उनमें से कई नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से असहज हैं और ज़ाहिर तौर पर वाजपेयी के जैसी ‘राइट विंग’ उदार विरासत की इच्छा रखते है.
लगभग सभी बुद्धिजीवियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि तथाकथित विपक्षी एकता एक ख्याली पुलाव है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की नेता मायावती ने पिछले हफ़्ते भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस दोनों को बढ़ते ईंधन की कीमतों को रोकने में नाकाम रहने पर ज़ोरदार हमला किया है.जिससे विपक्षी एकता सूचकांक (आईओयू) “के विचार को झटका लगा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि 10 सितंबर को भारत बंद के दौरान बसपा, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), समाजवादी पार्टी (एसपी) और वामपंथी शामिल नहीं हुए थे.
कुछ बुद्धजीवी-कॉलमनिस्ट राहुल गांधी को विपक्षी मोर्चा बनाने में नाकाम रहने के लिए दोषी ठहराते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी बहुत ही घमंडी, असंवेदनशील और जिद्दी है. इस स्थिति के लिए राहुल गाँधी ज़िम्मेदार है. कुछ ऐसे लोग हैं जो सामाजिक शर्तों में इस विफ़लता की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि यह अकल्पनीय है कि यादव और दलित एक साथ आ सकते हैं.
कुछ पंडित व्यक्तित्व शर्तों में विपक्षी दलों की बेजोड़ता को देखते हैं. उन्हें लगता है कि ममता बनर्जी, मायावती, एन चंद्रबाबू नायडू,और नवीन पटनायक और शरद पवार भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं. इसलिए, वे एक-दूसरे की महत्वाकांक्षा पूरी होने में अवरोधक है. कुछ अनुमान लगाते हैं कि त्रिशंकु संसद के मामले में प्रणब मुख़र्जी भी अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा सकते है.
क्या 1977 खुद को दोहराएगा?
ऐसे “आशावादी” लोग भी हैं जो बीजेपी में टूट होने की कल्पना करते हैं. वे अनुमान लगाते हैं कि पार्टी का टूटा हुआ समूह मिश्रित विपक्ष में शामिल होगा.ये बागी लोग, अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल के दोनों मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी से साहस प्राप्त कर रहे है,जिन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के ख़िलाफ़ रफाल सौदे, ग्रामीण संकट और तानाशाही पर राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया है.
उनका तर्क यह है सन 1977 में, इंदिरा गांधी के खिलाफ जगजीवन राम, नंदिनी सतपथी और एच.एन बहुगुणा के विद्रोह ने प्रभावकारी तरीके से कांग्रेस पर कब्ज़ा कर लिया था. जल्द ही बनी नयी जनता पार्टी और जयप्रकाश नारायण की लोकप्रियता भी आपातकालीन सत्ता को हटा नहीं सके! निःसंदेह, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेताओं ने चुनाव लड़ने के लिए वकालत भी नहीं की क्योंकि जनता गठबंधन के जीतने का कोई मौका ही नहीं था.
लेकिन इन बुद्धजीवियों के समूह का आज की राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन वैसा ही है जैसा इंदिरा गाँधी के समय था.लेकिन इन बुद्धिजीवियों का अपना अलग ही अंदाज़ है. और ये किसी भी संगठन या किसी पार्टी से संबंधित नहीं हैं, न ही इनके पास कोई विचारधारा है और न ही वे किसी भी व्यक्तिगत नेता के विचारों का अनुसरण करते हैं. परिभाषा के अनुसार ये बुद्धजीवी,व्यक्तिवादी है.
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इन बुद्धजीवियों को किसी बैनर या एक विचारधारा के तहत नहीं लाया जा सकता है. बुद्धिजीवियों की परिभाषित विशेषता यह है कि उनकी विचारधारा अत्यधिक मनमौजी होती है, अक्सर असंगत विचारों के साथ, भले ही उनके पास बचाव करने के लिए तथ्य न हों. “मुझे उन तथ्यों को न दें जो मेरी राय विकृत करते हैं” एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने माना जाता है ये बात कही थी.
किसी के लिए कोई प्यार नहीं भाजपा हो या कांग्रेस
नेहरू युग के दौरान भी अधिकांश बुद्धिजीवियों को कांग्रेस से घृणा करने के लिए जाना जाता था. उन्होंने सबसे ज़्यादा नफ़रत इंदिरा गाँधी से की. कुछ तकनीकी-बुद्धजीवी राजीव गांधी से जुड़े, लेकिन बाद में उन्हें भी छोड़ दिया. बुद्धजीवी -कॉलमनिस्ट गुट आमतौर पर कांग्रेस और विशेष रूप से राहुल को सलाह देता है. लेकिन यह सलाह भी बहुत संदेह और तिरस्कार के साथ आती है. उनमें से कुछ बुद्धजीवी उम्मीद करते हैं (और यहां तक कि चाहते भी हैं) कि कांग्रेस सम्मानजनक सीटें जीते. लेकिन राहुल को पसंद नहीं करते है. उनमें से कई को सोनिया गांधी के लिए सही विचार नहीं रखते है. हालांकि, उनमें से कुछ सोनिया को राहुल से ज़्यादा पसंद करते हैं.
बुद्धिजीवियों को जनसंघ और जो बाद में भाजपा बनी वो भी कभी पसंद नहीं थी. आरएसएस संगठनों को उनकी सोच के लिए पुरातनपंथी समझा जाता है. तथाकथित “राइट विंग” बुद्धिजीवियों की संख्या कम है , लेकिन वे भी ‘संघ’ के साथ नज़दीकियां पसंद नहीं करते है. स्वतंत्र पार्टी के पास सी.राजगोपालाचारी जैसे शीर्ष बौद्धिक संस्थापक थे, लेकिन यह सेवानिवृत्त आईसीएस और कुछ ‘बोहेमियन’ अभिजात वर्ग को छोड़कर,किसी अन्य को जोड़ने में असमर्थ रहे.
कम्युनिस्टों ने कुछ बुद्धिजीवियों को अपनी तरफ आकर्षित किया, लेकिन उनमें से कुछ उदारवादियों ने उनके सिद्धांतो, उनकी स्टालिनिस्ट सोच, कुछ लोगों ने उनके तथाकथित अनौपचारिक असभ्य व्यवहार से नफ़रत की.
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वे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टियों का हिस्सा नहीं थे.वे लोग इंदिरा काल के दौरान “वाम कांग्रेस” से जुड़े थे. उनके सलाहकार थे ब्रिटिश शिक्षा प्राप्त अभिजात वर्ग के लोग जैसे पी.एन.हक्सर और मोहन कुमारमंगलम. कई साथी जैसे रोमेश और राज थापर आपातकाल के बाद इंदिरा के विरोधी हो गए.
उदारवादी ‘वामपंथी’ बुद्धिजीवी
निश्चित रूप से एक बड़ा असमान,आत्मनिर्भर उदारवादी-वाम बौद्धिक वर्ग था जो राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के बीच आगे पीछे लगा रहता था. वे लोग समाजवादी, पर्यावरणविद, शिक्षाविद, गांधीवादी ,सर्वोदयी और भ्रष्टाचार विरोधी बन गए. उनमें से ज़्यादातर कांग्रेस, यहां तक कि नेहरू और निश्चित रूप से इंदिरा से नफ़रत के लिए जाने जाते थे.
ये मुक़्तलिफ़ “समाजवादी-लोहियाइट्स” जनता पार्टी को बनाने और तोड़ने वाले थे.
जनता पार्टी के विभाजन के बाद, उसके कई धड़े बने जैसे एसपी, एसजेपी, आरजेडी, जेडी (एस), जेडी (यू), और उसी शैली में आधा दर्जन अन्य पार्टियों जैसे विभिन्न “जनता संगठन” पैदा हुए थे. लेकिन अधिकांश उदारवादी जीवन में अच्छी तरह से आत्मनिर्भर थे, और निजी क्षेत्र (कॉर्पोरेट) कार्यकारी वर्ग को इन समांतर वामपंथी दलों के लिए कोई लगाव नहीं था.इन पार्टियों के सदस्यों का अक्सर “झोलावाला” के रूप में मज़ाक उड़ाया जाता था! कई लोग तर्क देंगे कि इनमें से कुछ “झोलावाला” बिना पेंदी के लोटे के जैसे थे वे लोग किसी भी तरफ जा सकते थे.
ध्यान देने योग्य बात यह है कि “बौद्धिक वर्ग” कोई भी कांग्रेस या बीजेपी को करीब महसूस नहीं करता है.
‘राइट विंग’ बुद्धजीवी
हालांकि कुछ वर्ष पहले,कोई भी “असली राइट विंग” बौद्धिक समुदाय नहीं था. इसलिए, “बौद्धिक” शब्द वामपंथी या मार्क्सवादी वामपंथी के साथ जुड़ गया. “बौद्धिक” लोग एक “उदार, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील” माने जाते है. ऐसा माना जाता था कि इस तरह की जगह किसी भी संघ से संबद्ध व्यक्ति के लिए बंद थी.
यह मनोवैज्ञानिक कारण हो सकता है कि संघ परिवार शायद “बुद्धिजीवियों” से नफ़रत करता है. खासकर वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष लोगों से! चूंकि “राइट विंग” बुद्धिजीवियों के लिए जगह खाली थी, कई मार्केट, अमेरिकी, उपभोक्तावादी, कॉर्पोरेट समर्थक व्यक्तिवादी भाजपा के पास चले गए. यद्यपि उन्होंने हिंदुत्व की सरहाना नहीं की. लेकिन उनके पास ‘संघ का साथी’ बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कांग्रेस के लिए उनकी नफ़रत, नेहरूवाद या वंश परंपरा के ख़िलाफ़ विचार और उनकी कल्याणवाद और सामाजिक सक्रियता ने उन्हें बीजेपी के करीब ला कर खड़ा कर दिया.
उनमें से कई नरेंद्र मोदी की शैली से असहज हैं, और वाजपेयी और उनके जैसे प्रतीत होते ‘राइट विंग’ उदार विरासत की लालसा रखते है. लेकिन वे जानते हैं कि मोदी वाजपेयी नहीं बन सकते हैं. वे अब बौद्धिक रूप से फंस गए हैं क्योंकि वे महागठबंधन या एक एकीकृत विपक्ष में शामिल नहीं हो सकते हैं.
वे निश्चित रूप से कांग्रेस के पास भी नहीं रहना चाहते हैं. वे मोदी से घृणा करते हैं लेकिन राहुल से ज्यादा घृणा करते हैं. वे नहीं चाहते है की गाय वध पर प्रतिबंध लगे, गोमांस पर रोक लगे, लिंचिंग या मंदिर आंदोलन पर प्रतिबंध लगे, लेकिन वे “कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के कारण” कभी -कभार इसका बचाव करते है.
विभिन्न वामपंथी और उदारवादी समुदाय भी कांग्रेस से नफ़रत करते हैं, लेकिन यह संघ परिवार को मध्यस्थ, प्रतिकूल, करीबी और गैर-आधुनिक के रूप में मानते है.इसलिए ,राजवंश को नापसंद करने के बावजूद इन लोगों ने कांग्रेस की तरफ झुकना शुरू कर दिया है.
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खोज जारी है
इसलिए, जैसी कोई महागठबंधन या नया यूपीए नहीं है, और न ही कोई एकजुट एनडीए है. नतीजतन, ‘राइट विंग’ बुद्धजीवियों की कोलाहल क़ायम है. दूसरी तरफ, वामपंथी बुद्धजीवी अब भी किसी एक पार्टी की खोज में है, और शायद एक उचित विचारधारात्मक स्थिति में है. वामपंथी उदारवादी यह स्वीकार ही नहीं करना चाहता कि वह उलझन में है.
यह बौद्धिक रूप से बंजर भूमि और वैचारिक रूप से खाली वातावरण है जहां बीजेपी बौद्धिक अनुमोदन की तलाश में है और कांग्रेस नयी सम्मानजनक स्थिति की पहचान की तलाश कर रही है!
कुमार केतकर पूर्व संपादक और राज्यसभा से कांग्रेस सदस्य हैं.
Read In English : Indian intellectuals hate Rahul Gandhi as much as they hate Narendra Modi