एक शोधकर्ता ने एक प्रतिष्ठित अकादमिक संस्थान में गांधीजी के अहिंसा और सत्य संबंधी विचार और कार्यों पर एक शोधपत्र पढ़ा. उस में गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन से उन के विचारों औक कामों को उद्धृत करके उन में भारी विसंगतियां दर्शाई गई थी. साथ ही, गांधी के असंख्य राजनीतिक कामों की समीक्षा की गई थी.
शोधकर्ता ने अपनी परख से दिखाया कि गांधी या तो उन प्रसंगों में झूठ बोले, गलत फैसले किए, अथवा बार-बार वैसे असंगत, अनुचित काम करते हुए वे निरे अज्ञान में थे. दोनों स्थितियों में, एक जिम्मेदार नेता या चिंतक के रूप में गांधी की महत्ता खंडित होती थी.
आयोजन से पहले वह शोधपत्र लिखित रूप में सभी उपस्थित लोगों को वितरित किया गया था. ताकि उस में रखी गई बातें यदि गड़बड़ हों तो खंडित की जा सके. प्रस्तुति के बाद वहां उपस्थित एक शोधार्थी ने कहा कि ‘‘पर्चे में बड़ी तर्कपूर्ण बातें हैं, जिस का मैं खंडन नहीं कर सकता. परन्तु मैं उस की किसी बात से सहमत नहीं हूं.’’
वहां संस्थान के निदेशक भी मौजूद थे. उन्होंने कहा, ‘‘ऐसे ही लिखना चाहिए, प्रमाणिक रूप से, तर्क, तथ्य और संगति के साथ. चाहे मैं उस पर्चे की अनेक बातों से असहमत हूं.’’ किंतु उन्होंने भी स्पष्ट नहीं किया कि असहमति कहां थी और उन का निराकरण कैसे हो?
एक दूसरा उदाहरण लीजिए. एक बुजुर्ग बुद्धिजीवी ने किसी लेखक को कहा, ‘‘आप ने गांधी जी की ब्रह्मचर्य संबंधी बातों, कामों पर किसलिए लिखा?’’ वे दु:खी थे. उन्होंने यह नहीं कहा कि लेखक ने कोई असत्य बात लिखी. वे इसी पर क्षुब्ध थे कि उस विषय पर क्यों लिखा? वे भूल गए कि स्वयं गांधी ने कहा था कि उन के हर काम का आधार ‘सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य’ है. ऐसे में उन के काम की परख करने के लिए ब्रह्मचर्य संबंधी उन के विचारों और ‘प्रयोगों’ की समीक्षा ज़रूरी है, लेकिन उस पर लिखने-बालने पर आपत्ति करना, गांधी के उन विचारों और कामों को छिपाने की चाह है जिन का बचाव करना मुश्किल है. सो, गाँधी के सिद्धांतों का तो यह हाल है.
जबकि गौतम बुद्ध ने कहा था, ‘‘मेरी बात भी उसी तरह परख कर मानना, जैसे सोना को घिस-परख कर ही स्वीकार किया जाता है. इसलिए नहीं कि मैंने कहा है.’’ पर आज असंख्य भारतीय बौद्धिक मामूली नेताओं की बातें भी बिना ना-नुच किये मानने ही नहीं, उस पर उत्साहित होने की जिद करते हैं. ऐसा न करने वाले को संदिग्ध मानते हैं और उसे ‘ब्लैकलिस्ट’ करते हैं.
ये उदाहरण मात्र है. आज हर लेखक, शिक्षक, या पत्रकार को रोज लेखों, टिप्पणियों, पॉडकास्टों आदि की बाढ़ मिलती रहती है. उन सब का आकलन करने पर कुछ बौद्धिक प्रवृत्तियों का पैटर्न साफ झलकता है.
भक्त बुद्धिजीवी
पहली प्रवृत्ति है: आदतन राजनीतिक मानसिकता. समाज ही नहीं, साहित्य, संस्कृति, कला, और निरे समाचारों, घटनाओं, आदि को भी किसी न किसी पक्षपाती दृष्टि से देखना. अक्सर उन बातों को किसी न किसी राजनीतिक नेता, पार्टी या एजेंसी जोड़ कर ही देखा जाता है. चाहे बिना किसी सबूत के. इसी तरह, किसी न किसी षडयंत्र की बात के प्रति बड़ा आकर्षण मिलता है. किसी नेता, पार्टी, ‘डीप स्टेट’, चीन, सीआईए, वेटिकन, सोरोस या आपदा की संभवाना (चाहे कितनी भी ऊटपटांग क्यों न हों), आदि के बारे में गुमनाम दावे तुरंत साझा किए जाते हैं और जब सोर्स पूछे जाते हैं, तो “मैं नहीं जानता” कहने में कोई हिचक नहीं होती.
दूसरी बात, हर कोई बिना परखे किसी भी बयान या काम की आदतन निन्दा या प्रशंसा करता मिलता है — चाहे वह पार्टी का नेता हो, लेखक हो, संस्था हो या कोई राजनीतिक फैसला ही क्यों न हो.
तीसरी बात, किसी गंभीर घटना, नीति, या वक्तव्य पर विचार नहीं किया जाता जो सामने आया है. इस के बदले उससे जुड़े व्यक्ति, देश या संस्थान को लगातार निंदा का पात्र बनाया जाता है। बस!
चौथी बात, किसी अनुचित स्थिति को बदलने में अपनी, यानी अपने पसंदीदा दल, नेता, संगठन, या अपने देश की भी कोई जिम्मेदारी नहीं मानी जाती है. केवल किसी न किसी की निंदा, कोसना और उल्टे-सीधे आरोप लगा देना अपने आप में संपूर्ण कर्तव्य माना लगता है. निन्दा करने वाले उस स्थिति (जैसे देसी भाषाओं और साहित्य की दुर्गति) को सुधारने के लिए उपाय करने, उस के लिए किसी की जिम्मेदारी देखने के प्रति लापरवाह रहते हैं. मानो वह बेकार बात हो! आग्रह करने पर, पुनः किसी न किसी स्थिति, व्यक्ति, पार्टी, या एजेंसी को दोष देकर पल्ला झाड़ लेते हैं.
जिस से यह समझ दिखती है कि समाधान तो सदैव ‘दूसरों’ पर निर्भर है. सो बुद्धिजीवी का काम बस निन्दा करना या आरोप लगाना है — चाहे वह बहुत पहले दिवंगत व्यक्ति ही क्यों न हो (जैसे थॉमस मेकॉले या जवाहरलाल नेहरू). यह प्रवृत्ति स्थानीय लेकर अंतरराष्ट्रीय मामलों तक, अतीत से लेकर वर्तमान तक एक जैसी रहती है. कहीं अपने संगठन, संप्रदाय, नेता, या अपने देश, सरकार, आदि का कर्तव्य कठघरे में नहीं रखा जाता. मानो कर्तव्य करना ‘दूसरों’ का, और फतवे फैसले देना ‘हमारा’ काम हो. अधिकांश लोग ऐसी भावना रखना ही सही मानते हैं.
भारत का बुद्धिजीवी वर्ग सुसंगतता की कमी से ग्रस्त है. अगर एक पार्टी का नेता कुछ कहता या करता है तो उसकी निंदा की जाती है, लेकिन दूसरी पार्टी का नेता वही या उससे भी बुरा करता है तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है या सही ठहरा दिया जाता है. यह दोहरापन नीतियों और गलतियों पर बार-बार अपनाया जाता है. जब एक पार्टी सत्ता में होती है तो हर नाकामी के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाता है, और अपेक्षा की जाती है कि वह सब कुछ ठीक करे. लेकिन जब दूसरी पार्टी सत्ता में होती है तो हर गलती समाज पर डाल दी जाती है और वही यह तर्क दिया जाता है कि ‘हर काम सरकार ही तो नहीं कर सकती’. ऐसा दोहरापन रखने में बुद्धिजीवियों को कोई विरोधाभास नहीं दिखता.
पांचवीं बात, किसी न किसी की भक्ति, चाहे वह कोई नेता, संगठन, मतवाद, या कोई पुस्तक ही क्यों न हो (जैसे गांधी का ‘हिन्द स्वराज’). अधिकांशत: विचारहीन भक्ति. किसी मूल्य, आदर्श, या सिद्धांत के आधार पर नहीं, बल्कि वह व्यक्ति, संगठन, निष्कर्ष, या पुस्तक ही अपने आप पूजनीय मान ली जाती है. उसे किसी कसौटी से परखने का सवाल ही नहीं उठता. बल्कि कसौटी और पैमाने को ही उस व्यक्ति, संगठन, निष्कर्ष, या पुस्तक के अनुकूल ढाल दिया जाता है.
यह भक्ति-भाव सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधार्थियों और लेखकों तक में आम मिलता है. ऊपर दिए गए गांधी वाले प्रसंग केवल उदाहरण हैं. वही रवैया अन्य नेताओं, संगठनों, मतवादों के समर्थकों का भी है. सत्य, प्रमाण, या सहज न्याय की भी परवाह नहीं की जाती. बस अपने पसंदीदा नेता या समूह की छवि बची रहनी चाहिए. भक्त-बुद्धिजीवी ऐसा करते हुए हर सिद्धांत को तोड़-मरोड़ देते हैं ताकि उनके नेता या पार्टी पर कोई आंच न आए.
इस को श्री अरबिंदो ने हिंदुओं में ‘चिन्तन-फोबिया’ कहा था. सोच-विचार से डरना. वही आज भी दिखता है. क्या इसीलिए कि अपनी बनी-बनाई, तय की हुई किसी नेता या सिद्धांत की प्रतिमा खंडित न हो जाए? तब इतने दशकों के पाले हुए विश्वास का क्या होगा? तब क्या मानना न होगा कि वैसी असंगत बातों या झूठे निष्कर्षों में इतना समय खराब किया गया? फिर आगे क्या करने को रह जाएगा?
फरियादी, वकील और जज
क्या यही डर अच्छे-अच्छे बौद्धिकों को वैचारिक जड़ता में बाँधे रखता है? जैसे पिंजड़े में लंबे समय से बन्द पक्षी, कभी आजाद कर दिये जाने पर भी दूर, स्वतंत्रता में उड़ जाने के बजाए, थोड़ी देर में फिर वापस आ पिंजड़े में घुस कर बैठ जाता है. उसे मालूम नहीं कि स्वतंत्रता का क्या करे!
आज भारत के अधिकांश बौद्धिक इसी अवस्था में मिलते हैं. जैसा लेखक निर्मल वर्मा ने कहा था: “वे विरोधी खेमे के लेखक से तो आसानी से अच्छे संबंध बना लेते हैं, लेकिन स्वतंत्र विचार वाले लेखक के साथ असहज महसूस करते हैं.” ऐसा क्यों है? शायद इसलिए कि वे उसी ‘चिंतन-फोबिया’ वाली बीमारी (सोचने से बचने) में सहज रहते हैं और इसलिए भी कि वे असुविधाजनक सचाइयों से, झूठ और सच को अलग करने की चुनौती से, और सब पर समान रूप से लागू होने वाली न्याय की कसौटी से भागते हैं.
इसीलिए वे न केवल गौतम बुद्ध, बल्कि एनी बेसेंट, श्रीअरबिन्दो, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बी.आर. अंबेडकर, सी. राजगोपालाचारी, और राम मनोहर लोहिया, जैसे विचारकों की बातों को भी अनदेखा कर देते हैं. राजगोपालाचारी और लोहिया तो गांधी के साथ काम भी कर चुके थे और उन्हें आज के बुद्धिजीवियों से कहीं ज़्यादा गहराई से समझते थे. पर भक्त-बुद्धिजीवी तो बस यही कहेगा —“मैं असहमत हूं.”
ये भक्त-बुद्धिजीवी एक साथ फरियादी, वकील और जज तीनों खुद ही बन जाते हैं. और हर केस का फैसला अपने ही पक्ष में कर देते हैं.
ऐसे बुद्धिजीवियों (जिन के पास योग्यता और साख भी है) की संख्या बहुत ज़्यादा है. उन्हें जो जानकारी है या जो मान्यताएं उन्होंने पकड़ ली हैं, उन्हें सालों-साल कभी कसौटी पर नहीं कसा जाता. वे अपनी वैचारिक आस्था या पार्टी-भक्ति को जैसे कोई निधि मानते हैं और उनकी सारी बुद्धि इस निधि की रक्षा करने में ही लगी रहती है — केवल उस के अनुकूल लोगों, तर्कों, उद्धरणों या संस्कृत के श्लोकों की खोज करते रहने में.
यही आज भारत की आम बौद्धिकता है. उस के रूप गाँधीवादी, नेहरूपंथी, वामपंथी, लोहियावादी, या संघी हो सकते हैं. परन्तु वह बीमारी, और उपर्युक्त पाँचों प्रवृत्तियां सब में कमोबेश मिलती हैं. बौद्धिकता के नाम पर जड़-भक्ति, और चिंतन-फोबिया.
(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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