इसे पत्रकारिता का जुनून कहेंगे या फिर सिनेमा का प्रेम कि एक न्यूज़ स्टोरी को पूरा करने के लिए अंजान देश में अपनी फ्लाइट छोड़ बैठा. बात सितंबर 2004 की है. यूके के कार्डिफ शहर से ब्रिटिश चीवनिंग स्कॉलरशिप प्रोग्राम खत्म करने के बाद अपनी पत्नी के साथ फ्रांस घूमने गया. पेरिस के बारे में बहुत सुना था. कहते हैं कि ये शहर प्रेमी युगलों का शहर है और इसकी रूह में मोहब्बत बसती है. बहरहाल हम लंदन से पेरिस पहुंचे.
पेरिस में तीन दिन बिताने के बाद हम नीस के लिये रवाना हुए. मंजिल करीब थी. पेरिस के चार्ल्स डि गाल एयरपोर्ट के टर्मिनल नंबर तीन से हमें रवाना होना था और मेरी स्टोरी का हीरो एक नंबर टर्मिनल पर रहता था. मैंने अपनी पत्नी को सामान के साथ टर्मिनल 3 पर छोड़ा और कैमरा-गन माइक लेकर तुरंत कोच से एक नंबर टर्मिनल की ओर लपका. कोशिश थी कि अपनी फ्लाइट छूटने से पहले स्पीलबर्ग के शाहकार की असलियत को कैमरे में कैद कर लिया जाए. वैसे भी तब तक ये स्टोरी किसी न्यूज़ चैनल ने नहीं कवर की थी. इंटरनेट और लंदन के गार्डियन अखबार में कहीं छपी थी बस.
चार्ल्स डि गाल एयरपोर्ट के टर्मिनल नंबर 1 पर खोज शुरू हुई मेहरान करीम नासिरी की जो 1988 में इस एयरपोर्ट पर हमेशा के लिए नज़रबंद हो गया था. ईरान में हुए आंदोलन के चलते नासिरी को तेहरान छोड़ना पड़ा और वो पेरिस आ टपका. लेकिन उसे लंदन भेज दिया गया. वहां भी उसे हीथ्रो एयरपोर्ट से बैरंग लौटा दिया गया और वो वापस चार्ल्स डि गाल एयरपोर्ट पहुंच गया. इस दौरान उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया.
नासिरी ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए और एयरपोर्ट से जाने से मना कर दिया. स्टीवन स्पीलबर्ग ने नासिरी की कहानी को थोड़ा फिल्मी जामा पहनाते हुए टॉम हैंक्स और कैथरीन ज़ीटा जोन्स वाली द टर्मिनल फिल्म बनाई जो जून 2004 में दुनिया भर में रिलीज़ हुई और खासी धूम मचाई.
करीब 18 सालों तक चार्ल्स डि गाल एयरपोर्ट पर रहने वाले ईरानी व्यक्ति की शनिवार को हार्ट अटैक से मौत हो गई.
यह भी पढ़ें: ‘कानूनी तौर पर फैसला गलत है’- ‘लव जिहाद’ के तहत भारत की पहली सजा में फंसे हैं कई दांव-पेंच
नासिरी की तलाश और फ्लाइट का छूटना
टर्मिनल 1 पर पहुंचते ही मैंने नासिरी को तलाशना शुरू किया. इतने लंबे चौड़े एयरपोर्ट पर किसी शख्स को ढूंढना संजीवनी तलाशने जैसा लग रहा था. खैर थोड़ी जद्दोजहद के बाद नासिरी साहब एक कोने में दिखाई दिए. वो जगह उनकी निजी जगह बन चुकी थी.
3-4 ट्रॉलियों में रखे सामान और किताबों के बीच बरसों बरस ज़िंदगी गुजारते आदमी को देखकर एक पल ठहर सा गया. नासिरी से बातचीत कर कोशिश की कि वो इंटरव्यू दें लेकिन जनाब भारतीय और चीनी मीडिया से बेवजह खफा थे. लिहाज़ा बात करने से सख्त परहेज.
मैंने बिना समय गंवाए कैमरा रोल किया और नासिरी की ज़िंदगी के सारे पन्नों को कैद करना शुरू किया. सार्वजनिक शौचालय, मैकडॉनल्ड्स, दवा की दुकान, एयरपोर्ट कर्मचारी और अधिकारी- इन सभी जगह और लोगों से बात की और स्टोरी पूरी की. एक पीटूसी भी किया. दिल बाग-बाग कि मैं अपने मिशन में कामयाब रहा. फटाफट कुछ और शॉट्स बनाए और वापस टर्मिनल 3 की ओर चल पड़ा.
दौड़ते भागते टर्मिनल 3 पहुंचा तो देखा कि नीस की फ्लाइट छूट चुकी थी और मेरी पत्नी सामान समेत एक कोने में बैठी अपने हीरो का इंतज़ार कर रही थी. वो हीरो जो टर्मिनल 3 का हीरो था और स्टोरी फाइल करने के जुनून में परदेस में अपनी फ्लाइट गंवा चुका था. लेकिन खुशी इस बात पर कि नासिरी की कहानी जल्द हिंदुस्तानी टीवी चैनलों पर उसके पति के जरिए लाखों करोड़ों लोगों तक पहुंचने वाली है.
हमारी स्टोरी ये रही कि हमें न सिर्फ एयरपोर्ट वालों से जिरह करनी पड़ी बल्कि दो घंटे का सफर अपने खर्चे पर करके ऑर्ली नाम के एयरपोर्ट जाना पड़ा जहां से दूसरी फ्लाइट पकड़ी जा सके.
पता नहीं ये कहानी कितनी बड़ी या छोटी है लेकिन इतना तो तय है कि मेरे अंदर का पत्रकार आज भी बखूबी ज़िंदा है और हर ऐसी स्टोरी को देख कर उसे फाइल करने को बेकरार रहता है. मुंबई में नयी ज़मीन तलाशने की कोशिश में मैं ये भी सोचता हूं कि कभी स्पीलबर्ग या टॉम हैंक्स से मुलाकात हुई तो उन्हें ये किस्सा ज़रूर सुनाऊंगा.
गार्डियन के मुताबिक नासिरी का जन्म ईरान के एक धनी घर में हुआ था और जब वह 23 साल के थे तब उनके पिता की कैंसर से मौत हो गई थी. उस वक्त उसकी मां ने बताया कि वह उसकी असल मां नहीं है बल्कि वह उसके पिता और स्कॉटिश नर्स के बीच रिश्ते का नतीजा है.
2003 में जब एक पत्रकार ने नासिरी से 15 साल एयरपोर्ट पर बिताने के बारे में पूछा तो, उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं गुस्सा नहीं हूं. बस यह जानना चाहता हूं कि मेरे मां-बाप कौन है.’
(लेखक टीवी पत्रकार रहे हैं. फिलहाल छत्तीसगढ़ सरकार के सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी है)
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
यह भी पढ़ें: बच्चों को सुधरने का वातावरण और मौका दिया जाना जरूरी, बचपन में हो जाती हैं गलतियां