को बम बनाने से नहीं रोका, इस अनुभव से सीख लेते हुए ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में परमाणु समझौते को बहाल करने की पहल की. ट्रंप के सार्वजनिक बयान यही संकेत देते हैं कि उन्होंने इज़रायली हमले को टालने की कोशिश की और इसे ईरान के नेतृत्व से नई रियायतें हासिल करने का औज़ार बनाया. बताया जाता है कि सऊदी अरब के रक्षा मंत्री और उसके बादशाह सलमान बिन अब्दुल अजीज के बेटे खालिद बिन सलमान ने अप्रैल में ईरान को एक गुप्त संदेश भेजकर चेतावनी दी कि अगर समझौता नहीं किया जाता तो इज़रायल की ओर से फौजी कार्रवाई हो सकती है.
इज़रायल और अमेरिका अब शर्त लगा रहे हैं कि ईरान का नेतृत्व अपनी सैन्य तथा आर्थिक कमजोरियों को कबूल करेगा और वार्ता की मेज पर आएगा. खासकर ट्रंप ने इज़रायली हमले के बाद ईरान को दूसरा मौका देने के वादे के साथ सुलह का संकेत दिया है.
लेकिन जैसा कि सभी जुओं में होता है, इस जुए के नतीजे की भविष्यवाणी असंभव है. ईरान के नेता यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि तेज़ी से परमाणु हथियार बनाकर और उनके बूते बेहतर मोल-तोल करके वह फायदे में रहेंगे और इसके कारण इज़रायल सैन्य अभियान तेज़ कर सकता है, जिसके नतीजे न केवल ईरान बल्कि ग्लोबल इनर्जी मार्केट और सऊदी अरब तथा यूएई जैसे अरब मुल्कों के लिए भी अप्रत्याशित हो सकते हैं.
ईरान की हुकूमत गिर भी गई तो नई हुकूमत भी वजूद को लेकर उन्हीं चिंताओं से ग्रस्त होगी जिन्होंने अयोतुल्ला के हाथ परमाणु हथियारों की तरफ बढ़ा दिए थे. सीआईए की मदद से मोस्सदिक का जो तख्तापलट किया गया था उसने ईरान में वामपंथी खेमे को भले ही पीछे हटने पर मजबूर किया हो, लेकिन उसने उसी मिसाइल तथा परमाणु कार्यक्रम का आधार तैयार किया था जिसके कारण आज इज़रायल को खतरा महसूस हो रहा है.
खतरनाक सच्चाई यह है कि विश्व-व्यवस्था के चरमराने से (चाहे यह यूक्रेन में रूस की जंग के कारण हो या दक्षिण कोरिया तथा जापान जैसे देशों को चीन उभर रहे खतरों के कारण हो) ज्यादा-से-ज्यादा से देश यह सोच रहे हैं कि परमाणु हथियारों पर पैसा बहाना क्या पैसा वसूल कराएगा. यह एहसास सबको एक ऐसी नई तरह की दुनिया की ओर ले जा रहा है जिसके जोखिमों की हम धुंधली-सी कल्पना ही कर सकते हैं.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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