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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय सेवा क्षेत्र जल्द ही वाणिज्य निर्यात को पीछे छोड़ देगा, जो जश्न की बात नहीं है

मैनुफैक्चरिंग और सेवाओं के निर्यातों के बीच का बढ़ता असंतुलन बेरोजगारी को और बढ़ाएगा.

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भारत एक अनूठी सीमा को पार करने वाला है. जल्दी ही वह मुकाम आने वाला है जब सेवाओं का इसका निर्यात माल-असबाब (तेल और रत्नों एवं जेवरों को छोडकर) के इसके निर्यात से बड़ा हो जाएगा. इस वित्त वर्ष के पहले चार महीनों में सेवाओं के निर्यात से 74.05 अरब डॉलर की आमद हुई, जो माल-असबाब (तेल और रत्नों एवं जेवरों को छोडकर) के निर्यात से होने वाली 79.81 अरब डॉलर की आमद से बहुत कम नहीं थी. सेवाओं वाले मद में 8 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है, तो दूसरे मद में 2 प्रतिशत से भी कम की दर से वृद्धि हो रही है. यानी सीमा पार करने में एक-दो साल की ही देरी है.

यह एक असाधारण घटना होगी, लेकिन यह कोई जश्न मनाने वाली बात नहीं होगी. दुनियाभर में देखा जाए तो कुल व्यापार में सेवाओं के व्यापार का हिस्सा 20 प्रतिशत से भी कम है. भारत में स्थिति यह है कि माल-असबाब (तेल और रत्नों एवं जेवरों समेत) के कुल व्यापार में सेवाओं के व्यापार का हिस्सा 40 प्रतिशत है. कोई इसे ज्यादा भी बता सकता है. रत्नों और जेवरों के निर्यात को भी माल-असबाब में गिना जाता है. हालांकि, असलियत यह है कि निर्यात उस मूल्य का होता है जो कटिंग और पॉलिश करने वाले कारीगर आयातित कच्चे हीरे और धातुओं में जोड़ देते हैं. अधिकृत तौर पर चाहे जो भी वर्गीकरण किया जाता हो, यह भी सेवाओं का ही निर्यात है.

सेवा और मैनुफैक्चरिंग के इस समीकरण में एक बड़ा विरोधाभास है. अस्सी के दशक में अमेरिका ने जब पहली बार प्रस्ताव किया था कि विश्व व्यापार वार्ता के एक नए राउंड में न केवल माल-असबाब के व्यापार पर बल्कि सेवा के व्यापार पर भी विचार किया जाए, तब भारत ने बाज़ार को सेवाओं के व्यापार के लिए खोले जाने का जोरदार विरोध किया था. मेरे साथी स्तंभकार टीसीए श्रीनिवास-राघवन उन चंद लोगों में थे जिन्हें यह लगा था कि भारत को इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा में बढ़त हासिल हो सकती है. हमारे पास सभी देशों के मुक़ाबले सस्ते टेक्नोलॉजिस्ट, डॉक्टर, एकाउंटेंट, अन्तरिक्ष वैज्ञानिक, आदि हैं. लेकिन उस समय उनकी आवाज़ अमेरिका विरोधी हो-हल्ले में गुम हो गई थी.

आज, जूता सचमुच में दूसरे पैर में है. ‘आर्थिक साझीदारी के लिए क्षेत्रीय सहयोग (आरसीईपी) के लिए जारी लंबी वार्ता में भारत एशिया-पैसिफिक की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को दो क्षेत्रों में समझौते की पेशकश कर रहा है, अगर वे लोग सेवाओं के व्यापार के लिए खिड़की खोलेंगे तो भारत माल-असबाब के व्यापार के लिए और सुविधा देगा. इस पेशकश को कबूल करने के लिए अब तक कोई आगे नहीं आया है और आरसीईपी खटाई में पड़ गया है.


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जरा विरोधाभासों पर गौर करें. भारत ज़ोर दे रहा है कि बहुपक्षीय व्यापार सेवा समझौते में ‘मोड 4’ के नाम से जो वर्गीकरण किया गया है उसमें ढील दी जाए. इसके तहत ‘नेचुरल’ व्यक्तियों की आवाजाही को कवर किया गया है, बेबाक तर्क यह दिया गया है कि दूसरे देश भारत से ज्यादा प्रवासी कामगारों को अपने यहां आने दें (जरा एच1बी के बारे में सोचें). इसका जो जवाबी तर्क दिया जा रहा है उसी का इस्तेमाल करते हुए भारत बांग्लादेश से प्रवासियों को अपने यहां आने से रोक रहा है . ‘नेचुरल’ व्यक्तियों की आवाजाही नागरिकता का मामला है, व्यापार का नहीं. सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि यह दोनों तरह का मामला है.

देश एक ही बात को मानते रहें, यह जरूरी नहीं है. वे अपने हित को देखकर काम करते हैं. इसलिए, आर्थिक मामलों को देखने वालों के लिए सरोकार का विषय यह नहीं होना चाहिए कि समझौते के रणनीतिक पहलू क्या हैं बल्कि यह होना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में ढांचागत गड़बड़ी क्या है, जो निर्यात के स्वरूप को प्रभावित कर रही है. घरेलू मैनुफैक्चरिंग, खासकर मेक इन इंडिया प्रोग्राम नाकाम हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जीडीपी और व्यापार में सेवा क्षेत्र का योगदान बड़ा हो रहा है. याद रहे कि हाइ-वैल्यू सेवाओं का निर्यात मैनुफैक्चरिंग (वेंडरों, डीलरों, बिक्री के बाद की सेवाएं देने वालों के बारे में भी सोचिए) के मुक़ाबले कम रोजगार पैदा करता है.


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फिर भी संभावना यही है कि मैनुफैक्चरिंग और सेवाओं के बीच का असंतुलन और बढ़ेगा. कुछ तरह की सेवाओं के निर्यात की अप्रयुक्त क्षमता का उपयोग करना देश के भौतिक बुनियादी ढांचे को, जिसने आज मैनुफैक्चरिंग को ग्रहण लगा रखा है, सुधारने से ज्यादा आसान है. बिजली, जमीन, परिवहन की ऊंची लागत के साथ-साथ गोदी के ऊंचे शुल्क और जहाजरानी की ऊंची दर श्रम बाज़ार की अकुशलता आदि सबके मेल को रुपये की अयथार्थपूर्ण विनिमय दर इस बुरी हालत में ला देती है कि मैनुफैक्चरिंग का निर्यात बाधित हो जाता है. वास्तव में, जब सेवाओं का निर्यात बढ़ता रहता है और मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का बड़ा भाग अपने नीचे मुनाफे के साथ अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खुद को टिक पाने में असमर्थ पाने लगता है. इससे उन लाखों घरेलू ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार के अवसर निश्चित ही घटेंगे, जिन्होंने बुनियादी शिक्षा हासिल कर ली है और खेती की ओर नहीं लौटना चाहते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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