एकबार फिर से हिन्दुस्तान में कुछ ऐसा हो रहा है जो पाकिस्तान को नागवार लग रहा है. पहले तो हिन्दुस्तान ने अपने संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्य को दो टुकड़ों मे बांट दिया था और अब यहां की सरकार साल 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन कर रही है. एक बार फिर, पाकिस्तान के तमाम बड़े नेता नरेंद्र मोदी सरकार को ’हिटलर’ और ‘फासीवादी’ जैसे संबोधनों से नवाज रहें हैं.
इस बिल के पास हो जाने के बाद मुस्लिम प्रवासियों को छोड़कर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मे मज़हबी यातना के शिकार बाकी सभी मजहबों – हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई – के लोगों को (जो इन देशों से भाग कर हिन्दुस्तान आएं हैं) भारतीय नागरिकता दी जा सकेगी. इस कदम से पाकिस्तान में एकदम से खलबली सी मच गई है.
पाकिस्तान के वज़ीर ए आज़म इमरान खान ने मंगलवार को एक ट्वीट के ज़रिए कहा कि, ‘हम हिन्दुस्तानी लोकसभा के नागरिकता कानून की कड़ी मजामात करते हैं जो अंतराष्ट्रीय कानून के मानकों और पाकिस्तान के साथ इसके सभी द्विपक्षीय समझौतों का घोर उल्लंघन करता है. यह क़ानून आरएसएस के ‘हिंदू राष्ट्र’ वाले विस्तारवादी डिज़ाइन का हिस्सा हैं और फासीवादी मोदी सरकार इसे प्रचारित कर रही है.’
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इमरान ख़ान की इसी सोच का समर्थन पाकिस्तान की मानवाधिकार मंत्री शिरीन मज़ारी ने भी किया है. उनके ट्वीट के अनुसार ‘नाज़ी सत्ता के लेबेन्सरुम से जुड़ी है मोदी के अखण्ड हिन्दुस्तान और हिंदू राष्ट्र की सोच. हिंदू सर्वोच्चतावादी पंथ के पुनरुत्थान का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुष्टिकरण किया जा रहा है. हिटलर को खुश रखने के प्रयासों की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी और मोदी को खुश करने की लागत भी समान रूप से गंभीर होगी.’
पर इन्हीं वज़ीर साहिबा और उनके वज़ीर ए आज़म की याद्दाश्त तब एकदम से लापता हो जाती है जब उनसे चीन में उइगर मुसलमानों या यमन के मुसलमानों के दमन बारे में सवाल पूछे जाते हैं. आखिरकार, पाकिस्तान आर्थिक रूप से पूरी तरह से चीन और सऊदी अरब पर निर्भर है. इन्हीं इमरान खान की सरकार ने सीरिया ने कुर्दों के खिलाफ लड़ाई में तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन को खुलकर साथ दिया था. क्या कुर्दों मे मुसलमान होने के लिए ज़रूरी सलाहियत नहीं है.
पाकिस्तान का पाखंड
लेकिन निश्चित रूप से, पाकिस्तान के लिए अपनी सीमाओं के भीतर रहे मुसलमानों अथवा दुनिया के किसी अन्य हिस्से मे रह रहे मुसलमानों की तुलना में भारतीय मुसलमान कहीं अधिक मायने रखते हैं.
उदाहरण के लिए अफगानिस्तान और बांग्लादेश के मुस्लिम शरणार्थियों को ही लें. दशकों से पाकिस्तान में रह रहे इन अफगान और बांग्लादेशी शरणार्थियों को पिछले साल इमरान खान द्वारा नागरिकता का अधिकार देने का वादा किया गया था. पर पाकिस्तानी अधिकारियों में इन शरणार्थियों के प्रति व्याप्त संदेह को देखते हुए 48 घंटे के भीतर ही इस प्रस्ताव को वापस ले लिया गया था. संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायुक्त के अनुसार पाकिस्तान ने करीब 1.39 मिलियन अफगान शरणार्थियों को शरण दे रखी है.
इसी तरह, हिन्दुस्तान के साथ 1971 की जंग के बाद से पाकिस्तान में करीब 2 लाख से भी अधिक बांग्लादेशी फंसे हुए हैं. इन्हें अभी तक नागरिकता का अधिकार नहीं दिया गया है. वे ज्यादातर कराची के बाहरी इलाक़ों तक सीमित कर दिए गये हैं और पाकिस्तान की किसी भी सरकार, प्रांतीय या संघीय, ने कभी भी उनकी दुर्दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया.
पाकिस्तान ने साल 2017 में म्यांमार मे रोहिंग्या अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हो रहे दुर्व्यवहार पर विरोध दर्ज कराया था. फिलहाल पाकिस्तान में लगभग 40,000 से लेकर 250,000 (विभिन्न अनुमान) तक रोहिंग्या निवास करते हैं. उनके रहने के स्थानों की नारकीय स्थिति और उनके खिलाफ किए जा रहे सरेआम भेदभाव ने पाकिस्तान द्वारा उसी रोहिंग्या समुदाय के प्रति इस ‘निंदा’ रुपी पाखंड को उजागर करता है जिसे वे ‘अपना’ समझते हैं.
पाकिस्तान के लिए सी. ए. बी. की प्रासंगिकता
पर आख़िर इस दो-मुंहेपन के बीच, पाकिस्तान के लिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक की क्या अहमियत है?
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित कानून के अनुसार ‘पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के संविधानों मे एक विशिष्ट राज्य धर्म के लिए खास प्रावधान’ का उल्लेख है. यह स्थिति इन देशों मे गैर-मुस्लिम समुदायों के लोगों के मज़हबी उत्पीड़न का सामना करने के जोखिम को बढ़ाता है.
पाकिस्तान के मामले में, इसका 1973 से लागू संविधान किसी भी गैर-मुस्लिम को पाकिस्तान का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने से रोकता है. हाल हीं में,जब पाकिस्तानी संसद के एक ईसाई सदस्य नवेद आमिर जीव द्वारा संविधान के अनुच्छेद 41 और 91 के तहत लगी इस रोक को हटाने के लिए एक बिल पेश किया गया था, तो इन्हीं इमरान खान साहेब की अपनी पार्टी – पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ- ने इसे पारित नहीं होने दिया था.
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उस वक़्त पाकिस्तान के संसदीय कार्य मंत्री अली मुहम्मद खान ने कहा था कि, ‘पाकिस्तान एक इस्लामी गणराज्य है जहां केवल एक मुस्लिम को ही राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री का पद सौंपा जा सकता है.’ पाकिस्तानी संविधान का दूसरा संशोधन – जिसने अहमदिया समुदाय के सदस्यों को गैर-मुस्लिम ठहराया था – पाकिस्तान में जारी रंगभेद का हीं उदाहरण है.
जिम्मेदारी की शुरुआत घर से ही होती है
क्या पाकिस्तान के पास किसी भी अन्य देश की सरकार, हिन्दुस्तान की तो बात हीं छोड़ दें, के खिलाफ धर्म-आधारित भेदभाव के बारे मे बोलने का कोई अधिकार है? मुझे डर है कि इसका जवाब ना मे हीं होगा.
धर्म के नाम पर भेदभाव का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला पाकिस्तान में बेरोकटोक जारी है. ईश निंदा कानूनों के तहत अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न, अपहरण, इस्लामिक धर्मांतरण, हजारों युवा हिंदू लड़कियों की जबरन शादियां और ईसाई और सिख लड़कियों के साथ बदतमीजी भी बरफ़्ता जारी है.
पाकिस्तान मे ईशनिंदा कानूनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए लाया गया कोई भी क़ानूनी प्रस्ताव रद्द कर दिया जाता है. इमरान खान सरकार ने सीनेट से उस बिल को वापस ले लिया था जिसमें ईश निंदा के झूठे आरोपों के लिए कड़ी सजा की मांगी की गई थाई. ईशनिंदा के आरोपों में पीड़ित व्यक्तियों को मौत की सज़ा के खिलाफ अपने अपीलों पर सुनवाई के लिए इंतजार करते हुएअक्सर सालों और कभी-कभी दशकों बीत जाते हैं.
क्या पाकिस्तान अब भी कह सकता है कि वह अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं करता है?
यदि पाकिस्तान चाहता है कि हिन्दुस्तान का कैब नाकामयाब हो जाए, तो उसे अपने देश मे मज़हबी अल्पसंख्यकों के साथ लिए जा रहे बर्ताव को बदलना शुरू कर देना चहिये. इसे चाहिए कि अपने हीं घर (देश) मे हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न को रोके ताकि कोई भी अल्पसंख्यक उस देश को छोड़ना न चाहे, जिसे वे अपना घर मानते हैं. फिर उनमे से कोई भी भाग कर हिन्दुस्तान नहीं जाएगा.
(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. प्रस्तुत विचार पूर्ण रूप से व्यक्तिगत हैं.)
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