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Thursday, 21 November, 2024
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मुसलमान औरतों को क्या सचमुच किसी रक्षक की जरूरत है?

पिछले कुछ सालों से दक्षिणपंथी, रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी ताकतों के हौसले बुलंद है. औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता, उनकी सेक्सुअल आजादी, अपने जीवन साथी को खुद चुनने के विकल्प पर प्रहार किए जा रहे हैं.

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मुस्लिम औरतों को ‘बचाने’ की केंद्र सरकार की कथित मुहिम जारी है! अभी कुछ समय पहले तीन तलाक पर कानून बनाकर भाजपा सरकार ने मुस्लिम औरतों का ‘उद्धार’ किया है. अब कश्मीर में मुस्लिम औरतों के ‘बंधन’ तोड़े गए हैं. सालों-साल जिन औरतों को मर्दों ने बंधक बनाकर रखा हुआ था, उनके मसीहा सत्तासीन हुए हैं. अब उनके लिए समय बदलने वाला है. भाजपा लगातार इसी नेरेटिव को पेश कर रही है. इन नैरेटिव में चूंकि एक विलेन की भी जरूरत है तो मुसलमान पुरुषों और कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखने का समर्थन करने वाले लोग इस विमर्श में विलेन हैं.

औरत की रक्षा, प्रभुत्व कायम करने का हथियार

‘औरतों की रक्षा’ प्रभुत्व कायम करने का एक बड़ा हथियार रहा है. दुनिया भर के देशों पर सैन्य हमलों के लिए जो तमाम दलीलें दी जाती हैं, उनमें एक दलील यह भी रही है कि औरतों को बचाना है. अगर हमला किसी मुस्लिम देश पर होना है तो मुसलमान औरतों को कट्टरपंथियों से बचाने की बात जोरशोर से की जाती है. इराक, सोमालिया और अफगानिस्तान पर अमेरिका के आक्रमण के समय यही दोहराया गया था. इराक में सद्दाम हुसैन के तथाकथित हरम के किस्से चटखारे लेकर पश्चिमी मीडिया ने खूब छापे गए थे. ये बताया गया कि औरतें इराक में तबाह हैं और उन्हें मुक्त किए जाने की जरूरत है.


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अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के दौरान अमेरिका की फर्स्ट लेडी लॉरा बुश ने रेडियो एड्रेस में यहां तक कह दिया था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, दरअसल महिलाओं के अधिकारों और प्रतिष्ठा की लड़ाई है. जैसा कि अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिस्ट लीला अबू-लुगोद ने अपनी किताब ‘डू मुस्लिम विमेन नीड सेविंग’ में लिखा है, पश्चिम में यह बात खूब प्रचारित की गई है कि हर इलाके में मुसलमान औरतों की रक्षा किए जाने की जरूरत है.

ऑनर किलिंग और महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न की खबरों के बीच मानवाधिकार समूह और मीडिया इसके लिए माहौल बनाते हैं. लीला 30 सालों से अरब औरतों के साथ काम रही हैं. उनका कहना है कि केवल किसी खास धर्म को औरतों की गैर-बराबरी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. ऐसा किसी भी धर्म में संभव है. औरतों का दमन समाज में कायम विभाजनों की समस्या है. मुस्लिम देशों में महिलाओं की आजादी की बात करने वाले अमेरिका में स्त्री-पुरुष समानता अभी भी सपना ही है.

तीन तलाक से किसका भला

यह नेरेटिव दुनिया भर में दोहराया जाता है. कभी सत्ता हासिल करने के लिए, कभी राजनीतिक लाभ के लिए. भारत में भी इसी का सहारा लिया गया है. पहले तीन तलाक पर कानून बनाया गया. इसके पक्ष में लोकसभा में कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा था- यह सियासत, धर्म, संप्रदाय का प्रश्न नहीं है, बल्कि नारी के सम्मान और नारी न्याय का सवाल है. हिंदुस्तान की बेटियों के अधिकारों की सुरक्षा संबंधी इस पहल का सभी को समर्थन करना चाहिए. लेकिन दो-ढाई साल खर्च करके भी तीन तलाक पर फुल प्रूफ कानून नहीं बनाया गया.

शादी जैसे सिविल मामले पर क्रिमिनल कानून बना दिया गया. तीन तलाक को कानूनन अमान्य और अपराध साथ-साथ घोषित किया गया, जिसके बाद बीवी न तलाकशुदा हुई, न ही शादीशुदा रही. पति सजा भुगतने चला गया जेल और औरत अधर में लटक गई. उसकी दूसरी शादी भी मुमकिन नहीं, क्योंकि इस तरह दिया गया तलाक तो मान्य ही नहीं है. इससे मुस्लिम औरतों को क्या फायदा होने वाला है, इसे समझना मुश्किल है. लेकिन सरकार यही कहती रही कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के जुल्म से बचाना है.

कश्मीरी औरतों पर हाई कोर्ट का फैसला नजीर है

कश्मीर में 35ए के हटने के बाद तो औरतों को अपनी बपौती समझने वालों की पौ-बारह हो गई है. कई लोग कश्मीरी लड़कियों से शादी करने की इच्छा सोशल मीडिया पर जाहिर कर रहे हैं. खतौली के भाजपा विधायक वहां की ‘महिलाओं पर अत्याचार’ से बावले हो गए. वे आह्वान कर रहे हैं कि कश्मीर से बहू लाओ. पार्टी कार्यकर्ताओं का भी दिल बल्लियां उछल रहा था क्योंकि कश्मीर की ‘गोरी’ लड़कियों को ब्याहा जा सकता है.


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यूं कश्मीर में मुस्लिम औरतों के दमन का नेरेटिव भी झूठ की बुनियाद पर ही खड़ा है. इस नेरेटिव को खड़ा करने वाले जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के 2002 के फैसले को भूल गए. तब अदालत ने डॉ. सुशीला साहनी बनाम अन्य मामले में साफ कहा था कि अस्थायी निवासियों से शादी करने वाली स्थायी निवासी महिलाओं को उनकी पुश्तैनी संपत्ति से बेदखल नहीं किया जा सकता. लेकिन नेरेटिव गढ़े ही इसलिए जाते हैं ताकि अपने सभी कदमों को जायज ठहराया जा सके. एक ऐसे नए हिंदुस्तान की नींव रखी जा सके, जहां बहुलवाद, बंधुत्व और स्वायत्तता के लिए कोई जगह नहीं. कश्मीरी लड़कियों से शादी पर कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन कश्मीरी लड़कियां भी तो इन लोगों से शादी करने को तैयार हों!

यह दक्षिणपंथ की प्रवृत्ति है

मुस्लिम औरतों को दरअसल किसी उद्धारक की जरूरत नहीं है. मुस्लिम क्या, किसी धर्म की औरतों को मसीहा नहीं चाहिए. यह एहसान करने वाले पिछले पांच वर्षों में एकाएक उठ खड़े हुए हैं. पिछले पांच सालों से दक्षिणपंथी, रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी ताकतों के हौसले बुलंद है. औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता, उनकी सेक्सुअल आजादी, अपने जीवन साथी को खुद चुनने के विकल्प पर प्रहार किए जा रहे हैं.

लव जिहाद और एंटी रोमियो स्क्वाड इसी से उपज हैं. भाजपा के पेरेंट संगठन आरएसएस की महिला शाखा, राष्ट्रीय सेविका संघ बच्चियों को भविष्य की आदर्श पत्नी-मां बनाने के लिए समर कैंप तक चलाता है. यह बात और है कि एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, पिछली लोकसभा में भाजपा में ऐसे सांसदों की संख्या सबसे अधिक थी जिनके खिलाफ महिला अत्याचार के गंभीर आरोप थे. हालांकि ऐसे अपराध करने वाले सिर्फ दक्षिणपंथ तक सीमित नहीं है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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