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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतब्लॉगहथियार से ज्यादा खतरनाक हैं भड़काऊ भाषण, ये काल्पनिक दुश्मन खड़ा कर देते हैं

हथियार से ज्यादा खतरनाक हैं भड़काऊ भाषण, ये काल्पनिक दुश्मन खड़ा कर देते हैं

दिल्ली दंगों के दौरान तमाम ऐसी कहानियां आईं जिनमें हिंदुओं ने मुसलमानों को बचाया और मुसलमानों ने हिंदुओं को बचाया.

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नेता अपने दोस्तों को क्यों नहीं मारते, उनके कहने पर जनता क्यों किसी को मारने चली जाती है?

सोशल मीडिया पर एक सवाल पूछा जा रहा है कि दिल्ली में दंगों के दौरान कपिल मिश्रा ने तो सिर्फ बोला ही था, बाकी लोगों ने तो हथियार निकाल लिये. फिर हारे हुए विधायक प्रत्याशी कपिल मिश्रा को दोष क्यों दिया जा रहा है? उसी तरह दूसरे हारे हुए विधायक प्रत्याशी वारिस पठान के नफरती बयान का क्या महत्व है?

कभी एक कहानी पढ़ी थी. उसमें एक व्यक्ति रात के वक्त अपने दोस्त से पैसे मांगने जा रहा होता है. रास्ते में सोचता है कि अगर वो पैसे नहीं देगा तो मैं क्या करूंगा. अगर उसने सीधा मना कर दिया तो क्या करूंगा. वो तो व्यापारी है, मुंह पर बोल भी सकता है. अगर उसने दरवाजे से ही लौटा दिया तो बड़ी बेइज्जती हो जाएगी. अगर घर में घुसने के बाद चाय पानी पिलाने के बाद मना कर दे तो भी बेइज्जती होगी. ये सोचते-सोचते उसे बहुत गुस्सा आ रहा था. इतना गुस्सा आया कि जब कॉलबेल बजाने के बाद दरवाजा खुला तो उसने अपने दोस्त के मुंह पर मुक्का मार दिया.

ठीक ऐसा ही हिंदू-मुसलमान के मामले में हो रखा है. एक हिंदू समाज में हम बचपन से यही सुनते आए हैं कि मुसलमान ऐसा होता है, वैसा होता है. दलित ऐसा होता है, ब्राह्मण वैसा होता है. औरतें ऐसी होती हैं पर ये बातें बहुत सामान्यीकरण की होती हैं. किसी व्यक्ति विशेष के बारे में लोग ये बातें नहीं बोलते. सामान्यीकरण ही खतरा पैदा करता है.

अभी दिल्ली में दंगों के दौरान ही ये खबर आई कि बीजेपी के ही एक नेता ने अपने मुस्लिम परिचित की जान बचाई, पर बीजेपी के ही कई नेता लगातार मुस्लिमों को टारगेट कर भड़काऊ बातें बोलते रहे हैं. ऐसा क्यों है कि एक नेता के लिए मुस्लिम मित्र है और कुछ नेताओं के लिए दुश्मन?

ऐसा भी नहीं है कि जिनके लिए दुश्मन हैं, उनके मुस्लिम मित्र नहीं हैं. फिर इतने भड़काऊ बयान किसके लिए दिये जा रहे हैं? क्या भड़काऊ बयान वाले नेता अपने मुस्लिम दोस्त की जान ले लेते हैं?


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नहीं. ऐसा नहीं होता. जितने भी लोग जहर उगल रहे हैं वो अपनी दोस्ती बरकरार रखते हैं. यहां तक कि जो दंगाई सड़कों पर तलवार और बंदूक लिए घूम रहे हैं वो भी अपनी दोस्ती बरकरार रखते हैं. फिर ये नफरत किसके लिए है?

ये नफरत है. उस काल्पनिक दुश्मन के लिए जो जहरीली बातों से तैयार हो जाता है. फिर एक अनजान इंसान को बहुत सारे अनजान इंसान मिलकर मार-काट देते हैं. जैसे कि 1984 के दंगों में काल्पनिक दुश्मन सिखों के रूप में तैयार हुआ, वैसे ही 2020 में काल्पनिक दुश्मन दिल्ली में मुस्लिमों के रूप में तैयार हो रहे हैं.

भड़काऊ भाषण गलत क्यों होते हैं? ये नफरत पैदा करते हैं किसी अनजान व्यक्ति के लिए, इसीलिए गलत होते हैं. देश के गद्दारों को, गोली मारो सरदारों को. देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को. देश के गद्दारों को, गोली मारो बड़ी कारवालों को. देश के गद्दारों को, गोली मारो बड़े बैंक अकाउंट वालों को. अपनी सुविधा से कोई भी दुश्मन तैयार किया जा सकता है.

दिल्ली दंगों के दौरान तमाम ऐसी कहानियां आईं जिनमें हिंदुओं ने मुसलमानों को बचाया और मुसलमानों ने हिंदुओं को बचाया. एक हिंदू प्रेमकांत तो अपने मुस्लिम पड़ोसी की मां को बचाने के लिए खुद जल गये. क्यों जल गये? क्योंकि अपने मित्र, अपने पड़ोसी के लिए मन में नफरत नहीं है क्योंकि आप उन्हें जानते हैं.

नफरत है काल्पनिक दुश्मन के लिए, जो आपके धर्म, जाति और देश के लिए खतरा है. ये नफरत उसी गुस्से की तरह है जो ऊपर की कहानी में था,  जैसे कि परवेश वर्मा ने बोला था कि शाहीनबाग के लोग घरों में घुसकर मां-बहनों का रेप करेंगे. क्या परवेश वर्मा का कोई दोस्त या समर्थक शाहीनबाग में नहीं रहता होगा? क्या परवेश वर्मा का एक भी मुस्लिम परिचित नहीं होगा? 

ज्यादातर जगहों से यही खबर आई है कि बाहर के काफी लोग आए थे जो हिंसा फैला रहे थे. ये सारे लोग अपनी जान-पहचान के लोगों को नहीं मारते, ये उन लोगों को मारते हैं जो इनकी कल्पना के दुश्मन की तरह हैं.

हथियार से तो आप सामने खड़े किसी व्यक्ति को ही मार सकते हैं. भड़काऊ भाषणों से उपजी नफरत से अपने दिमाग में हर किसी को मारते चलते हैं, जैसे राज्य वित्तमंत्री अनुराग ठाकुर बजट से चार दिन पहले देश के गद्दारों को मारने की बात कर रहे थे. ये गद्दार उनकी कल्पना में हैं. कोई भी राज्य वित्तमंत्री बजट के चार दिन पहले बजट और अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित रहता, पर ‘गद्दार’ शब्द उन्हें तथ्यों से दूर कर रहा था.


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ऐसा भी नहीं है कि ये सारी चीजें बिल्कुल अलग हैं. ऐसा भी नहीं है कि लोग सिर्फ अनजान को ही मारेंगे, जान पहचानवालों को नहीं मारेंगे. ये तो भड़काऊ भाषण के बाद का पहला कदम है. अगले कदम में लोग अपने जान पहचान वालों को भी मार सकते हैं. शांति की बात करनेवालों को मार सकते हैं.

सांप्रदायिकता ऐसे ही तो फैलती है. पहले एक दुश्मन बनाती है. फिर दूसरा दुश्मन बनाती है. फिर तीसरा, फिर चौथा. ये लिस्ट लंबी है, क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति सिर्फ और सिर्फ दुश्मनों पर ही निर्भर करती है. अगर भड़काऊ भाषण देकर नेता रोज नये दुश्मन न बनायें तो वो किस चीज पर बात करेंगे? फिर तो उन्हें मुद्दों पर बात करनी पड़ेगी जो उनका उद्देश्य नहीं है. उनकी मंशा यही है कि लोगों के मन में इतनी नफरत भर दी जाए कि दरवाजा खुलते ही लोग अपने दोस्तों को मार डालें.

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1 टिप्पणी

  1. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी आपके द्वारा दी गई हैं अगर इंसान समझ ले देश बदल सकता है।

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