यदि आपने बीबीसी के बारे में तब अपना मन बना लिया था जब भारत सरकार ने हाल ही में 2002 के गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की भूमिका के बारे में एक डॉक्यूमेंट्री के प्रसारण के लिए उस पर निशाना साधा था, तो जरा रुक जाइए.
शायद आप मानते हैं कि बीबीसी उस दुष्ट श्वेत मीडिया की साजिश का हिस्सा है जिसके सदस्य हर दिन जागते हैं और तुरंत भारत को बदनाम करने के तरीकों के बारे में सोचने लगते हैं. या शायद आप बीबीसी को एक बड़े पैमाने पर निष्पक्ष मीडिया संगठन मानते हैं जो सभी उचित दृष्टिकोणों की तलाश के लिए प्रतिबद्ध है चाहे कोई भी अपराध करे.
किसी भी तरह से, अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों और पूर्वधारणाओं के बारे में भूल जाइए क्योंकि पिछले पूरे सप्ताह बीबीसी अपने खुद के संकट में फंसा रहा. और क्या? निष्पक्षता. और कॉर्पोरेशन इससे अभी ठीक तरह से बाहर भी नहीं आ पाया है. विवाद जिस तरह से आगे बढ़ा है, प्रसारण और दुनिया भर के पत्रकारों के लिए उसके परिणाम हो सकते हैं.
यह समझने के लिए कि लड़ाई हम सभी को क्यों प्रभावित कर सकती है, भले ही मूल संदर्भ पूरी तरह से घरेलू था, इसके समानांतर एक भारतीय उदाहरण के बारे में सोचने की कोशिश कीजिए. क्या किसी भारतीय समाचार संगठन द्वारा नियोजित एक पत्रकार को अपने ट्विटर एकाउंट को अपने नियोक्ता के व्यक्तित्व के विस्तार के रूप में देखना चाहिए?
हम में से अधिकांश लोग कहेंगे: फालतू की बात मत करो!
और वास्तव में, हमारे देश में काम करने का यही तरीका है. मेरे जानने वाले लगभग हर पत्रकार स्वतंत्र रूप से इस बात की परवाह किए बिना ट्वीट करता है कि उनके नियोक्ता (नौकरी देने वाले) कैसे प्रतिक्रिया देंगे. न्यूज़ एंकर, अन्य मनुष्यों की तरह, राजनीतिक विचार रखते हैं. जब वे टीवी बहसों को संचालित कर रहे होते हैं तो वे तटस्थ (सिद्धांत रूप में, कम से कम) रह सकते हैं, लेकिन जब वे कैमरे पर नहीं होते हैं तो वे अपने स्वयं के विचारों को गुप्त नहीं रखते हैं. और कुल मिलाकर समाचार संगठन इसे ठीक मानते हैं. (हालांकि हाल ही में एक या दो चिंताजनक अपवाद देखे गए हैं.
कभी-कभी ये राजनीतिक विचार उनके नियोक्ताओं के विचारों के अनुरूप होते हैं (विशेष रूप से यदि वे सरकार समर्थक हैं) और यहां तक कि पदोन्नति या कम से कम वेतन वृद्धि का भी कारण हो सकती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता के बारे में ट्वीट करने, भ्रष्टाचार के मामले में कर्नाटक सरकार पर हमला करने या दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को जमानत देने की बात कहने के लिए शायद ही किसी को फटकार लगाई गई हो.
अगर इन विचारों को समाचार पत्र या टीवी चैनल में व्यक्त किया जाता है, जिसके लिए पत्रकार काम करते हैं, तो समस्या हो सकती है, लेकिन ट्विटर को आमतौर पर एक निजी स्थान माना जाता है. कोई भी पत्रकार से यह उम्मीद नहीं करता कि उनका अपना कोई विचार नहीं होगा, जिसे वे अपने निजी मंचों पर व्यक्त करते हैं.
लेकिन यह बीबीसी का सच नहीं है. यदि आप टीवी समाचार को एंकर करते हैं, तो आप किसी राजनीतिक विवाद के बारे में कुछ भी ट्वीट नहीं कर सकते हैं या अपने विचार प्रकट नहीं कर सकते हैं.
यह बीबीसी के चार्टर की अनूठी प्रकृति के कारण है. हालांकि यह ब्रिटिश सरकार द्वारा वित्त पोषित है (नागरिकों से लाइसेंस शुल्क के माध्यम से), यह (उदाहरण के लिए दूरदर्शन की तरह) सरकारी नियंत्रण के अधीन नहीं है. इसका अपना निदेशक मंडल है जो स्वायत्तता से कार्य करता है. सभी सरकारें इससे खुश नहीं हैं और बीबीसी पर लगातार हमले हो रहे हैं, नियमित रूप से पक्षपात का आरोप लगाया जाता है और इसके फंडिंग को प्रतिबंधित करने की धमकी दी जाती है.
दबाव के स्तर को देखते हुए, बीबीसी अपने पत्रकारों से सोशल मीडिया पर राजनीतिक राय पेश नहीं करने के लिए कहता है, ऐसी स्थिति में सरकार इसे पक्षपात मानती है.
इसलिए, जबकि भारतीय टीवी एंकर ट्विटर पर खुद को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त कर सकते हैं (और करते भी हैं), लेकिन बीबीसी के एंकरों पर प्रतिबंध है.
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कैसे नियंत्रण में काम करता है बीबीसी
बीबीसी पर दबाव परंपरागत रूप से ब्रिटेन की दो सबसे बड़ी पार्टियों की ओर से आया है. जब टोनी ब्लेयर प्रधानमंत्री थे, तो उनके शक्तिशाली मीडिया सहयोगी एलेस्टेयर कैंपबेल ने बीबीसी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और सरकार ने इसके महानिदेशक ग्रेग डाइक को भी बाहर कर दिया. हाल के वर्षों में, कंजर्वेटिव सरकार की ओर से दबाव आया है, जो बीबीसी का गला घोंटने के लिए प्रतिबद्ध है.
कंजरवेटिव्स ने रिचर्ड शार्प को बीबीसी का अध्यक्ष नियुक्त किया. शार्प, कंजर्वेटिव पार्टी के एक कंट्रीब्यूटर ने कथित तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अपने वित्तीय तौर पर मदद की. वर्तमान महानिदेशक टिम डेवी एक पत्रकार के बजाय एक मार्केटिंग मैन हैं और एक पूर्व कंज़र्वेटिव उम्मीदवार हैं जिन्हें कंज़र्वेटिव शासन के दौरान नियुक्त किया गया था.
जबकि जॉनसन और नादिन डोरिस अब कार्यालय से बाहर हैं और ऋषि सुनक बीबीसी को परेशान करने के उत्सुक नहीं हैं, फिर भी दबाव पूरी तरह से कम नहीं हुआ है. और पिछले हफ्ते, यह तब चरम पर पहुंच गया जब इंग्लैंड के पूर्व कप्तान गैरी लीनेकर, जो बीबीसी के प्रमुख फुटबॉल कमेंटेटर हैं, ने कंजर्वेटिव सरकार की इमीग्रेशन नीति के बारे में ट्वीट किया.
There is no huge influx. We take far fewer refugees than other major European countries. This is just an immeasurably cruel policy directed at the most vulnerable people in language that is not dissimilar to that used by Germany in the 30s, and I’m out of order?
— Gary Lineker 💙💛 (@GaryLineker) March 7, 2023
लीनेकर, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत क्षमता से शरणार्थियों की काफी मदद की है, वह चिंतित थे कि शरणार्थियों और “अवैध” अप्रवासियों पर सरकार के हमले 1930 के दशक के जर्मनी की याद दिलाने वाला था. उनके पोस्ट ने सरकार को नाराज कर दिया. कोई नहीं जानता कि कितना (यदि कोई) दबाव डाला गया था लेकिन बीबीसी ने लीनेकर को हटा दिया.
बीबीसी ने समझाया कि उसके पास दिशानिर्देश हैं जो पत्रकारों को राजनीतिक विचार व्यक्त करने से रोकता है लेकिन कॉर्पोरेशन की अपनी नियम पुस्तिका बताती है कि ये दिशानिर्देश मुख्य रूप से न्यूज़ से जुड़े लोगों पर लागू होते हैं. एक फुटबॉल एंकर या एक नृत्य प्रतियोगिता के जज को एक ही स्तर पर नहीं रखा जाना चाहिए.
इसके अलावा, गैरी लीनेकर बीबीसी के कर्मचारी नहीं हैं. वह एक फ्रीलांसर हैं. क्या दिशा-निर्देश उन पर पूरी तरह लागू होते थे?
इसके अलावा, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बीबीसी के गैर-राजनीतिक शो की मेजबानी करने वाले फ्रीलांसरों ने राजनीतिक बयान दिए हैं जिन पर कॉर्पोरेशन को कोई आपत्ति नहीं थी. लीनेकर ने पहले खुद पूर्व श्रमिक नेता जेरेमी कॉर्बिन के खिलाफ ट्वीट किया था और बीबीसी ने कोई आपत्ति जाहिर नहीं की थी.
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बीबीसी का मामला सबके लिए क्यों जरूरी
इस मुद्दे को कैसे सुलझाया गया यह हर जगह के पत्रकारों के लिए महत्वपूर्ण था. उदाहरण के लिए, हालांकि मैं दिप्रिंट के लिए यह कॉलम लिखता हूं, लेकिन मैं एक फ्रीलांसर हूं. क्या शेखर गुप्ता को मेरे सभी ट्वीट्स को अप्रूव करने का अधिकार होगा? क्या हिंदुस्तान टाइम्स, जिसके लिए मैं कॉलम लिखता हूं, क्या भोजन पर लेखन के कारण मुझे कुछ भी राजनीतिक ट्वीट करने से रोकेगा?
बीबीसी के लिए मुश्किल कुछ और थी. जब भारत सरकार ने शिकायत की कि यह नरेंद्र मोदी के साथ अन्याय हुआ है, तो कॉर्पोरेशन ने अपने पत्रकारों की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए जवाब दिया. क्या अब यह कहा जा सकता है कि जब किसी विदेशी नेता को शर्मिंदा करने की बात आती थी तो उसे बहादुरी मानी जाती है, लेकिन जब अपने ही नेताओं की बात आने पर दबाव में झुकना पड़ा?
अंत में, बीबीसी झुक गया, सिर्फ इसलिए कि लीनेकर के सहयोगी उसके साथ खड़े थे और टीवी पर दिखाई देने से इनकार कर दिया. लीनेकर को बहाल कर दिया गया और अब फिर से गाइडलाइंस पर गौर करने की बात हो रही है.
A final thought: however difficult the last few days have been, it simply doesn’t compare to having to flee your home from persecution or war to seek refuge in a land far away. It’s heartwarming to have seen the empathy towards their plight from so many of you. 3/4
— Gary Lineker 💙💛 (@GaryLineker) March 13, 2023
लेकिन अगर पत्रकार इस लड़ाई को हार जाते तो इसके परिणाम विनाशकारी हो सकते थे. हम अपने नियोक्ताओं को अपनी आत्मा बेचकर कहीं भी अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार खो देते. अगर हम विरोध करते, तो हमें बताया जाता: “कि बीबीसी भी ऐसा करता है.”
अंत में, जबकि यह पत्रकारों की जीत थी, इसने हमें याद दिलाया कि पूरी दुनिया में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राजनेताओं और दब्बू मीडिया मालिकों के निशाने पर है.
और अगर वैश्विक दबाव बना रहता है, तो यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे पत्रकार हार सकते हैं. और राजनेता और धमकाने वाले सफल हो जाएंगे.
(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsangvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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