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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतभारत में धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित नहीं हुई है, इसके पैरोकारों को आरएसएस पर दोष मढ़ना बंद करना होगा: राजमोहन गांधी

भारत में धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित नहीं हुई है, इसके पैरोकारों को आरएसएस पर दोष मढ़ना बंद करना होगा: राजमोहन गांधी

भारत में धर्मनिपेक्षता के पैरोकारों की चाहे जो भी गलतियां और नाकामियां रही हों, वे हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के उत्कर्ष के मुख्य जिम्मेदार नहीं हैं. वास्तव में, इनमें से कुछ पैरोकार अगर राष्ट्रीय मंच पर न उभरते तो वह उत्कर्ष बहुत पहले हो गया होता.

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यह लेख ‘दिप्रिंट’ में योगेंद्र यादव के महत्वपूर्ण लेख ‘भारतीय सेकुलरिज़्म पर यह हिंदी पुस्तक उदारवादियों की पोल खोल सकती है मगर इसकी अनदेखी की गई’ से प्रेरित होकर लिखा गया है. मैंने अभय दुबे की यह हिंदी पुस्तक ‘हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति ’ पढ़ी तो नहीं है मगर यहां मैं जो कुछ लिख रहा हूं वह इस पुस्तक के निष्कर्षों का योगेंद्र यादव ने जो सार प्रस्तुत किया है उसके ऊपर आधारित है.

अपने लेख में योगेंद्र ने दुबे के इन आकलनों का जिक्र किया है— सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष राजनीति की विफलता धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की विफलता है. यह एक कड़वा सच है कि इस विफलता के लिए यह राजनीति खुद ही जिम्मेदार है, सेकुलर विचारकों ने अपने अहंकार के कारण संघ परिवार के बारे में बुनियादी तथ्यों की अनदेखी की, धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियां यह रहीं कि वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ही ज़ोर देती रही और कांग्रेस की खामियों पर पर्दा डालती रही.

दुबे ने जिन मुद्दों को उठाया है और योगेंद्र ने जिन्हें संक्षेप में प्रस्तुत किया है उनमें से कई बेशक निर्विवाद हैं. धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने अक्सर संघ परिवार, उसके विविध तत्वों, उसकी मजबूतियों-उपलब्धियों-विफलताओं पर तटस्थ होकर देखने से इनकार किया है. शाह बानो मामले में अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता का प्रतिकार करने में कांग्रेस की विफलता उसकी भारी भूल थी. लेकिन मैं इस निष्कर्ष से बहुत सहमत नहीं हूं कि धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित हो गई है.


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संविधान में लिखे को चुनावों नहीं मिटाया जा सकता

पिछले करीब 20 वर्षों में जो कुछ हुआ है, चाहे वह 1998-99 के लोकसभा चुनाव के नतीजे हों या यूपीए के करीब 10 साल के शासन के बाद 2014 से शुरू हुआ हार का सिलसिला हो, वह सब सेकुलर राजनीति की भारी विफलता को उजागर करती है. इसके बावजूद कुछ लोग तर्क दे सकते हैं और मैं उनके इस तर्क का समर्थन कर सकता हूं कि इसे धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा की पराजय नहीं कहा जा सकता.

धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा को परिभाषित करने की कोशिश किए बिना यह कहा जा सकता है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना इस विचारधारा को बहुत अच्छी तरह से ‘स्पष्ट’ करती है और यह कि संविधान ने स्वाधीनता और समानता के जिन अधिकारों का भरोसा दिया है वे इस विचारधारा को ठोस आधार प्रदान करते हैं. हम जानते हैं कि आज ये अधिकार सुरक्षित नहीं हैं. इन्हें खत्म करने के इरादे हर तरफ दिख रहे हैं और ऐसा माहौल भी बनाया जा सकता है जब इन्हें खत्म करने का खुला प्रयास किया जाए.

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‘न्याय’, ‘स्वाधीनता’, ‘समानता’, ‘भाईचारा’, ‘व्यक्ति की गरिमा’ आदि शब्द जब तक संविधान की प्रस्तावना में कायम हैं और उन्हें संविधान के अनुच्छेदों से सुरक्षा हासिल है तब तक हमें यह मान लेने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित हो गई. इन अनुच्छेदों के उल्लंघन के खिलाफ हमें अपनी आवाज़ बुलंद करते रहने की जरूरत है.
भारत की सेकुलर पार्टियों में कई बड़ी कमजोरियां हैं जिनके लिए जनता, जो कि असली मालिक है, उन्हें उचित सज़ा देती भी रही है. लेकिन हम यह भी न भूलें कि हमारे यही करोड़ों राजा-रानी सेकुलर दलों के हाथों में देश की बागडोर बार-बार सौंपते रहे हैं. 1947 के बाद दशक-दर-दशक वे ऐसा करते रहे हैं. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद भी सेकुलर दलों को देश के कई हिस्सों में जनादेश मिला है.


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खामियों के बावजूद धर्मनिरपेक्षता कबूल

स्वराज मिलने के पहले दिन से ही भारत की शासन व्यवस्था में खामियां रही हैं, इसे मैं सबसे पहले कबूल करूंगा. फिर भी धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा का परचम लहराने वाली कांग्रेस पार्टी को जनता ने बार-बार चुनाव जिताया क्योंकि वह जानती है कि हमारी पवित्र परंतु मलिन धरती में पूरी तरह निर्दोष कुछ भी नहीं है.

धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा की निंदा 15 अगस्त 1947 से ही शुरू हो गई थी. 1946 की गर्मियों से इस निंदा ने हिंसक रूप ले लिया था. इससे बहुत पहले, 1920 के दशक से ही कुछ मुस्लिम और हिंदू विचारक यह कहने लगे थे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग क़ौमें हैं. देश के बंटवारे की मांग के साथ 1946-47 में हुई हिंसा ने इस धारणा को जायज ठहराने की कोशिश की.

तभी एक चमत्कार हो गया था. 1947 और 1950 के बीच, जब पाकिस्तान एक इस्लामी मुल्क बनने की राह पर था और 1947 के खूनखराबे के जख्म हरे ही थे, भारतीय नेताओं और संविधान निर्माताओं ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज कर दिया. इसके बाद हरेक पांच साल पर हुए चुनावों में जनता भी दो राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज करती रही, भले ही केंद्र और राज्यों की कांग्रेस सरकारों में उसे ढेरों खामियां दिखती रहीं.

1947-50 का वह चमत्कार कैसे हुआ, इसके बारे में अपनी व्याख्या देने का यह स्थान नहीं है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आगे जो कुछ हुआ उसके पीछे उन कई असाधारण विभूतियों की वैचारिक स्पष्टता का हाथ था जिनमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बी.आर. आंबेडकर, वल्लभभाई पटेल, अबुल कलाम आज़ाद, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया शामिल थे. इन सबका ज़ोर इसी बात पर था कि भारत हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, सबका है— समान रूप से. धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा का मूल आधार यही है.

दो राष्ट्र के सिद्धांत के खिलाफ उनके अटल, सार्वजनिक तौर पर बार-बार घोषित रुख और संविधान सभा के राजनीतिक तथा गैर-राजनीतिक सदस्यों से लेकर सरकार, राजनीतिक दलों आदि में इस रुख को हासिल समर्थन का ही फल था कि हमें न केवल एक सेकुलर संविधान मिला बल्कि धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद भारत के खून में समा गया.

ऐसा लगता है कि भारतीय मानस ने यह स्वीकार कर लिया कि भारत सबका है, उसने यह भी याद रखा कि देश के विभिन्न हिस्सों में सदियों से कवि तथा संत भी इस सत्य को रेखांकित करते रहे हैं.


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आरएसएस का नियंत्रण

सात दशक बाद आज भारत के खून में अगर क्रोध और असहिष्णुता के प्लेटलेट उभरने लगे हैं तो इसके लिए बेशक कांग्रेस और दूसरी सेकुलर पार्टियों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है. श्रेय या दोष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के 95 वर्षों के अथक प्रयासों को भी दिया जाना चाहिए, जिसके सदस्य इन प्लेटलेटों को विष नहीं बल्कि वीरता की निशानी बताएंगे. इसका श्रेय या दोष अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की खातिर बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए चलाई गई देशव्यापी उन्मादी मुहिम को भी दिया जा सकता है.

हाल के वर्षों में भाजपा की कामयाबी और हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के विस्तार को नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं के कौशल और दमखम, भाजपा के खजाने में आए अकूत पैसे, टीवी चैनलों, सोशल मीडिया और सरकारी संस्थानों पर संघ के नियंत्रण नहीं तो उसके बढ़ते प्रभाव से गति मिली है.

मैं मानता हूं कि आरएसएस के कुछ हिस्सों ने हिंदू धर्म के अंदर सुधारवादी परंपरा से भी बहुत कुछ लिया है. मैं यह भी मानता हूं कि मुसलमानों के बहिष्कार की भरपाई उसने निचली जातियों के हिंदुओं को अपने साथ जोड़ने की सफल मुहिम से की. लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जनमत पर धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों के निरंतर दबाव के कारण ही संघ परिवार सामाजिक सुधारों के लिए हिचकते हुए ही सही, तैयार हुआ और निचली जातियों के हिंदुओं को कुछ प्रभावशाली पदों पर नियुक्त किया.

दो राष्ट्र के सिद्धांत के प्रति अपने विरोध को मजबूती देते हुए हम इन सुस्त कदमों का स्वागत कर सकते हैं. संघ परिवार आज अगर अपने सोच में आमूल परिवर्तन करके भारत के भविष्य निर्माण में मुसलमानों को बराबर के भागीदार के रूप में गले लगाता है, दो राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज करता है तो यह अपने सौ साल पूरे करने जा रहे आरएसएस के लिए एक स्वागत योग्य पड़ाव होगा.

लेकिन ऐसा क्लाइमेक्स नामुमकिन दिखता है. जो मिस्र, ईरान, तुर्की जैसे देशों में राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलनों के लिए सच है और पाकिस्तान की मांग के मामले में सच था, वही भारत के हिंदू राष्ट्रवादी अभियान के लिए भी सच है, उसे भी ‘एक दुश्मन’ की दरकार है.


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भारत में धर्मनिरपेक्षता ने बहुसंख्यकवाद पर लगाम लगाई

मैं नहीं जानता कि अभय दुबे की किताब में इस मान्यता के विश्वव्यापी उभार की समीक्षा की गई है या नहीं कि एक कौम या एक धर्म कैसे एक राष्ट्र बनता है और यह कि बाकी सबको इसके आगे अपनी गौण हैसियत को कबूल करना ही है. यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि संघ परिवार जिस हिंदू भारत की कल्पना करता है वह रेसेप तय्यिप एर्दोगन की इस्लामिक तुर्की (जहां ऐतिहासिक ईसाई चर्च हागिया सोफिया को मस्जिद में बदल दिया गया है) के सपने से, प्रतिबंधित मुस्लिम ब्रदरहुड के सुन्नी मुस्लिम मिस्र के ख्वाब से, ईरान के आयतुल्लों के पाक शिया ईरान के सपने से और डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका में कुछ तत्वों के श्वेत अमेरिका के सपने से मिलता-जुलता है.

भारत में धर्मनिपेक्षता के पैरोकारों की चाहे जो भी गलतियां और नाकामियां रही हों, वे संघ परिवार के उत्कर्ष के मुख्य जिम्मेदार नहीं हैं. वास्तव में, इनमें से कुछ पैरोकार अगर राष्ट्रीय मंच पर न उभरते तो वह उत्कर्ष बहुत पहले हो गया होता. जवाहरलाल नेहरू ने 1958 में जब यह घोषणा की थी कि ‘बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से कहीं ज्यादा खतरनाक है’, तब वे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण नहीं कर रहे थे बल्कि भविष्य को देख रहे थे क्योंकि आगे उन्होंने यह भी कहा था कि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता ‘राष्ट्रवाद का चोगा पहनकर आती है’. उनका अनुमान भारत, तुर्की और दूसरी जगहों पर सही निकला है.

भारत में हिंदू राष्ट्रवाद के उभार पर जो भी बहस हो, उसमें सेकुलर पक्ष की दो महत्वपूर्ण कमजोरियों को खुल कर कबूल किया जाना चाहिए. एक कमजोरी तो यह रही कि दलितों और आदिवासियों की उपेक्षा की गई. समतावादी संविधान के निर्माण में आंबेडकर, नेहरू, पटेल सरीखे नेताओं के बीच जो सहभागिता रही वह देश के गांवों, शहरों, बस्तियों और वनक्षेत्रों तक नहीं पहुंच पाई.

हम सब जानते हैं कि मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ शूरू होने से पहले, दलितों की लिंचिंग और आदिवासियों को अपनी जमीन से खदेड़ना शुरू हो चुका था और आज भी जारी है. इन पीड़ितों की चीख-पुकार जब अनसुनी की जाती हो तब ‘देश सबका है’ जैसे दावे उपहास ही बन जाते हैं.

दूसरी कमजोरी यह है कि बड़े नेता संघर्ष के मोर्चे पर या नेतृत्व की टीम में अपने अहं का प्रदर्शन करते रहे हैं. इमरजेंसी के बाद मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम दो साल तक भी मिलकर काम न कर पाए. 1989-90 में वी.पी. सिंह, देवीलाल और चंद्रशेखर को अलग होकर अपना-अपना रास्ता पकड़ने में एक साल भी नहीं लगा. अभी हाल में, मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेताओं में फूट हो गई, तो अब राजस्थान में हम सचिन पायलट की नाराजगी देख रहे हैं.


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नफरत की आंधी में तो मजबूती से एकजुट रहते

लंबे समय से तकलीफों में जी रहे भारत के लोग, चाहे वे खाना पकाने वाले रसोइए हों या सफाईकर्मी, बुनकर हों या किसान, गार्ड हों या ड्राइवर, सब मास्क पहनकर अपनी रोजी-रोटी कमाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि दूसरों का भी जीवन चलता रहे. ये सब लोग यह मांग नहीं करते कि सब कुछ बिलकुल ‘परफेक्ट’ ही हो जाए. उनके लिए तो इतना ही काफी है कि आप अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाएं और प्रयासरत रहें, हालांकि यह कहना ज्यादा आसान है मगर करना कठिन.

अभय दुबे का यह कहना सही है कि संघ परिवार के अधिकतर आलोचक इस पर तटस्थ होकर विचार नहीं करते. सभी हिंदू राष्ट्रवादी एक जैसे नहीं हैं. और सब के अंदर व्यक्तिगत खामी नहीं होती, सिवा इसके कि हर मनुष्य में कुछ-न-कुछ कमजोरी होती ही है.

सवाल है कि उनके प्रति मेरा रुख क्या हो? मैं उनके इस विचार को सीधे खारिज करता हूं कि मुसलमान, ईसाई, सिख, और दूसरे गैर-हिंदू हिंदुओं के मातहत रहें. लेकिन मैं यह जरूर मानता हूं कि संघ परिवार वाले भी हमारी तरह मनुष्य हैं और भारतीय हैं इसलिए वे भी मुझसे सम्मान एवं सदभावना पाने का हक रखते हैं.

जो भी समानता में यकीन रखता है और यह मानता है कि भारत सबका है, वह मेरी सदभावना का हकदार है. ऐसे लोगों के साथ विशेष बात यह होगी की मैं उनकी विचारधारा का भी समर्थन करूंगा. मैं उनकी मानवीय कमजोरियों पर बहुत ध्यान नहीं दूंगा. जब तक वे बहिष्कार, तिरस्कार और नफरत के खिलाफ खड़े रहेंगे. जब तक वे वर्चस्व और वंशवाद की विचारधारा का विरोध करेंगे तब तक वे मेरे पार्टनर बने रहेंगे. वे किसी भी राजनीतिक दल, जाति, धर्म, जनजाति या किसी भी राज्य के हों, अगर वे स्वतंत्रता, समता और भाईचारा में यकीन रखते हैं तो उन्हें मेरा पूरा समर्थन रहेगा.

भारत में स्वतंत्रता, समता और भाईचारा में यकीन रखने वाले लोग एकजुट होकर, दोषारोपण के खेल में अपनी शक्ति जाया न करते हुए अपना प्रयास जारी रखते हैं तब न केवल धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा बल्कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का भी भविष्य भारत में सुरक्षित रहेगा.

(राजमोहन गांधी इलिनॉय विश्वविद्यालय, अरबाना शैम्पेन में पढ़ाते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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