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Tuesday, 17 December, 2024
होममत-विमतक्या नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों को लेकर जान-बूझकर भ्रम पैदा किया जा रहा है

क्या नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों को लेकर जान-बूझकर भ्रम पैदा किया जा रहा है

तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और अयोध्या के फैसले को लेकर पनप रहे असंतोष के बाद क्या नागरिकता कानून ने 'आग में घी' का काम कर दिया है. संभव है जन आक्रोष के कारण फिलहाल सरकार एनआरसी पर अपनी योजना टाल दे.

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एक पुरानी कहावत हैः सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा. यह कहावत नागरिकता संशोधन कानून लागू होने के बाद मुसलमानों को देश से बाहर निकालने के प्रयासों के दुष्प्रचार के साथ ही देशभर में हो रहे हिंसक प्रदर्शनों के संदर्भ में पूरी तरह सही लगती है. इस कानून को लेकर समाज के एक वर्ग, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, के आक्रोष को देखकर निश्चित ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह स्वःस्फूर्त पनपा आक्रोष नहीं है.

कहीं ऐसा तो नहीं है कि तीन तलाक देने की कुप्रथा को दंडनीय अपराध बनाने संबंधी कानून, जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने संबंधी संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधान खत्म करने का केन्द्र सरकार का निर्णय और अंत में राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के फैसले को लेकर पनप रहे असंतोष ने नागरिकता संशोधन कानून ने ‘आग में घी’ का काम कर दिया हो.

यह सवाल मन में उठने की एक वजह यह है कि नागरिकता संशोधन कानून किसी भी तरह से भारतीय नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने के बारे में नहीं हैं. सरकार ने संसद में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि किसी भी मुसलमान को यहां से निकाला नहीं जायेगा.


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यही नहीं, फिलहाल तो नागरिकता संशोधन कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे में है और उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को लेकर दायर करीब पांच दर्जन याचिकाओं पर केन्द्र से जवाब भी मांगा है. इस मामले में सुनवाई की अगली तारीख 22 जनवरी है. चूंकि अब इस कानून की संवैधानिक वैधता पर शीर्ष अदालत फैसला करेगी, इसलिए सोचने वाली बात यह है कि इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीतिक हवा देना कितना उचित है.

इस विवादास्पद कानून के उद्देश्यों और इसके प्रावधानों से नागरिकों को अवगत कराने के लिये इनका विस्तृत प्रचार प्रसार करने के लिये न्यायालय में दायर याचिका पर अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल पहले ही अपनी सहमति दे चुके हैं. सरकार ने इस दिशा में कदम भी उठाये हैं.

जहां तक सवाल पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक पंजी लागू करने का है तो सरकार ने स्पष्ट किया है कि इसके लिये तो अभी नियम और इसकी रूपरेखा भी नहीं बनी है. वैसे भी पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक पंजी लागू करना सरल नहीं है, असम के लिये उच्चतम न्यायालय की निगरानी में बनी राष्ट्रीय नागरिक पंजी और इसे लेकर उठ रहे विवाद सबके सामने हैं.

केन्द्र सरकार भले ही भारत में घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें बाहर निकालने के लिये देशभर में राष्ट्रीय नागरिक पंजी लागू करने का राग अलाप रही हो, लेकिन मौजूदा स्वरूप में ऐसा करना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर है. अकेले असम में उच्चतम न्यायालय की निगरानी में राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार करने का काम हुआ तो भी उसमें चार साल से अधिक वक्त लगा था. ऐसी स्थिति में पूरे देश की नागरिक पंजी तैयार करने में लगने वाले समय और मानवशक्ति और इस पर आने वाले खर्च की सहज ही कल्पना की जा सकती है.

नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजी के मुद्दों को लेकर राजनीतिक दलों और संगठनों के इन आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे लोगों में से अधिकांश को इन मुद्दों की जानकारी ही नहीं है. कहीं पर आन्दोलन में शामिल युवक कह रहे हैं कि सरकार ने मुसलमानों को वापस भेजने का कानून बनाया है तो कहीं पर आन्दोलनकारी युवा यह कहते सुने जा रहे हैं कि लालू यादव को छुड़ाना है या फिर तानाशाही नहीं चलेगी, लेकिन किसकी, इसकी उन्हें भी जानकारी नहीं है.

हां, बहुत संभव है कि सरकार 2021 में होने वाली राष्ट्रीय जनगणना कार्यक्रम के प्रारूप में ही कुछ फेरबदल करके प्रत्येक नागरिक के लिये सामान्य से अलग कुछ अन्य जानकारी उपलब्ध कराना अनिवार्य कर दे.

इस समय, हालांकि, तीन पड़ोसी देशों से 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आये हिन्दू, सिख, बौध, पारसी, ईसाई और जैन शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान करने संबंधी नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जबर्दस्त आन्दोलन चल रहा है, लेकिन इसमें किसी भी भारतीय को देश से बाहर निकालने का कोई प्रावधान नहीं है. इस कानून में तो श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थियों या फिर नेपाल से आने वाले हिन्दुओं को भी भारत की नागरिकता देने का कोई प्रावधान नहीं है.

असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी बनाने का काम उच्चतम न्यायालय के निर्देश और उसकी ही देख रेख में संपन्न हुआ लेकिन अंतिम नागरिक पंजी के प्रकाशन के साथ ही इसने विवादों का पिटारा खोल दिया. लाखों लोग इस पंजी से बाहर हो गये. इसकी वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन पहली नजर में यह जरूर समझ में आ रहा है कि राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार करने के लिये अपनाई गयी प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी और इसमें पारदर्शिता का अभाव था. इसके अलावा, इस कार्यक्रम में शामिल कर्मचारियों की भूमिका पर भी बीच बीच में उंगली उठ रही थी.

बांग्लादेश की सीमा पर स्थित असम के कोकराझार और धुबरी जैसे जिलों में नागरिक पंजी तैयार करने की प्रक्रिया में गड़बड़ियों की शिकायतों को देखते हुये केन्द्र और राज्य सरकार ने औचक पुनःसत्यापन की प्रक्रिया अपनाने की शीर्ष अदालत से अनुमति मांगी थी लेकिन न्यायालय ने इससे इंकार करते हुये कहा था कि अंतिम सूची 31 अगस्त तक ही प्रकाशित की जानी है.

असम की राष्ट्रीय नागरिक पंजी 31 अगस्त को प्रकाशित हुयी और इसके परिणाम तथा दुष्परिणाम सबके सामने हैं. राष्ट्रीय नागरिक पंजी के लिये 3,30,27,661 व्यक्तियों ने इसमें अपने नाम शामिल करने के लिये आवेदन किये थे लेकिन अंतिम सूची में 19,06,657 व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वे अपने नागरिकता के संबंध में अपने दावों के समर्थन में अपेक्षित दस्तावेज या साक्ष्य पेश नहीं कर पाये.


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यह भी समझ से परे हे कि असम के राष्ट्रीय नागरिक पंजी में स्थान पाने से वंचित 19 लाख से अधिक लोगों को सरकार कैसे और कहां वापस भेजेगी. सरकार पहले ही शीर्ष अदालत में यह स्वीकार कर चुकी है कि यह पंजी तैयार करने में कुछ अनियमित्ताएं हुई हैं और नमूनों के तौर पर कुछ मामलों का औचक सत्यापन जरूरी है.

अंतिम सूची में स्थान नहीं पा सके व्यक्तियों के लिये केन्द्र सरकार ने दिशा-निर्देश जारी किये थे. इनके अंतर्गत ऐसे व्यक्ति 400 विदेशी नागरिक न्यायाधिकरणों में से किसी भी एक में संपर्क करके अपील दायर कर सकते थे.

नागरिकता के मुद्दे की अपनी-अपनी तरह से व्याख्या करके राजनीतिक दल और चुनिन्दा संगठन कुछ समय के लिये समाज के एक वर्ग या समुदाय को उद्वेलित और आन्दोलित करने में सफल हो सकते हैं, लेकिन उन्हें ध्यान रखना होगा कि इसकी आड़ में हो रही हिंसा से जहां देश की निजी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंच रहा वहीं सरकार की ओर से की जाने वाली कार्रवाई का शिकार कोई नेता नहीं बल्कि आम नागरिक ही बनेंगे.

इसलिए आवश्यकता संयम बरतने और फिलहाल उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था का इंतजार करने की है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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