शहर की धूल से नहाई गुलाबी दीवारें हिंसक मौतों के रंग में रंग गई थीं और उस रंग ने जौहरी बाज़ार में पसरे विविध वस्त्रों और हनुमान मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं की चमकती प्रतिमाओं को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया था. उस नरसंहार का संदेश पास के साइबरकैफे में रखे कंप्यूटर के टिमटिमाते सफ़ेद स्क्रीन पर काले अक्षरों में उकेरा हुआ था. हमलावरों द्वारा भेजे गए ई-मेल के मुताबिक, ये बम धमाके कुफ़्फ़र-ए-हिंद को यह सबक सिखाने के लिए किए गए हैं कि “अगर इस मुल्क में इस्लाम और मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं तो तुम्हारी सुरक्षा की बत्ती भी गुल हो जाएगी.”
जयपुर में 2008 में इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी हमले, जिसमें 63 लोग मारे गए थे, के 15 साल बाद राजस्थान हाइकोर्ट ने उन चार लोगों को बरी कर दिया जिन्हें इस कांड के लिए पहले फांसी की सज़ा सुनाई गई थी. जस्टिस समीर जैन और जस्टिस पंकज भंडारी ने अपना फैसला इस निर्णायक प्रमाण पर आधारित किया कि अभियोग पक्ष ने फर्जी दस्तावेजों और झूठी गवाही का सहारा लिया था.
यह फैसला आतंकवाद से जुड़े उन तमाम मुकदमों के लिए बुरी खबर है जिनमें कई संदिग्धों के खिलाफ मामले लंबित हैं. ऐसे कुछ मामलों (जैसे सूरत के अहमदाबाद में सीरियल बम धमाकों) में निचली अदालतों ने फांसी की सज़ा दी है और दूसरे ऐसे मामलों में ग्लेशियर से भी धीमी गति से प्रगति हो रही है. कुछ दूसरे ऐसे मामलों, मसलन वाराणसी और मुंबई के मामलों को लेकर इस आशंका के विश्वसनीय कारण हैं कि कहीं गलत लोगों को न बलि का बकरा बना दिया गया हो, जबकि असली अपराधी हालांकि जेलों में बंद हों मगर उन्हें सज़ा नहीं सुनाई गई हो.
राजस्थान हाइकोर्ट वह पहली अपीली अदालत है जिसने इंडियन मुजाहिदीन के एक मामले की कड़ी जांच की है, और अगर दूसरों को भी बरी किया जाता है तो पक्के फैसले की मांग होगी. जजों ने इस मामले को “संस्थागत विफलता” का मामला कहा है. जस्टिस जैन ने टिप्पणी की कि “जांच एजेंसियों की नाकामी के चलते कुप्रभावित होने वाला यह कोई पहला मामला नहीं है, और ऐसे ही चलता रहा तो यह निश्चित ही आखिरी मामला नहीं होगा.”
मज़ाकिया जांच
राजस्थान हाइकोर्ट ने पाया कि पुलिस ने अपना मामला साबित करने के लिए कई दुखद मज़ाकिया कोशिशें कीं. पुलिस ने उस साइकिल की खरीद का बिल पेश किया, जिसका इस्तेमाल मुहम्मद सैफ ने कथित रूप से बम ढोने के लिए किया था. इस साइकिल के फ्रेम का नंबर 97908 बताया गया, जबकि उस बम कांड में इस्तेमाल की गई साइकिल के फ्रेम का नंबर 30616 था. इससे भी बुरी बात यह हुई कि उक्त बिल पर जाली दस्तखत किया गया था. अंजु साइकिल कंपनी द्वारा जारी तमाम दूसरे बिलों को जहां से फाड़ा गया था वहां पर खांचे थे लेकिन इस एक बिल को जहां से फाड़ा गया था वहां कागज बिलकुल सीधा था और कोई खांचा नहीं था.
लेकिन एक बड़ी समस्या यह पेश आई कि साइकिल की दुकान ने वह बिल बमकांड के एक दिन पहले जारी किया था जिस दिन बमकांड के संदिग्ध अपराधी शहर में थे नहीं. इस समस्या का सामना होने पर किसी ने अदालत में पेश उस बिल की कार्बन कॉपी पर कलम से तारीख बदल दी थी. अदालत में जिरह के दौरान साइकिल दुकान के मालिक ने कहा कि उसने मुहम्मद सैफ की शिनाख्त उसके चेहरे पर बने एक निशान से की थी. इससे पहले मजिस्ट्रेट द्वारा आयोजित पहचान परेड में यह दर्ज नहीं किया गया था कि सैफ के चेहरे पर कोई निशान नहीं है. इसके अलावा, स्थानीय सेल्समैन विनोद कुमार गिरि ने कहा कि सैफ के चेहरे पर कोई स्पष्ट निशान नहीं थे.
यह लगभग अविश्वसनीय ही है कि जांचकर्ताओं ने नवीन कैफ़े, जहां से इंडियन मुजाहिदीन ने बमकांड की ज़िम्मेदारी लेने का दावा जारी किया था, के यूजर रेकॉर्ड या कंप्यूटर की सीपीयू को न तो जब्त किया और न उनकी जांच की. पुलिस ने वहां का नक्शा तो पेश किया लेकिन आश्चर्य की बात है कि उसमें यह नहीं दिखाया कि वहां कोई कंप्यूटर भी था.
मामले की पहली सुनवाई करने वाले ट्रायल जज हालांकि अभियोग पक्ष के मामले की खामियों की अनदेखी करने को राजी दिखे लेकिन जस्टिस जैन तथा भंडारी कम उदार साबित हुए. शर्मसार राज्य सरकार ने कहा है कि वह अपील में जाएगी, लेकिन ऐसा लगता है कि नये सबूत उसका पक्ष मजबूत करने में मदद नहीं करेंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने 1957 के एक मशहूर फैसले में कहा था कि “अभियोग पक्ष की कहानी सच्ची हो सकती है, लेकिन “सच्ची हो सकती है” और “निश्चित ही सच्ची है” के बीच जाहिर है बड़ा फासला है और इस फासले को कानूनी, विश्वसनीय और अकाट्य सबूतों के बूते ही मिटाया जा सकता है.”
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मृतक की कहानी
इंडियन मुजाहिदीन के ज़्यादातर मामलों की तरह जयपुर बमकांड की जांच भी एक मृत व्यक्ति के इर्दगिर्द ही घूमती है. यह शख्स है इंडियन मुजाहिदीन का कथित कमांडर मुहम्मद आतिफ़ अमीन, जिसे दिल्ली पुलिस ने सितंबर 2008 में बाटला हाउस इलाके के एक अपार्टमेंट में गोली मार कर ढेर कर दिया था. बताया गया कि अमीन उस आतंकी सेल का कमांडर था जिसने फरवरी 2005 के बाद से कई बमकांड किए जिनमें नयी दिल्ली में हुए हमले शामिल थे.
जयपुर बमकांड का केंद्रीय किरदार मुहम्मद सैफ कथित रूप से आजमगढ़ के निवासियों के उस गुट में शामिल था जिनकी अमीन और इंडियन मुजाहिदीन के दूसरे केंद्रीय नेताओं ने रंगरूट के रूप में भर्ती की थी. आजमगढ़ के एक छुटभैये नेता के बेटे सैफ ने शिबली कॉलेज और पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी. बताया जाता है कि सैफ ने बाटला हाउस गोलीबारी में बाथरूम में छिपकर जान बचाई थी.
इंडियन मुजाहिदीन के लिए कथित तौर पर बम बनाने वाले मोहम्मद जफर सिद्दीबप्पा ने (जिसे यासीन भटकल नाम से भी जाना जाता है) नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी (एनआइए) के सामने दिए इक़बालिया बयान में कहा कि उसने लकड़ी के डिब्बे में बंद क्लेमोर बारूदी सुरंगें मुहैया कराई थी, जिन्हें अमीन ने बम हमले में इस्तेमाल किया. भटकल के इस बयान की एक प्रति ‘दप्रिंट’ के पास भी है.
अभियोग पक्ष का कहना है कि सैफ और अमीन सहित नौ लोग दिल्ली के बिकानेर हाउस से बस पर सवार होकर जयपुर गए थे. अमीन ने उनमें से हरेक को साइकिल खरीदने के लिए 3,000 रुपये दिए थे जिन पर सवार होकर उन्हें बम लगाने थे. उस शाम धमाकों के करीब आधे घंटे बाद वे सब फर्जी नामों से ट्रेन पर सवार होकर दिल्ली लौट गए थे.
पुलिस ने इस यात्रा के लिए इस्तेमाल किए गए टिकट पेश करने या इस यात्रा के दौरान इन लोगों को देखने वाले चश्मदीदों का पता लगाने की कोई जहमत नहीं उठाई. न तो अपने दावे के पक्ष में कोई सीसीटीवी चित्र हासिल किए गए और न वैसे फोरेंसिक सबूत हासिल किए गए जैसे नयी दिल्ली में इंडियन मुजाहिदीन द्वारा किए गए बम धमाकों के मामले में अभियोग पक्ष ने हासिल किए थे.
इंसाफ का सवाल
इंडियन मुजाहिदीन के मामले में पुलिस ने जांच में शुरू से सच्चाई के प्रति घोर उदासीनता बरती. इस बात के भी सबूत हैं कि एनआइए ने 2006 में मुंबई के लोकल ट्रेन में बम धमाकों के लिए जिन कमाल शेख, फैसल अंसारी, एहतेशाम सिद्दीक़ी, नवीद खान और आसिफ खान पर संदेह किया था और जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी उनका जयपुर के कांड से कोई संबंध नहीं था. एनआइए ने अदालत में यहां तक कहा कि जयपुर में इंडियन मुजाहिदीन के जिन लोगों ने बम धमाके किए उनमें उपरोक्त सजायाफ्ता लोग नहीं शामिल नहीं थे.
मुंबई की क्राइम ब्रांच ने 7/11 के ट्रेन बमकांड के लिए इंडियन मुजाहिदीन के गुर्गे सादिक़ इसरार शेख को— जिसे अहमदाबाद कांड के लिए सज़ा दी जा चुकी है— दोषी बताते हुए एक चार्जशीट दायर की थी. इस पर अदालतों ने अभी तक कार्रवाई नहीं की है और सजायाफ्ताओं की अपील पर सुनवाई बाकी है.
आतंकवादी गुट ने जो पहला हमला 2005 में वाराणसी के संकट मोचन मंदिर पर किया था उसके लिए वहीं के मोहम्मद वलीउल्लाह को दोषी बताया गया था. लेकिन उसे इन हमलों के लिए नहीं बल्कि एसाल्ट राइफल, हथगोले और प्लास्टिक विस्फोटक रखने के लिए 10 साल कैद की सज़ा दी गई थी. पुलिस का मानना था कि ये हमले असल में अमीन के गुट ने किए थे लेकिन उन पर कभी मुकदमा नहीं चला. दिल्ली में इंडियन मुजाहिदीन द्वारा किए गए एक हमले के लिए जिन दो कश्मीरियों पर गलत आरोप लगाए गए थे उन्हें 2017 में बरी कर दिया गया.
इंडियन मुजाहिदीन की पृष्ठभूमि और उसके गुर्गों के बारे में कोई रहस्य नहीं रह गया है क्योंकि उसके सदस्य ही अपनी कहानी सार्वजनिक कर चुके हैं. अमीन के नेटवर्क के प्रमुख सदस्यों में शामिल अबू राशिद समेत इंडियन मुजाहिदीन के दूसरे गुर्गे इस्लामिक स्टेट के वीडियो में आकर कई बम धमाकों की ज़िम्मेदारी ले चुके हैं. मुकदमे में विश्वसनीय सबूत पेश करने में पुलिस की विफलता के कारण साजिश की बातें उभरती हैं और ये दावे किए जाते हैं कि कानून लागू करने वाले लोग आतंकवाद के बहाने बेकसूर लोगों को मुकदमे में फंसाते हैं.
इंडियन मुजाहिदीन की बातों से साफ है कि नाइंसाफी भी एक वजह है जो जिहादी गुटों को अपने रंगरूट हासिल करने में मदद करती है. जयपुर कांड इस बात की तस्दीक करता है कि पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने वालों शायद ही आपराधिक मुकदमे का सामना करना पड़ता है. मुंबई में 1993 के बाद, 2002 में गुजरात में हजारों लोग मारे गए लेकिन गिनती के लोगों पर ही मुकदमा चला. जयपुर कांड इस बात की भी तस्दीक करता है कि बदले के लिए हमले करने वाले आतंकवादियों को “दुनिया के तमाम देशों से वापस लाया जा रहा है”.
राजस्थान में जिस तरह आरोपियों को बरी किया गया है उसने भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए यह जरूरी बना दिया है कि वह अपनी खामियों को कबूल करे और उन्हें दूर करना शुरू कर दे.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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