पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) अपने गठन के 21 वर्षों के भीतर ही अस्तित्व के खतरे में पड़ने लगा है. पार्टी टूटने के कगार पर पहुंच गई है. पार्टी प्रमुख महबूबा मुफ्ती से पार्टी का संकट सभंलते नहीं संभल रहा है.
महबूबा अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद से नज़रबंद हैं, मगर उनकी अनुपस्थिति में पार्टी लगातार ताश के पत्तों की तरह बिखरती चली जा रही है. पार्टी का संकट किस तरह से गहरा चुका है, इसका पता इसी से चलता है कि वरिष्ठ नेताओं को कौन पार्टी से निकाल रहा है और किसके कहने पर निष्कासन हो रहा है, किसी को कुछ पता नही है.
अनुशासन तोड़ने के नाम पर धड़ाधड़ वरिष्ठ पार्टी नेताओं को पार्टी से निकाला जा रहा है और दूसरी तरफ अनगिनत नेता खुद पार्टी छोड़ रहे हैं.
पार्टी के वरिष्ठ नेता मुजफ्फर हुसैन बेग पार्टी के संरक्षक हैं मगर उन्हें भी नेताओं के निष्कासन को लेकर कोई जानकारी नही है. उन्होंने खुद भी महबूबा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. पिछले दिनों एक प्रेस कांफ्रेस कर उन्होंने यहां तक आरोप लगाया कि महबूबा मुफ्ती के अड़ियल रुख के कारण अनुच्छेद-370 की समाप्ति हुई.
बेग की प्रेस कांफ्रेंस के ठीक दो दिन पहले पीडीपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल गिरीश चंद्र मूर्मू के साथ मुलाकात कर हलचल पैदा कर दी.
उप-राज्यपाल से मिलने वाले नेताओं को कोई प्रक्रिया अपनाए बिना पार्टी से निकाल दिया गया. इन नेताओं में अलताफ बुख़ारी और पार्टी के वरिष्ठ नेता दिलावर मीर चौधरी, कमर हुसैन, नूर मोहम्मद शेख, राजा मंजूर अहमद, ज़फ़र अहमद मन्हास, रफ़ी अहमद मीर, अब्दुल मजीद पाडर और जावेद हुसैन बेग शामिल थे.
इन नेताओं के बाद अनगिनत नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने का सिलसिला शुरू हो गया और अभी तक लगभग दस अन्य नेता पार्टी छोड़ चुके हैं.
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लंबे समय से पीडीपी को कवर करते आ रहे वरिष्ठ पत्रकार दिनेश मन्होत्रा का मानना है कि दरअसल, महबूबा मुफ्ती पार्टी के तूफ़ान को कभी ठीक से समझ ही नही पाईं. महबूबा के हाथों से रेत की तरह पार्टी ने फिसलना तो बहुत पहले ही शुरू कर दिया था, अब तो मात्र इस कहानी का अंत हो रहा है.
दरअसल, महबूबा का राजनीतिक सफ़र ऐसा रहा है कि उनके आलोचक भी उन्हें नई पीढ़ी के अन्य नेताओं से अलग, परिपक्व, और ज़मीन से जुडा नेता मानते रहे हैं. लेकिन जिस गहरे संकट से पीडीपी इन दिनों गुज़र रही है उससे महबूबा के प्रशंसक तक हैरान हैं. उनकी नेतृत्व क्षमताओं पर सवाल उठाने लगे हैं. सवाल यह है कि आखिर महबूबा मुफ्ती से कहां चूक हो गई?
उमर के मुकाबले कठिन था महबूबा का सफ़र
उल्लेखनीय है कि महबूबा मुफ्ती और उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी उमर अब्दुल्ला ने लगभग एक साथ ही राजनीति में प्रवेश किया था. अगर दोनों के राजनीतिक सफ़र पर नज़र दौड़ाई जाए तो साफ पता चलता है कि महबूबा का राजनीति में उमर के मुक़ाबले पांव जमाना काफी मुश्किल रहा है.
उमर अब्दुल्ला को सब कुछ बना बनाया मिला. उमर जब राजनीति में आए तो उनके दादा शेख अब्दुल्ला द्वारा स्थापित की गई पार्टी नेशनल कांफ्रेंस एक सशक्त पार्टी थी. पिता फारूक अब्दुल्ला पहले से ही राजनीति में मज़बूत स्थिति में थे और जिस समय उमर राजनीति में उतरे उस समय फारूक अब्दुल्ला तीसरी बार मुख्यमंत्री का दायित्व संभाले हुए थे.
खुद उमर अब्दुल्ला भी राजनीति में उतरते ही केंद्र में स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री भी बन गए.
महबूबा को करनी पड़ी कड़ी मेहनत
उमर अब्दुल्ला के मुकाबले महबूबा मुफ्ती को राजनीति में कड़ी मेहनत करनी पड़ी है. जिस समय महबूबा ने राजनीति में कदम रखा उस समय खुद उनके पिता खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद संघर्ष कर रहे थे और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अपने लिए मज़बूत ज़मीन की तलाश में थे.
महबूबा जब राजनीति में आईं तो उनके पिता कांग्रेस में थे. केंद्र में कुछ देर राजनीतिक पारी खेलने के बाद और कुछ समय देश का गृह मंत्री रहने के बाद मुफ्ती मोहम्मद सईद वापस जम्मू-कश्मीर लौटे ही थे.
उल्लेखनीय है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1987 में कांग्रेस छोड़ दिया था और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ राष्ट्रीय राजनीति की ओर मुड़ गए थे. बाद में मुफ्ती जनमोर्चा व जनता दल से होते हुए 1996 में कांग्रेस में वापस लौटे थे.
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पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के वापस कांग्रेस में शामिल होने के कुछ ही दिनों बाद महबूबा ने पहला विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा. तीन वर्ष तक कांग्रेस विधायक के रूप में विपक्ष में बैठने के बाद महबूबा ने 1999 में अपने पिता के साथ मिल कर पीडीपी का गठन किया.
वरिष्ठ पत्रकार ज़फ़र मेराज मानते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं कि पीडीपी के गठन में मुफ्ती के मुक़ाबले महबूबा की भूमिका अधिक थी. मेराज के अनुसार महबूबा की ज़िद और मज़बूत इरादों की बदौलत ही पीडीपी का गठन हो सका.
क्या महबूबा हैं ताज़ा हालात की जिम्मेवार
पीडीपी की स्थापना के लिए महबूबा मुफ्ती को श्रेय दिया जाता हैं वहीं पार्टी के वर्तमान हालात के लिए भी उन्हें ही ज़िम्मेवार ठहराया जा रहा है.
माना जाता है कि जनवरी 2016 में पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जिस ढंग से महबूबा ने पार्टी को चलाने की कोशिश की उससे नाराज़गी बढ़ी. मुफ्ती की मृत्यु के बाद महबूबा ने पार्टी को रिश्तेदारों के हवाले करने का जो प्रयास किया उससे पार्टी में अंसतोष फैला.
मुंबई में फ़िल्मी दुनिया में अति व्यस्त अपने भाई तसद्दुक मुफ्ती को अचानक पिता की मृत्यु के बाद राजनीति में लाना महबूबा की सबसे बड़ी गलतियों में मानी जाती है. तसद्दुक को मंत्री तक बनाया गया मगर उनके आने का कोई लाभ पार्टी को नहीं हुआ. इसी तरह से उन्होंने अपने मामा सरताज मदनी और नईम अख़तर को जिस तरह से पार्टी का सर्वेसर्वा बनाया उससे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में असुरक्षा की भावना पैदा हुई.
‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा’
लेकिन पीडीपी के मौजूदा हालात के लिए सिर्फ महबूबा को ही ज़िम्मेवार ठहराना उनके साथ अन्याय होगा. दरअसल पीडीपी के गठन के फौरन बाद से ही पीडीपी के नेताओं में टकराव होता रहा है. पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे गुलाम हसन मीर और मुज़्ज़फ़र हुसैन बेग के बीच टकराव 2006 में ही शुरू हो गया था.
मीर ने कुछ ही दिनों बाद पीडीपी को छोड़कर अलग रास्ता अपना लिया. बेग पार्टी से अलग नही हुए मगर पार्टी नेतृत्व के साथ उनका मनमुटाव हमेशा बना रहा जो आज भी जारी है.
असल में पीडीपी की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि उसके गठन के पीछे किसी विचारधारा विशेष की कोई भूमिका नही थी. मुफ्ती मोहम्मद सईद के इरादे भले ही नेक रहे हों मगर जिस तरह से उन्होंने पीडीपी की नींव रखने में ‘कहीं की ईंट कहीं के पत्थर’ का इस्तेमाल किया उसने जल्दी ही अपना रंग भी दिखाना शुरू कर दिया.
गठन के समय पीडीपी में शामिल होने वाले अधिकतर लोग बेहद महत्वाकांक्षी थे और अलग-लग दलों से आए थे. अधिकतर नेता सिर्फ और सिर्फ नेशनल कांफ्रेस की परिवारवादी राजनीति के विरोध में एक मंच पर इकट्ठे हुए थे.
यही वजह है कि जैसे ही पीडीपी 2002 में सत्ता में आई तो नेताओं की महत्वाकांक्षाएं ज़ोर पकड़ने लगी और नेता आपस में टकराने लगे.
परिवारवाद के जिस मुद्दे को लेकर पीडीपी का गठन हुआ था, उसकी भी उस समय धज्जियां उड़ती दिखाई दीं जब खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती को पार्टी की कमान सौंपी.
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हालांकि, जब तक मुफ्ती मोहम्मद सईद जीवित थे तो उनके विराट व्यक्तित्व के आगे नाराज़गियां दबी रही. मगर मुफ्ती के निधन के बाद तो नाराज़ नेताओं का असंतोष फूट पड़ा और लोग पार्टी छोड़ने लगे.
सितंबर 2016 में पार्टी को पहला बड़ा धक्का उस समय लगा जब 2014 के लोकसभा चुनाव में डॉ फारूक अब्दुल्ला को हराने वाले तारिक हमीद करा ने लोकसभा सदस्यता और पार्टी से त्यागपत्र दे दिया.
पीडीपी-भाजपा सरकार के गिरने के बाद तो हालात बुरी तरह से बेकाबू होने लगे. कईं विधायकों और विधान परिषद सदस्यों ने एकसाथ पार्टी छोड़ दी और नेशनल कांफ्रेंस व पीपुल्स कांफ्रेंस में शामिल हो गए. इन नेताओं में हसीब द्राबू, इमरान अंसारी, आबिद अंसारी, अब्बास वानी, जावेद मुस्तफा मीर, बशारत अहमद बुख़ारी और पीर मोहम्मद हुसैन प्रमुख थे.
आज पीडीपी उस मुकाम पर पहुंच चुकी है कि कुछ-एक नेता ही पार्टी के भीतर शेष बचे हैं और अगर सूत्रों की माने तो पार्टी छोड़ चुके लोग अगले कुछ दिनों में महबूबा मुफ्ती को ही पार्टी से निष्कासित कर अपने आप को असली पीडीपी घोषित कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो निश्चित रूप से मुफ्ती मोहम्मद सईद का सपना पूरी तरह से टूट कर बिखर जाएगा.
(लेखक जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)