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Thursday, 14 November, 2024
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भाजपा अनुच्छेद 370 को हटाना तो चाहती है पर भूल जाती है कि इसको बनाने वाले सरदार पटेल थे

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1947 के अंत तक, पटेल पाकिस्तान कश्मीर को देने के लिए तैयार थे अगर पाकिस्तानियों ने हैदराबाद के निजाम को भारत में शामिल होने के लिए कहा होता|

जम्मू-कश्मीर में गठबंधन से बाहर निकलने के भाजपा के फैसले ने हर तरफ प्रत्यारोप को जन्म दिया है। गृह मंत्रालय के जूनियर मंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा की गयी आलोचना का जवाब एक ट्वीट के माध्यम से दिया: “सरदार पटेल जी ने अन्य सभी क्षेत्रों का समाधान कर दिया। नेहरू जी ने कश्मीर का प्रभार संभाला और अधिक परेशानी पैदा कर दी।” किरन रिजीजू स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री की बातचीत दोहरा रहे थे, जिन्होंने इस साल की शुरुआत में संसद में दावा किया था कि “अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री बन गए होते, तो आज हमारे प्यारे कश्मीर का हिस्सा पाकिस्तानी कब्जे में नहीं होता।” इस तरह के दावे पटेल का इस्तेमाल करने और हर मोड़ पर नेहरू के साथ उनकी तुलना करने के भाजपा के बड़े प्रयास का एक हिस्सा हैं। लेकिन वे इस मामले के अच्छी तरह से स्थापित तथ्यों के साथ शायद ही कभी सहमत होते हैं।

इस धारणा के साथ शुरू करते हैं कि नेहरू ने कश्मीर की जिम्मेदारी ली थी, जबकि पटेल ने शेष राज्यों का प्रभार संभाला था। आजादी के समय तीन रियासतों- जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर का भविष्य, उन पर भारत का कब्जा होगा या पाकिस्तान का, के मामले में अनसुलझा रहा। कैबिनेट और रक्षा समिति की बैठकों के रिकॉर्ड सहित घोषित दस्तावेज, प्रचुरतापूर्वक यह स्पष्ट करते हैं कि नेहरू और पटेल दोनों इन तीनों राज्यों को संभालने में निकटता से शामिल थे। निश्चित रूप से उनके विचार, दृष्टिकोण और शैली में मतभेद थे, लेकिन यह कार्य व्यापक परामर्श करके किया गया था।

कश्मीर में पाकिस्तान की आक्रामकता पर संयुक्त राष्ट्र से संपर्क करने के लिए आलोचनात्मक निर्णय लेते हैं। सैद्धांतिक रूप से, पटेल संयुक्त राष्ट्र से ऐसे मुद्दों का जिक्र करने के विचार के विरोधी थे। जब माउंटबेटन ने जूनागढ़ के संदर्भ में यह सुझाव दिया था, तो पटेल ने इस पर आपत्ति जताई थी: “ऐसे मामलों में अभियोगी होने में गंभीर नुकसान था। आधिपत्य कानून के नौ मामले थे।” उस अवसर पर, नेहरू पटेल से सहमत थे। दरअसल, जूनागढ़ और हैदराबाद दोनों के मामले में जब कूटनीति असफल रही तो नेहरू पूरी तरह से इसके लिए बल का प्रयोग करने के पक्ष में थे। हालांकि, कश्मीर का मामला अलग था।

दिसंबर 1947 के अंत तक, भारतीय नेतृत्व को स्पष्ट रूप से मालूम था कि जनजातीय आक्रमणकारियों को केवल तभी वापस खदेड़ा जा सकता है जब भारतीय सेना पंजाब में सीमा पार पर आक्रमण करे और उनके ठिकानो को नष्ट कर दे। इसका मतलब था पाकिस्तान के साथ एक पूर्ण युद्ध। भयानक नरसंहार की पृष्ठभूमि और विभाजन के साथ जनसंख्या आवागमन के कारण नेहरू ने महसूस किया कि पाकिस्तान के साथ युद्ध आगे चलकर विनाशकारी परिणामों वाली सांप्रदायिक हिंसा की लहरों को पैदा कर सकता है।

इस सैन्य कार्यवाही के विकल्प से बचने के लिए, इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में संदर्भित करने के माउंटबेटन के सुझाव पर नेहरू अनैच्छिक रूप से सहमत हुए। पटेल अपने पिछले पछतावे के बावजूद इसके साथ हो लिए जैसा कि अन्य कैबिनेट सदस्यों ने भी किया था। बाद में जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद में स्वीकार किया: “मैं एक पक्ष था जब कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने का निर्णय लिया गया था … यह एक स्पष्ट तथ्य है। मेरे पास कोई अधिकार भी नहीं है और न ही मैं उन विशेष परिस्थितियों का खुलासा करना चाहता हूँ जिनके तहत निर्णय लिया गया था।”

पटेल द्वारा पूरे कश्मीर को सुरक्षित कर लेने का दावा, विभिन्न बिंदुओं पर समझौता करने की उनकी खुद की इच्छा के खिलाफ जाता है। वास्तव में पटेल का मानना था कि हैदराबाद कश्मीर से ज्यादा रूचिकर था। 1947 के अंत तक, वह पाकिस्तान को कश्मीर सौंपने के लिए तैयार थे, अगर पाकिस्तानियों ने हैदराबाद के निजाम को सहमत होने और भारत में शामिल होने के लिए कहा होता। जैसा कि उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था, “आप जूनागढ़ की तुलना कश्मीर से क्यों करते हैं? हैदराबाद और कश्मीर की बात करते हुए हम एक समझौते तक पहुँच सकते हैं।” 11 नवंबर 1947 को जूनागढ़ के कब्जे के बाद पटेल ने सार्वजनिक रूप से यह भी कहा था: “हमारा जवाब यह था कि अगर वे हैदराबाद देने के लिए सहमत हो सकते हैं तो कश्मीर देने के लिए कोई भी सहमत हो सकता है।” 28 नवंबर को लियाकत के साथ एक अन्य बैठक में पटेल ने पुँछ से भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने का प्रस्ताव रखा, अगर यह एक राजनायिक निपटारे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में मदद करता। लेकिन नेहरू ने इस कार्यप्रणाली का विरोध किया।

1948 की गर्मियों तक, पाकिस्तान की सेना के पूरी तरह से कश्मीर में फैलने के बाद, नेहरू ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य में जनमत संग्रह की शर्तों को पूरा कर पाना संभव नहीं था और इसलिए “मौजूदा सैन्य स्थिति” के आधार पर राज्य का विभाजन करना सबसे अच्छा समाधान होगा। इससे पटेल पूरी तरह से सहमत हुए। उन्होंने कहा कि विभाजन, “एक स्थायी, तत्काल और यथार्थवादी समाधान” प्रदान करेगा। पुंछ और गिलगिट के हिस्से पाकिस्तान के पास जा सकते थे, जबकि शेष राज्य भारत के पास ही था। हालांकि, पाकिस्तान सुझावों का मानने के लिए इच्छुक नहीं था।

कश्मीर मुद्दे के आंतरिक पहलुओं पर भी, नेहरू और पटेल ने अपनी अलग-अलग प्रमुखताओं के बावजूद मिलकर काम किया। उदाहरण के लिए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 का मसौदा तैयार करना जो जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता है। एन.जी. आयंगर (बिना संभाग के कैबिनेट मंत्री और कश्मीर के पूर्व दीवान) और शेख अब्दुल्ला और उनके वरिष्ठ सहयोगियों के बीच कई महीनों तक बातचीत चली। यह मुश्किल वार्ता थी, लेकिन नेहरू ने शायद ही कभी पटेल की सहमति के बिना कोई कदम उठाया हो।

प्रारंभिक बैठकें 15-16 मई 1949 को नेहरू की मौजूदगी में पटेल के निवास पर हुई थीं। जब आयंगर ने नेहरू से अब्दुल्ला के लिए व्यापक समझ को संक्षेप में रखते हुए एक मसौदा पत्र तैयार करवाया, तो उन्होंने इसे एक नोट के साथ पटेल को भेजा: “क्या आप कृपया जवाहरलाजी को सीधे बताएंगे कि अपने मंजूरी दे दी है? वह आपकी मंजूरी प्राप्त करने के बाद ही शेख अब्दुल्ला को पत्र जारी करेंगे।”

बाद में, अब्दुल्ला ने जोर देकर कहा कि अनुच्छेद में जम्मू-कश्मीर को मौलिक अधिकारों और निर्देश सिद्धांतों का विस्तार नहीं करना चाहिए बल्कि यह तय करने के लिए इसे राज्य की विधान सभा पर छोड़ देना चाहिए कि इसे अपनाना है या नहीं। पटेल नाखुश थे लेकिन आयंगार को आगे बढ़ने की इजाजत दी। इस समय, नेहरू विदेश में थे। जब प्रधानमंत्री लौटे, तो पटेल ने उन्हें लिखा: “चर्चा करके के बाद, मैं [कांग्रेस] पार्टी को स्वीकार करने के लिए राजी कर सका” जब अब्दुल्ला ने एक असहमति के कारण संविधान सभा से इस्तीफा देने की धमकी दी, तो पटेल ने नेहरू से हस्तक्षेप करने को कहा।

इस प्रकार सरदार पटेल अनुच्छेद 370 के निर्माता बने। ऐतिहासिक गलतियों को अलग रखते हुए, बीजेपी के सरदार पदेल पर दवा करने में एक मजेदार विडंबना है, जो साथ ही साथ भारतीय संविधान के भीतर जम्मू-कश्मीर के लिए वास्तविक स्वायत्तता सुनिश्चित करने के उनके प्रयास को खत्म करने का प्रयास भी कर रही है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में श्रीनाथ राघवन एक वरिष्ठ सदस्य हैं।

Read in English : BJP wants to revoke Article 370, ironically Sardar Patel was its architect

 

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