जब किसी देश में आर्थिक तरक्की होती है तो अमूमन उसकी पहली निशानी होती है रोजगार में बढ़ोतरी. लेकिन भारत की बात ही कुछ अलग है. यहां जीडीपी में अच्छी बढ़ोतरी के बावजूद रोजगार में बढ़ोतरी उस पैमाने पर नहीं हो पा रही है जितनी होनी चाहिए. कई तिमाहियों में हमने देखा है कि ग्रोथ जितनी तेजी से बढ़ा, रोजगार उतनी तेजी से नहीं बढ़ा.
अभी हाल के आंकड़ों को लीजिये. 2022-23 की पहली तिमाही में भारत के जीडीपी में बढ़ोतरी 13.5 फीसदी की रही जो दुनिया में सबसे ज्यादा है. इतना ही नहीं यह माना जा रहा है कि वित्त वर्ष 2022-23 में भारत की जीडीपी में बढ़ोतरी की दर 6.7 फीसदी से लेकर 7.7 फीसदी तक रहेगी.
मूडीज रेटिंग एजेंसी ने माना है कि अगले साल यानी 2023 में यह 7.6 फीसदी की दर से और 2024 मे 6.3 फीसदी की दर से बढ़ेगी. भारतीय इकोनॉमी ने इस बार की छलांग के साथ इंग्लैंड को पीछे छोड़कर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में पांचवां स्थान पा लिया है. अगर उसकी यह रफ्तार बनी रही तो वह 2029 तक जापान को छोड़कर तीसरे स्थान पर रहेगा.
इस समय इकोनॉमी के सभी मानक कमोबेश अपनी जगह पर हैं. लेकिन महंगाई ने हालत बिगाड़ रखी है. कोविड महामारी के लक्षण अभी भी हैं और मानसून ने साथ नहीं दिया है. उधर रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दरें बढ़ाये जा रहा है. सरकारी कर्ज बढ़ता ही जा रहा है. ऐसे में ज्यादातर एक्सपर्ट आने वाले समय में ग्रोथ की दर को बहुत ज्यादा आगे बढ़ता नहीं देखते हैं. फिर भी सारी दुनिया की तुलना में यह सबसे तेज गति से भागती हुई इकोनॉमी होगी.
लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या इस ग्रोथ के इन प्रभावशाली आंकड़ों से देश में रोजगार बढ़ा या फिर पर कैपिटा इनकम बढ़ी? इस सवाल का जवाब सरकार की ओर से नहीं मिलता है. रोजगार के मोर्चे पर विचलित करने वाली खबर है और वह यह कि देश में अगस्त महीने में बेरोजगारी की दर बढ़कर 8.3 फीसदी हो गई जो एक साल में अधिकतम है.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक रोजगार में 20 लाख की गिरावट आई है. उसके मुताबिक देश के शहरी इलाकों में बेरोजगारी की दर बढ़कर 9.6 फीसदी हो गई है जबकि फीसदी है जबकि ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी से बढ़कर 7.7 फीसदी हो गई है. इसका मुख्य कारण मानसून का अनियमित व्यवहार रहा जिससे बड़े पैमाने पर खेती प्रभावित हुई. अगर मानसून जाते-जाते बरस गया तो इसमें काफी कमी आ सकती है लेकिन शहरी बेरोजगारी कैसे घटेगी इस बारे में सीएमआई की रिपोर्ट में कुछ नहीं है.
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कोविड -बेरोजगारी
शहरों या कस्बों में भी बेरोजगारी कोविड महामारी के पहले से ही बढ़ रही थी. नोटबंदी के दौरान छोटे-छोटे उद्योग-धंधों पर मार पड़ी थी और वह सदा के लिए बंद ही हो गये. लेकिन उससे भी बुरी हालत तो कोविड महामारी में हुई जब बड़े पैमाने पर छंटनी हुई. लगभग हर कंपनी ने अपने कर्मचारियों की संख्या घटाई. उनके वेतन तक में कटौती की. कई कंपनियों ने हजार-हजार से भी ज्यादा कर्मियों को सड़क पर ला खड़ा कर दिया. कंपनियों में कर्मचारियों को निकालने की होड़ सी लग गई थी. हालांकि, कोविड का प्रभाव खत्म होने के बाद उन्हें वापस उनकी जगह दी जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
उनके रेवेन्यू पुराने स्तर पर पहुंचने के बावजूद उन्होंने नई नौकरियां नहीं दीं. दरअसल, उन्होंने देख लिया कि कम कर्मचारियों से भी उतना ही काम कराया जा सकता है और उतना ही रेवेन्यू पाया जा सकता है. यह बेरोजगारी का बहुत बड़ा कारण रहा. दूसरी ओर रोजगार बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि नये कल-कारखाने लगें. लेकिन इस दिशा में प्रगति धीमी है. छोटे और मंझोले उद्योग अभी तक लड़खड़ा रहे हैं और उनमें पर्याप्त विकास नहीं है. दरअसल भारत में रोजगार देने में वे बड़े उद्योगों से कहीं आगे हैं.
आकंड़ो के मुताबिक एसएमई में देश की कुल कामगार संख्या का 40 फीसदी काम करता है. साढ़े दस करोड़ से भी ज्यादा लोग इसमें लगे हुये हैं और यह कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देता है और लगभग 6,000 तरह के उत्पाद बनाता है. इस क्षेत्र को सरकारी सहायता की हमेशा जरूरत रहती है, कई बार पूंजी के लिए तो कई बार टेक्नोलॉजी के लिए. इन पर कोविड काल में बहुत मार पड़ी और सैकड़ों तो बंद ही हो गये हैं. इन पर ही रोजगार बढ़ाने का दारोमदार रहा है और आगे भी रहेगा. इन्हें ही हर तरह से प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है.
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लड़खड़ाता लेकिन संभलता रियल स्टेट
यहां पर रियल एस्टेट और हॉस्पिटेलिटी सेक्टर के बारे में बात करना जरूरी है. रियल एस्टेट एक समय कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र था. लेकिन पिछले कई वर्षों से यह ठीक नहीं चल रहा है. कोविड काल में तो इसमें काम बंद ही हो गया था. अब यह फिर से अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है और इसे सरकारी सहायता की बहुत जरूरत है. सबसे जरूरी है कि इससे जुड़े नियम-कानूनों को हल्का बनाया जाये. आज भी एक बड़े प्रोजेक्ट के लिए पचास से भी ज्यादा कानूनी अनुमति ली जाती है. इससे प्रोजेक्ट डिले होते हैं और उनकी लागत बढ़ती है. इसे जंजीरों से मुक्त करना जरूरी है.
इंटरनेशनल प्रोफेशनल सर्विसेज नेटवर्क डेलॉयट के मुताबिक जिस सेक्टर पर सारी दुनिया में सबसे ज्यादा मार पड़ी है वह है हॉस्पिटैलिटी सेक्टर. कोविड काल में यह सेक्टर सबसे ज्यादा पिटा. भारत में इस पर इतनी मार पड़ी कि हजारों प्रतिष्ठान बंद ही हो गये. बड़े-बड़े होटलों और होटल चेन का धंधा चौपट हो गया और उन्हें अरबों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा. हालांकि अब वे फिर से रास्ते पर आ रहे हैं लेकिन अभी भी विदेशी टूरिस्ट नदारद हैं. केरल, राजस्थान के होटल-रिसॉर्ट इस बात के गवाह हैं. इनकी वापसी पर ही उन लाखों कर्मचारियों का भविष्य टिका हुआ है जो नौकरी से हटा दिये गये थे.
सबसे ज्यादा परेशानी की बात है कि सरकारें अब रोजगार देने से भागती हैं. हर राज्य में लाखों पद खाली पड़े हुए हैं लेकिन वे भरने की कोशिश नहीं करते. सरकारी कर्मचारियों के लिए बने छठे और सातवें वेतन आयोग ने तनख्वाहें इतनी बढ़ा दी हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों का बजट डगमगा गया है. उन्हें कर्मचारियों, विधायकों, मंत्रियों के वेतन, पेंशन, भत्तों पर अब इतना खर्च करना पड़ रहा है कि उनकी हालत खस्ता हो गई है. दूसरी ओर सरकार पीएसयू से छुटकारा पाना चाहती है जो रोजगार देने की क्षमता रखते हैं. ऐसे में ज़ाहिर है रोजगार बढ़ाने में सरकारों की कोई भूमिका नहीं रह गई है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि रोजगार बढ़ाए बिना आर्थिक विकास बेकार है क्योंकि उससे आगे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के रास्ते बंद हो जायेंगे. रोजगार बढ़ाना अर्थव्यवस्था का पहला टास्क है. उनका मानना है कि भारत की विशाल आबादी को देखते हुए विकास की वर्तमान दर कम है और इसे त्वरित करना ही होगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था खपत पर आधारित है और इसके लिए जरूरी है कि लोग खर्च करें लेकिन जब रोजगार के असर ही कम होंगे तथा नौकरियों पर छंटनी की तलवार लटकी रहेगी तो ऐसे में खपत उस अनुपात में नहीं होगा जो अर्थव्यवस्था को चाहिए. अर्थव्यवस्था में तेजी के साथ ही रोजगार में बढ़ोतरी भी बहुत जरूरी है, नहीं तो यह जॉबलेस ग्रोथ ही कहलायेगा.
(मधुरेंद्र सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल रणनीतिकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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