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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतराम अखंड भारत के प्रतीक हैं या हिंदू विजय के? जवाब नए भारत को आकार देगा

राम अखंड भारत के प्रतीक हैं या हिंदू विजय के? जवाब नए भारत को आकार देगा

गांधी, आडवाणी और अब मोदी- इन सभी ने राम के नाम पर लोगों को लामबंद किया. तो, भारत के उदारवादी कब से राम के संदर्भ देने से शर्मिंदा महसूस करने लगे?

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भगवान राम को लेकर मौजूदा उत्साह के बीच, यह नहीं भूलना चाहिए कि यह संभवतः यह पहली बार नहीं है कि भगवान के नाम पर लोगों को एकजुट किया गया हो.

राम के नाम पर लोगों को संगठित करने का प्रयास करने वाले पहले प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्व महात्मा गांधी थे. दूसरे – हालांकि उन्होंने केवल एक कट्टर, दक्षिणपंथी गुट को प्रोत्साहित किया – लालकृष्ण आडवाणी थे. और अब नरेंद्र मोदी तीसरे नंबर पर हैं.

हिंदू प्रतीकों का उपयोग करने की गांधीजी की इच्छा से धर्मनिरपेक्ष उदारवादी अक्सर शर्मिंदा महसूस करते हैं. जो कि नहीं होना चाहिए. गांधीजी ने हिंदू देवताओं का इसलिए जिक्र किया क्योंकि वह एक ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहते थे जो आम जनता-विशेष रूप से हिंदू बहुसंख्यक-तक पहुंच सके, खासकर ऐसे समय में जब साम्राज्यवाद ने भारतीयों को सामान्य राजनीतिक चर्चा से अपरिचित कर दिया था.

इसलिए ‘राम राज्य’ को एक आदर्श राज्य मानने के रूप में कई संदर्भ दिए गए हैं. या फिर रघुपति राघव राजा राम जैसे भजनों का उपयोग (जिसे कुछ लोग तुलसीदास द्वारा लिखा गया मानते हैं).

और यद्यपि गांधीजी भगवान राम के प्रति अपनी भक्ति से कभी शर्मिंदा नहीं हुए – अपनी आत्मकथा में, उन्होंने लिखा कि भय और संदेह के समय में “रामनाम मेरे लिए एक अचूक उपाय है” – वह इस बात को लेकर भी काफी स्पष्ट थे कि ‘राम राज्य’ किसी सांप्रदायिक राज्य से जुड़ी कोई संकीर्ण विचारधारा नहीं है, और राम का नाम एकता फैलाने के लिए इस्तेमाल किया गया था, विभाजन के लिए नहीं. दरअसल, उनकी सभाओं में गाए जाने वाले राम धुन के संस्करण में, मूल भजन में “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम” पंक्ति को जोड़ा गया था.

1980 के दशक के मध्य तक इनमें से किसी को भी विवादास्पद नहीं माना गया था. धर्मनिरपेक्षतावादियों ने भारत की विविधता को श्रद्धांजलि देने के लिए राम धुन गाया और बच्चों को सिखाया गया कि एक हिंदू कट्टरपंथी द्वारा गोली मारे जाने के बाद गांधी के अंतिम शब्द “हे राम” थे.

इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच के अनुसार, गांधीजी ने वास्तव में मरने से ठीक पहले “हे राम” नहीं कहा था. यह कही-सुनी बात है. लेकिन संभवतः गांधीजी की समावेशी हिंदू धर्म की अवधारणा और उनकी हत्या करने वाले हिंदू कट्टरपंथियों की कट्टरता के बीच अंतर को बताने के तरीके के रूप में इस बात को बार-बार दोहराया गया.

तो, भगवान राम के संदर्भ से उदारवादियों को कब शर्मिंदगी महसूस होने लगी? राम का नाम कब हिंदू दक्षिणपंथी की संपत्ति बन गया?

गांधी और आडवाणी के राम

यह संभवतः 80 के दशक के मध्य में हुआ था जब राम को हिंदुओं का अधिकारों न दिए जाने और मुसलमानों के तथाकथित तुष्टीकरण के दावों के साथ जोड़ा जाने लगा.

अपेक्षाकृत कम समय में, गांधीजी की राम की अवधारणा को आडवाणी की अवधारणा से बदल दिया गया. और इसका संबंध राम जन्मभूमि विवाद से था.

अयोध्या में जमीन के एक टुकड़े को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच लड़ाई दशकों पुरानी थी. मुसलमान लंबे समय से उस स्थान पर स्थित मस्जिद में नमाज पढ़ते रहे हैं. हिंदुओं ने कहा कि मस्जिद उस मंदिर को नष्ट करके बनाई गई थी जो उसी स्थान पर था जहां राम का जन्म हुआ था.

झगड़ा बढ़ने पर राज्य सरकार ने मस्जिद के दरवाजे बंद कर दिए. 1986 में, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के जरिए कांग्रेस ने ताले खुलवाने की चाल चली, जिससे विवाद फिर से शुरू हो गया. फिर भी, यदि विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने अपना आंदोलन नहीं चलाया होता तो यह एक स्थानीय मुद्दा ही बना रहता.

विहिप के आंदोलन में संभावना देखकर आडवाणी ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. उस वक्त रामानंद सागर का टीवी सीरियल ‘रामायण’ लोगों में काफी पॉपुलर था जिससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि राम काफी हिंदुओं के मन में अंदर गहराई तक बैठे हुए हैं.

आडवाणी ने घोषणा की कि हिंदुओं के साथ अन्याय किया गया है, भगवान राम का जन्मस्थान मुसलमानों को सौंप दिया गया है जो इसे वापस देने से इनकार कर रहे हैं.

इस तर्क ने जनता का ध्यान खींचा और यह भाजपा के उदय का कारण बना. भावना को और अधिक भड़काने के लिए, आडवाणी ने टोयोटा वैन में उत्तर भारत का दौरा किया, जिसे उन्होंने रथ कहा. उनके साथ रामानंद सागर के राम की पोशाक पहने एक अभिनेता भी उनके साथ शामिल थे.

ये राम प्रतिशोध का प्रतीक बन गये. हिंदुओं को उन मुसलमानों को दंडित करना था जिन्होंने उनके स्वामी के जन्मस्थान पर कब्जा कर लिया था. उन्हें तथाकथित बाबरी मस्जिद से छुटकारा पाना था, और जिसे अब आडवाणी ने हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र स्थान घोषित किया था, उसे पुनः प्राप्त करना था.

आडवाणी द्वारा राम का आह्वान करने से भावनाएं भड़क उठीं, दंगे हुए और अंततः संघ परिवार के समर्थकों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया, जबकि आडवाणी और अन्य भाजपा नेता या तो देखते रहे या भीड़ को उकसाने में लगे रहे.

उस समय से, गांधीजी के भगवान राम – अलौकिक सत्ता जो भारत की एकता और समावेशिता के प्रतीक थे – लोगों के दिलो-दिमाग से गायब हो गए.

“जय सिया राम” का अभिवादन, जिसका उपयोग सभी प्रकार के राजनीतिक विचारों वाले हिंदुओं द्वारा किया जाता था, वह धीरे-धीरे खत्म होता गया और उसकी जगह उग्र हिंदुत्व के प्रतीक “जय श्री राम” ने ले ली.


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पीएम नरेंद्र मोदी के राम

कुछ साल पहले तक चीजें वैसी ही थीं. राम अब विविधता में एकता के गांधीवादी प्रतीक नहीं रहे. लेकिन समान रूप से, आडवाणी द्वारा किए गए राम के चरित्र-चित्रण ने भी बड़ी भूमिका निभाई. आज के भारत में आप वास्तव में राम को हिंदू उत्पीड़न और “मुस्लिम तुष्टीकरण” के प्रतीक के रूप में नहीं देख सकते. हिंदू चाहे जो भी हों, नरेंद्र मोदी के भारत में वे निश्चित रूप से पीड़ित नहीं हैं. और जबकि हम अपने समय में मुसलमानों की स्थिति के बारे में तर्क-वितर्क कर सकते हैं, उन्हें आडवाणी के कैरीकेचर के लाड़-प्यार वाले अल्पसंख्यक के रूप में देखना बहुत कठिन है.

इससे भगवान राम के तीसरे चरित्र-चित्रण का रास्ता साफ हो जाता है. अयोध्या समारोह के आसपास की कुछ बयानबाजी में गांधी और राम के बारे में उनके दृष्टिकोण को याद किया गया. प्रधानमंत्री ने खुद गांधीजी को उद्धृत किया और यहां तक कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी राम को एकता का प्रतीक बताया. इससे पहले, अयोध्या कार्यक्रम से पहले के हफ्तों में, मोदी ने अन्य समुदायों तक जानबूझकर पहुंच बनाना शुरू कर दिया था. और समारोहों के दौरान भी, 22 जनवरी के समारोह में मुसलमानों की उपस्थिति को लेकर काफ़ी चर्चा हुई; सुझाव यह है कि हाल की लड़ाइयों को अब भुला दिया गया है और हर कोई राम मंदिर के पीछे एकजुट हो गया है.

खुद नरेंद्र मोदी से जुड़ी व्यक्तिगत छवि भी मौजूद है. हमें बताया गया कि समारोह से पहले के दिनों में, प्रधानमंत्री फर्श पर सोए थे और फलों और नारियल पानी के आहार पर जीवित रहे थे. जिस तरह से उन्हें कार्यक्रम में दिखाया गया, उससे पता चलता है कि भगवान राम के बाद, मंदिर में उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपस्थिति थी.

बेशक, आप मोदी के हिंदू हृदय सम्राट बनने के बारे में पहले से अनुमानित बातें कह सकते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि यह उससे भी आगे जाता है. पिछले कुछ वर्षों में, प्रधानमंत्री के कार्यों से यह संदेश गया है कि वह सिर्फ किसी एक और नेता भर नहीं हैं. इसके बजाय, वह राजनीति से ऊपर हैं, अपने जीवनकाल में एक महान व्यक्ति हैं, एक ऋषि हैं जो मुकाबले से परे हैं और केवल भारत और इसके लोगों की उन्नति के लिए काम करते हैं.

लेकिन क्या वह सभी भारतीयों के लिए ऋषि या संत हैं? या सिर्फ हिंदुओं के लिए? क्या मंदिर हिंदू विजयवाद का प्रतीक है? या क्या राम गांधी के समय की तरह एकजुट करने वाले व्यक्तित्व के रूप में वापस आ गए हैं?

सच कहूं तो, यह बताना अभी जल्दबाजी होगी. अब जब मंदिर आंदोलन किसी तरह अपनी अंतिम परिणति पर पहुंच गया है (हालांकि, मंदिर अभी तैयार नहीं है) और तीसरी बार जीतना तय लग रहा है, तो प्रधानमंत्री इससे आगे बढ़ने का जोखिम उठा सकते हैं.

लेकिन क्या उनकी पार्टी ऐसा करने को तैयार होगी? जबकि पीएम का संदेश एकता के बारे में था, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा राहुल गांधी की नवीनतम यात्रा को ‘मियां यात्रा’ कहकर खारिज करने में लगे थे. भाजपा की हालिया विजययात्रा के सबसे दुखद पहलुओं में से एक वरिष्ठ राजनीतिक हस्तियों द्वारा सड़क छाप भाषा को अपनाना है. मुंबई के मीरा रोड में, अयोध्या समारोह के बाद भीड़ द्वारा मुस्लिम संपत्तियों पर हमला करने के बाद बिना किसी उचित प्रक्रिया के मुस्लिम घरों पर बुलडोज़र चला दिया गया.

क्या भाजपा के सभी नेता नफरत और पूर्वाग्रह की बयानबाजी छोड़ने को तैयार होंगे? क्या वे यह मांग करना बंद कर देंगे कि और मस्जिदें तोड़ दी जाएं क्योंकि उनके नीचे मंदिर होने की संभावना है?

क्या वे भी रुकना चाहते हैं?

उन सवालों के जवाब तय करेंगे कि मोदी के अगले कार्यकाल में कैसा भारत उभरेगा. क्या भगवान राम एकजुट और पुनर्जीवित भारत के प्रतीक बनेंगे? या वह हिंदू विजय का प्रतीक बना रहेगा?

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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