सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस विभाग में सुधारों केविषय पर पर 22 सितंबर 2006 को एक ऐतिहासिक फैसला दिया था. फैसले को आए हुए 19 साल पूरे हो गए हैं, उस पर हुई प्रगति, कमियां और आगे के रास्ते पर विचार करने का यह उपयुक्त समय है.
आधुनिक भारत की विडंबना है कि हम अपना ‘चंद्रयान’ तो चांद परभेज सकते हैं, इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल दाग सकते हैं, देश भर में एक्सप्रेसवे का जाल बिछा सकते हैंऔर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं, लेकिन अभी तक हम एक पुरातन, ब्रिटिशकालीन पुलिस ढांचे को ढोते चले जा रहे हैं. यह हाइवे पर खटारा गाड़ी चलाने जैसा है.
इमरजेंसी के दौर और उसके बाद आई शाह आयोग रिपोर्ट ने जब यह खुलासा किया कि भारत में पुलिस का राजनीतिकरण हो गया है, तब इस बात का बोध हुआ कि “आज़ादी के बाद से पुलिस व्यवस्था की राष्ट्रीय स्तर पर कोई विस्तृत समीक्षा नहीं हुई है जबकि देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति में भारी परिवर्तन आ चुका है” और भारतीय पुलिस में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. पुलिस के कामकाज के सभी पहलुओं को समझने के लिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया. आयोग ने 1979-81 के बीच आठ खंडों में विस्तृत रिपोर्ट पेश की, जिसमें संस्थागतबदलावों के सुझाव दिए गए.
दुर्भाग्य से, इन सिफारिशों के आने तक देश का राजनीतिक नक्शा बदल गया था और सरकार ने उसके सुझावों का समर्थन नहीं किया क्योंकि ये सुझाव पहले सत्ता में बैठी इसी पार्टी की सरकार पर गंभीरदोषारोपण के संदर्भ में दिए गए थे. फलस्वरुप, देश के बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा तैयार की गई एक उत्कृष्ट रिपोर्ट पर बस नाममात्र की कार्रवाई की गई.
बड़ी उम्मीदें
1996 में दायर किए गए एक जनहित मुकदमे में तर्क पेश किया गया कि कार्यपालिका “अपने स्वार्थी, पक्षपाती, और राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कानून लागू करवाने वाली एजेंसी का इस्तेमाल एवं दुरुपयोग करती रही है” और इस कारण “पुलिस और जनता के बीच का फैसलाबढ़ता गया है क्योंकि उसके मौलिक अधिकारों तथा मानवाधिकारों पर हमले बढ़े हैं”. यह भी कहा गया कि “पुलिस को देश के कानून और देश की जनता के प्रति हर दृष्टि से जवाबदेह बनाने के लिए ऐसे सुधारों को लागू करने” की ज़रूरत है.
मामले पर 10 साल की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को कुछ निर्देश जारी किए. राज्यों को निर्देश दिया गया कि वे पुलिस को बाहरी दबावों से अछूता रखने के लिए प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन करे, विभाग के अधिकारियों को ट्रांसफर पोस्टिंग मामलों में कुछ स्वायत्तता देने के लिए एक ‘पुलिस स्थापना बोर्ड’ और पुलिसकर्मियों के खिलाफ गंभीर दुराचरण की शिकायत की जांच के लिए एक ‘शिकायत प्राधिकरण’ का गठन करे. राज्यों को पुलिस महानिदेशक के चयन की निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने का भी निर्देश दिया ताकि इस सर्वोच्च पद के लिए सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों के नामों पर ही विचार हो; मैदानी कार्यों से जुड़े अधिकारियों को दो साल की निश्चित कार्य अवधि दी जाए; और महानगरों में जांच-पड़ताल के काम को कानून-व्यवस्था को लागू करवाने के काम से अलग किया जाए. केंद्र सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन करने का निर्देश दिया गया ताकि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों को और प्रभावी बनाया जा सके और उसके कर्मचारियों की सेवा शर्तों को सुधारा जा सके.
उम्मीदें बहुत ऊंची थीं. लोगों को लगा कि इन निर्देशों के बाद पुलिस का कामकाज पूरी तरह बदल जाएगा और वह जनता के प्रति संवेदनशील, जवाबदेह और दोस्ताना हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं होना था. शासक वर्ग को न्यायपालिका के इन निर्देशों से यह खतरा महसूस होने लगा कि पुलिस पर उसकी पकड़ कमज़ोर हो जाएगी, इसलिए नौकरशाही और राजनीतिक तबके ने इनका भारी प्रतिरोध किया.
सौभाग्य से, सुप्रीम कोर्ट ने इन निर्देशों के अमल पर निगरानी रखी. न्यायपालिका की निगरानी और दबाव के कारण कई राज्यों ने इस मामले में कार्यकारी आदेश जारी किए और कुछ राज्यों ने कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप कानून बनाए, लेकिन गहरी जांच से जाहिर हुआ कि इन आदेशों और क़ानूनों को बड़ी चालाकी से इस तरह से तैयार किया गया था कि न्यायपालिका के निर्देश सही मायने मेंलागू ही न हो पाएं. कागज पर पालन तो दिखा दिया गया, लेकिन वास्तव में ये आदेश और कानून सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की भावना और उद्देश्य के विपरीत थे.
नतीजा यह निकला कि जमीनी स्तर पर शायद ही कोई बदलाव हुआ. 2008 में जस्टिस थॉमस कमेटी का गठन यह पता लगाने के लिए किया गया था कि राज्यों ने निर्देशों को लागू किया है या नहीं. कमेटी ने कोर्ट के 2006 के निर्देशों को लागू करने में राज्यों की “पूर्ण अनदेखी” पर विस्मय ज़ाहिर किया.
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जनता जागरूक हुई
बहरहाल, इन वर्षों की एक उपलब्धि यह रही कि पुलिस सुधारों की बात जनचेतना में पैठ गई. आम जन नहीं, परंतु बुद्धिजीवी लोग समझ गए कि पुलिस में क्या गड़बड़ी है और उसे जनता का मित्र बनाने के लिए सरकारी स्तर पर क्या किया जाना चाहिए. कुछ राज्यों में स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) ने पुलिस सुधारों को अपने एजेंडा में शामिल कर लिया है. कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर जब भी कोई कांड होता है तो प्रमुख अखबारों के संपादकीय में उच्चतम अदालत के निर्देशों को लागू करने में देरी की चर्चा की जाती है. यह भी एक तथ्य है कि राज्यों ने बेमन से ही सही, न्यायपालिका के निर्देशों को लागू करने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाए हैं.
केंद्र सरकार का कहना है कि पुलिस राज्य का विषय है इसलिए वह इस मामले में बहुत कुछ कर नहीं सकती. यह तर्क स्वीकार्य नहीं नहीं है. न्यायपालिका के निर्देशों को उन राज्यों में लागू करने से केंद्र सरकार को कोई रोक नहीं सकता जिन राज्यों में उसकी पार्टी की ही सरकार है. राज्य पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए ज्यादा फंड देकर उन्हें न्यायपलिका के निर्देशों को लागू करने का प्रोत्साहन दिया जा सकता था. इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि दो दशक बाद भी केंद्र सरकार ‘मॉडल पुलिस एक्ट, 2006’ को अंतिम रूप नहीं दे पाई है. राज्य सरकारें बेशक इस मामले में कदम घसीट रही हैं.
आगे का रास्ता
आगे क्या किया जा सकता है? सुधारों का एजेंडा लागू करने में तीन मोर्चों पर काम करने की ज़रूरत है. सबसे पहले, पुलिस अधिकारियों को महकमे में आंतरिक सुधारों पर ज़ोर देना चाहिए, जिन्हें वे बिना किसी विरोध का सामना किए लागू कर सकते हैं और उन्हें स्थायी रूप दे सकते हैं. पुलिस थानों के माहौल को बेहतर बनाया जाना चाहिए. पुलिस थाने में प्रवेश करने वाले में यह भरोसा होना चाहिए कि उसकी शिकायत को सहानुभूति के साथ सुना जाएगा और उसके साथ जो भी दुखद घटना हुई है, उसके निराकरण के लिए पुलिस अपने अधिकारों के अंतर्गत जो बन पड़ेगा वह करेगी. एफआइआर दर्ज करने में कोई टालमटोल या अनावश्यक देरी नहीं की जाएगी. थाने में आने वाली महिला को लगना चाहिए कि वह सुरक्षित है और उसके मामले को यथासंभव महिला पुलिस ही देखेगी. आम आदमी के साथ पुलिस का व्यवहार समानुभूति वाला हो. ‘थर्ड डिग्री’ तरीकों का इस्तेमाल न हो और जांच-पड़ताल में वैज्ञानिक तरीकों पर ज्यादा ज़ोर दिया जाए. ये और इस तरह के दूसरे उपाय पुलिस और जनता के बीच की खाई को पाटने में काफी मददगार हो सकते हैं.
दूसरे, पुलिस को ऐसे सुधारो पर ज़ोर देना चाहिए जो आसानी से लागू किए जा सकते हैं. खाली पड़े पदों (देश भर में करीब6 लाख पद खाली पड़े हैं) पर नियुक्तियांकी जाए; वाहनों के बेड़े का विस्तार किया जाए; संचार व्यवस्था में सुधार किया जाए; और पुलिस कर्मियोंको बेहतर आवासीय सुविधा उपलब्ध कराई जाए. हमें ज्यादा फोरेंसिक लैबोरेट्रीज की जरूरत है, प्रशिक्षण संस्थानों में भारी सुधार अपेक्षितहै. पुलिसकर्मियों के काम के घंटों के नियमन की जरूरत है. उनसे प्रतिदिन 12 घंटे से ज्यादा काम न लिया जाए, और उसे धीरे-धीरे घटाकर आठ घंटे किया जाए. इसके लिए ज्यादा कर्मचारियों की जरूरत होगी, जिनकी नियुक्ति की जा सकती है.
तीसरे, पुलिस के कामकाज में टेक्नोलॉजी को भारी पैमाने पर शामिल किया जाए. यह पुलिस बल की ताकत कई गुना बढ़ा देगी. ‘क्राइम ऐंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क ऐंड सिस्टम्स’ (सीसीटीएनएस) ने काफी सुधार ला दिया है. ‘नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड’ (नैटग्रिड) भी काम करने लगा है और यह जांचकर्ताओं को संदिग्ध तत्वों की संपूर्ण जानकारी दे रहा है. ‘आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस’ (एआइ) को उपयुक्त स्तरों पर शामिल किया जा सकता है. साइबर क्राइम एक बड़ी चुनौती बन गया है. इसका बड़े पैमाने पर सामना करना पड़ेगा. कूट लेखन (इनक्रिप्शन), डेटा साझा करने वाली व्यवस्था ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’, क्लाउड स्टोरेज, और 3डी प्रिंटिंग जैसी दूसरी टेक्नोलॉजी भी चुनौतियां देगी जिनका सामना करने के लिए हमें तैयारी करनी पड़ेगी.
इस बीच हम सुप्रीम कोर्ट के सबसे कम विवादास्पद निर्देश – महानगरों में जांच-पड़ताल के काम और कानून-व्यवस्था के काम का अलग-अलग करने – पर ज़ोर देना चाहिए. इसके लिए पुलिस बल में वृद्धि करने की ज]रूरत पड़ेगी, जिसमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए. दूसरे निर्देशों के लिए जनसमर्थन जुटाने की ज़रूरत है, इसमें एनजीओ उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं. सभी प्रमुख दलों के चुनाव घोषणापत्रों में पुलिस सुधारों के मुद्दे को शामिल करवाने की मुहिम चलाई जाए. भारत सरकार ने देश को ‘स्मार्ट’ पुलिस देने का वादा किया है, ऐसी पुलिस जो सख्त भी होगी और संवेदनशील भी, आधुनिक भी और गतिशील भी, सजग भी और जवाबदेह भी, भरोसेमंद भी और जिम्मेदार भी, ‘टेक-सैवी’ भी और प्रशिक्षित भी. यह ज़ोर देने की ज़रूरत है कि ये लक्ष्य तभी पूरे होंगे जब प्रस्तावित संस्थागत बदलाव किए जाएंगे.
प्रगतिशील, आधुनिक भारत को एक ऐसी पुलिस चाहिए जो जन-प्रिय, संवेदनशील, जवाबदेह हो और कानून के शासन को स्थापित करे. ‘विकसित भारत’ को जनता की पुलिस चाहिए, शासक की पुलिस नहीं, जो वर्तमान में हमारे पास है.
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं. पुलिस सुधार के लिए वह करीब तीन दशक से अभियान चला रहे हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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