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Tuesday, 19 November, 2024
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भारत के उदारवादी और हिंदुत्ववादी नागरिकता विधेयक पर बहस में जिन्ना को घसीटना बंद करें

जिन्ना ने हमेशा ही पाकिस्तान में सभी को नागरिकता के समान अधिकार देने की वकालत की थी. वह किसी से भी वफादारी का सबूत मांगे जाने के खिलाफ थे.

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समय आ गया है कि 21वीं सदी के पाकिस्तानी और भारतीय दोनों ही इतिहास को उसकी वास्तविकता में देखें. भारत के उदारवादियों और अतिदक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों, दोनों के लिए ही मोहम्मद अली जिन्ना का अपमान करना तथा ‘भारत का विभाजन करने वाले’ शख्स के बारे में हर तरह के मिथक गढ़ना मानो अनिवार्य हो. अभी हाल ही में शशि थरूर ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 को गांधी के विचारों पर जिन्ना की सोच की जीत करार दिया. यकीनन थरूर भी जानते होंगे कि ये उल्लेख नहीं करना बेहद भ्रामक है कि पाकिस्तान में धार्मिक आधार पर नागरिकता की व्यवस्था नहीं है, भले ही पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जिन्ना की मूल भावना से दूर जा चुका हो.

स्वशासित संयुक्त भारत के लिए अपना पूरा राजनीतिक जीवन खपाने– जिसके लिए उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का सर्वश्रेष्ठ दूत कहा गया था – के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग क्यों उठाई, इसकी एक वजह थी. भारतीय ‘पहले दूसरे और आखिरी’ जिन्ना के मुस्लिम अलगाववादी बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है जिसे निष्पक्षता से देखा जाना चाहिए. हमें प्रमुख तथ्यों को याद रखना चाहिए: लाहौर प्रस्ताव, जिसमें पाकिस्तान का नाम नहीं था, ने बातचीत और समझौते का रास्ता पूरी तरह खुला रखा था. कैबिनेट मिशन योजना ने समझौते का अवसर भी उपलब्ध कराया था, जोकि संयुक्त भारत की स्थापना को संभव कर सकता था. कैबिनेट मिशन योजना के आलोचकों का कहना है कि इसमें 10 वर्षों की अवधि के बाद शर्तों के पुनर्निर्धारण का प्रावधान था. हालांकि, इसने संभावित बंटवारे का रास्ता खोलने के साथ-साथ त्रिस्तरीय संघ के लिए एकीकरण के विकल्प की संभावना को भी बनाए रखा था.


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पाकिस्तान में सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता नहीं

द्विराष्ट्र सिद्धांत की व्याख्या करते हुए जिन्ना ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि नागरिकता का कभी भी सांप्रदायिक आधार नहीं होगा. उन्होंने बड़ी साफगोई से गांधी से ये बात कही थी और पाकिस्तान में विभिन्न समुदायों को नागरिकता के समान अधिकार दिए जाने का वादा किया था. जब आज़ादी का अवसर करीब आ गया और अंतरिम सरकार का गठन हुआ, तो जिन्ना ने काउंसिल की एक मुस्लिम सीट के लिए जोगिंदर नाथ मंडल को नामित किया. आगे चलकर मंडल ने पाकिस्तान संविधान सभा के प्रथम सत्र की अध्यक्षता की और पाकिस्तान के प्रथम विधि मंत्री बने. जिन्ना का 11 अगस्त का भाषण बहुत महत्वपूर्ण है.

उन्होंने कहा: ‘जैसा कि आपको पता है, इतिहास में ये अंकित है कि कुछ समय पहले तक इंग्लैंड में स्थितियां आज के भारत के मुकाबले बेहद खराब थीं. रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट एक-दूसरे को सता रहे थे. अभी भी ऐसे कुछ देश हैं जहां भेदभाव होता है और जहां वर्ग विशेष पर पाबंदियां लगाई गई हैं. शुक्र है ऊपर वाले का कि हमारा उन परिस्थितियों से सामना नहीं है. हम ऐसे काल में है कि जब कोई पक्षपात नहीं है, समुदायों में अंतर नहीं है, जाति, पंथ या किसी अन्य आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है. हमारा इस बुनियादी सिद्धांत पर भरोसा है कि हम सारे ही नागरिक हैं और एक राष्ट्र के एकसमान नागरिक हैं.

इंग्लैंड के लोगों को आगे चलकर वास्तविकताओं का सामना करना पड़ा था और अपने देश की सरकार द्वारा उन पर थोपी गई ज़िम्मेदारियों और बोझों का निर्वहन करना पड़ा था और उन्होंने एक-एक कर उन चुनौतियों का सामना किया था. आज आप ईमानदारी से कह सकते हैं कि अब वहां रोमन कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों का अस्तित्व नहीं है; अब हर व्यक्ति एक नागरिक है, ग्रेट ब्रिटेन का एकसमान नागरिक और वे सभी एक राष्ट्र के सदस्य हैं. मैं समझता हूं कि हमें इस बात को अपने समक्ष एक आदर्श के रूप में रखना चाहिए और फिर आप देखेंगे कि आगे चलकर हिंदू हिंदू और मुसलमान मुसलमान नहीं रह जाएंगे – ऐसा धार्मिक तौर पर नहीं होगा क्योंकि वो व्यक्ति विशेष की निजी आस्था की बात है, बल्कि ऐसा राजनीतिक रूप से देश के नागरिकों के तौर पर होगा.’

जिन्ना की स्पष्ट मान्यता थी कि पाकिस्तान में नागरिकता का सांप्रदायिक पहचान से कोई वास्ता नहीं होगा. उन्होंने रॉयटर्स के संवाददाता डंकर हूपर से अक्टूबर 1947 में हुई बातचीत में इस पर प्रकाश डाला.

‘अल्पसंख्यकों की नागरिकता नहीं छिनती है. पाकिस्तान या हिंदुस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यकों को किसी संप्रदाय, धर्म या नस्ल का होने के कारण अपने देश की नागरिकता नहीं गंवानी पड़ती है. मैंने बार-बार ये स्पष्ट किया है, खास कर संविधान सभा में अपने आरंभिक संबोधन में, कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को देश का नागरिक माना जाएगा और उन्हें अन्य समुदायों की तरह ही सारे अधिकार प्राप्त होंगे. पाकिस्तान इस नीति पर चलेगा और देश के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों में सुरक्षा और आत्मविश्वास का भाव भरने के लिए हरसंभव उपाय करेगा.

हम उनकी वफादारी की कोई परीक्षा नहीं लेंगे. हम पाकिस्तान के किसी हिंदू नागरिक से ये नहीं कहेंगे कि ‘यदि युद्ध छिड़ा तो क्या तुम किसी हिंदू को गोली मारोगे?’

पाकिस्तान ने भले ही धर्मनिरपेक्ष शासन की उनकी सलाह को अनसुना कर दिया हो, पर अभी भी पाकिस्तान का नागरिकता कानून पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है. दिलचस्प बात ये है कि धारा-7 के प्रावधानों के मुताबिक 1947 में पाकिस्तान से चले गए – हिंदू और सिख – लोगों की वापसी का दरवाज़ा भी खुला हुआ है.

इसलिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक के पारित होने को गांधी पर जिन्ना के विचारों की जीत बताना सरासर गलत और धूर्तता है. जिस सांप्रदायिक धार्मिक मानसिकता से जिन्ना को जोड़ा जाता है, उनकी सोच दरअसल उसके विपरीत थी.

द्विराष्ट्र सिद्धांत

भारत के विभाजन के बारे में भी कतिपय तथ्यों पर विचार करने की ज़रूरत है. मुस्लिम लीग की मांग मुसलमान-बहुल प्रांतों के अलग रहने के बारे में थी. उसका द्विराष्ट्र सिद्धांत सहभागिता की दलील के रूप में था ताकि संविधान में हरेक समुदाय की सहमति सुनिश्चित की जा सके. कांग्रेस ने द्विराष्ट्र सिद्धांत की निंदा की, पर विडंबना देखिए कि पंजाब और बंगाल के विभाजन के लिए उसने उसी विचार को आधार बनाया. जहां जिन्ना ने पंजाब को एकजुट रखने के लिए सिखों को लुभाने की कोशिश की, वहीं कांग्रेस उन्हें मुस्लिम शासन के कथित खतरों को लेकर डराती रही. इसी तरह जिन्ना ने एक स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और अविभाजित बंगाल की अवधारणा पर हामी भरी थी. कांग्रेस ने उस विचार को खत्म करने के लिए भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का ही इस्तेमाल किया.

यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि जिन्ना ने लुई माउंटबेटन से दोटूक शब्दों में कहा था कि एक पंजाबी या बंगाली, एक मुस्लिम, हिंदू या सिख होने से पहले एक पंजाबी या बंगाली होता है. जिन्ना ने निश्चय ही द्विराष्ट्र सिद्धांत को अपनी अटूट आस्था का सवाल नहीं बनाया. और उन्होंने पाकिस्तान में धर्म को नागरिकता का आधार नहीं बनाया.


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जिन्ना बनाम गांधी की बात नहीं थी

कोई वजह नहीं है कि जिन्ना बनाम गांधी/नेहरू की बहस एक को अच्छा और दूसरे को बुरा बताने के लिए ही हो. जिन्ना धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान के पक्षधर थे, पर त्रासदी देखिए कि पाकिस्तान उनके विचारों को ठुकराते हुए धर्मशासित देश बन गया. दूसरी ओर, गांधी और जवाहरलाल नेहरू बहुसंख्यक लोकतंत्र के हामी थे पर उन्होंने उसके खुली बहुसंख्यक सांप्रदायिकता में बदलने की उम्मीद नहीं की थी, जैसाकि आज भारत में देखने को मिल रहा है. मैं शशि थरूर और बरखा दत्त जैसे लोगों से अपील करूंगा कि वे हर बहस या चर्चा में जिन्ना और पाकिस्तान को घसीटना बंद करें. किसका देश सर्वश्रेष्ठ है, इस पर अहंकारी बहस के बजाय आपको पाकिस्तान के धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों को अपना सहयोगी बनाना चाहिए.

सच्चाई तो ये है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक उन सारे आदर्शों पर चोट करता है कि जिनकी जिन्ना ने ताउम्र कद्र की थी, भले ही वह कांग्रेस में रहे हों या फिर पाकिस्तान बनाए जाने पर ज़ोर दे रहे हों. समय आ गया है कि भारतीय और पाकिस्तानी दोनों इस बात को स्वीकार करें कि इंसान होने के कारण जिन्ना और गांधी से गलतियां हो सकती थीं और उन्होंने गलतियां की भीं, पर वे मानवता और समतावाद की भावना से प्रेरित थे. जिन्ना और गांधी के उत्तराधिकारियों को अतिवाद, असहिष्णुता और धर्मांधता के खिलाफ संघर्ष में सहभागी बनना चाहिए.

(लेखक पाकिस्तान में हाईकोर्ट के वकील हैं. उनकी लिखी जिन्ना की जीवनी शीघ्र ही भारत में पैन मैकमिलन द्वारा प्रकाशित होगी. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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