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Thursday, 21 November, 2024
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जाति, नस्ल, धर्म- भारतीय हॉकी के एकजुट रंगों ने साबित किया कि खेल की तरक्की सबको साथ लेकर चलने में है

ऐसी कोई भारतीय हॉकी टीम बनाना मुश्किल है जो हमारी विविधता, अनेकता में एकता को न प्रतिबिंबित करे और दूसरी टीमों से बेहतर हो. यह साबित करता है कि कोई खेल हो या कोई राष्ट्र, वह तभी तरक्की कर सकता है जब वह सबको साथ लेकर चले.

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जिस दिन भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलिंपिक्स के सेमी-फाइनल में अर्जेंटीना से हारी, उस दिन खबर आई कि वंदना कटारिया के घर के आस-पास दो लोगों ने ‘जश्न’ मनाते हुए और शर्मनाक हरकतें कीं. वंदना इस ओलिंपिक्स में हॉकी की सबसे घातक स्ट्राइकरों में शुमार मानी गई हैं. ओलिंपिक्स में भारतीय महिला हॉकी में हैट-ट्रिक गोल दागने वाली वे पहली खिलाड़ी हैं. यह हैट-ट्रिक उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ उस निर्णायक लीग मैच में लगाया, जिसे जीत कर टीम सेमी-फाइनल में पहुंची.

आखिर वह बदनुमा ‘जश्न’ क्यों मनाया गया? जश्न मनाने वाले ऊंची जाति के लोग थे, और वंदना दलित परिवार की हैं. स्थानीय मीडिया में इस तरह की खबरें भी आईं कि यह घिनौनी हरकत इसलिए की गई क्योंकि महिला हॉकी टीम में दलित खिलाड़ियों की संख्या ज्यादा है, आदि-आदि.

इसे बड़ी आसानी से एक राष्ट्रीय शर्म बताकर उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की जा सकती है. वैसे, बताया जाता है कि वंदना के भाई का कहना था कि पुलिस थाने के अधिकारियों ने उनकी शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया.

लेकिन मैं इस दुस्साहस से प्रेरणा लेते हुए एक खतरनाक सवाल उठाना चाहता हूं कि ऐसा हॉकी के मामले में ही क्यों किया गया जबकि दूसरे कई खेलों, खासकर क्रिकेट में भारतीय विविधता कहीं ज्यादा दिखती है? विविधता केवल जाति की नहीं, नस्ल, भूगोल, धर्म की भी. मैं इसे खतरनाक क्यों कह रहा हूं? एक तो इसलिए कि अपने विमर्शों और सोशल मीडिया पर बहस में उलझते ऊंची जाति के हम लोग ‘जाति’ जैसे उन ‘प्रतिगामी’ मसलों पर बात करने से नफरत करते हैं, जो भारत को ‘पीछे’ ले जाते हैं. जरा देखिए कि जब कोई व्यक्ति हमारी क्रिकेट टीम के पारंपरिक रूप से उच्च जाति वाले स्वरूप की बात करता है तब लोग किस तरह नाराज होते हैं.

प्रतिक्रिया इतनी तीखी होती है कि हममें से अधिकतर लोग इस सीधी-सी बात को कबूल करने से डरते हैं कि भारतीय क्रिकेट ने सबको साथ लेकर चलने के बाद तरक्की ही की है. या यह सवाल उठाइए कि अगर भारतीय क्रिकेट में क्रांति इसलिए आई क्योंकि फास्ट बॉलिंग में प्रतिभाओं का ऐसा विस्फोट हुआ कि आज हम टेस्ट मैच में चार-चार फास्ट बॉलर के साथ उतरते हैं और एक-दो और फास्ट बॉलर तो अपनी बारी का इंतजार कर रहे होते हैं, लेकिन ये प्रतिभाएं आईं कहां से? मुझे उन लोगों के लिए अफसोस होगा जिनका सवर्ण गौरव ऐसी बातों से अनावश्यक आहत होता हो; लेकिन भारतीय क्रिकेट जितना सर्व समावेशी हुआ उतना ही वह प्रतिभाशाली, आक्रामक, ऊर्जावान और सफल हुआ. सच्ची प्रतिभा को तरजीह देने का श्रेय क्रिकेट टीम और बीसीसीआई के नेतृत्व को दिया जाना चाहिए.


यह भी पढ़ें: ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का कांस्य किसी स्वर्ण से कम नहीं, यह एक सकारात्मक राष्ट्रवाद की पदचाप है


लेकिन हॉकी के साथ कोई बात है कि यह हमेशा से उपेक्षितों का खेल रहा है; अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, प्रताड़ित वर्गों और जातियों का. हम समाज विज्ञान की बात नहीं करते लेकिन इतिहास और तथ्यों का जिक्र तो कर ही सकते हैं. मुसलमानों, सिखों, एंग्लो इंडियनों, पूर्वी-मध्य भारत के मैदानी इलाकों के गरीब आदिवासियों, मणिपुरियों, कोड़ावों ने दशकों से हॉकी को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का माध्यम बनाया है. हमें मालूम है कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा कुछ और लोगों ने जब देश को यह याद दिलाने की कोशिश की कि कांस्य पदक जीतने वाली टीम में 11 में से आठ खिलाड़ी उनके प्रदेश के थे, तो उनकी कितनी आलोचना की गई. उन्होंने सिख का नाम नहीं लिया मगर हमें यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है.

हमने वादा किया है कि हम इतिहास और तथ्यों पर भरोसा करेंगे. इसलिए हम वर्ष 1928 में जाते हैं, जब भारतीय हॉकी ने ओलिंपिक्स में पहली बार एम्स्टर्डम में भाग लिया था. उस टीम में ध्यानचंद थे लेकिन उसके कप्तान के बारे में सरकारी रेकॉर्ड में सिर्फ जयपाल सिंह नाम दर्ज है. उनका पूरा नाम जयपाल सिंह मुंडा था. ऐतिहासिक दिग्गज बिरसा मुंडा का नाम आपको याद है? भारत को ओलिंपिक में पहला स्वर्ण पदक झारखंड के बेहद गरीब आदिवासी परिवार के एक बेटे की कप्तानी में मिला था. कहना मुश्किल है कि भारत में कोई और खेल इस तरह का दावा कर सकता है या नहीं.

यह उस समृद्ध परंपरा की शुरुआत थी जिसके तहत पूर्वी-मध्य क्षेत्र के आदिवासी भारत ने लगातार हॉकी प्रतिभाएं दी. और हम बता नहीं सकते कि क्या वजह थी कि वे सब रक्षापंक्ति के मजबूत खिलाड़ी (डिफ़ेंडर) ही निकले. आज की हॉकी टीमों में महिला टीम में दीप ग्रेस एक्का और सलीमा टेटे, और पुरुष टीम में बीरेंद्र लाकड़ा और अमित रोहिदास का नाम लिया जा सकता है. सलीमा (स्ट्राइकर, आउटसाइड राइट) को छोड़कर बाकी सब डिफ़ेंडर ही हैं. आप कहेंगे, आज के तीन डिफ़ेंडरों से ही परंपरा नहीं बनती. तो याद कीजिए हाल के दशकों के सबसे आक्रामक डिफ़ेंडरों, माइकल किंडू और दिलीप तिर्की को.

इस परंपरा को संस्थागत रूप दिया आदिवासी क्षेत्रों में बनी करिश्माई हॉकी अकादमियों ने— झारखंड के खूंटी में और ओड़ीशा के पास सुंदरगढ़ में. भारत को पहला ओलिंपिक गोल्ड दिलाने वाली टीम के कप्तान जयपाल सिंह मुंडा ने दूसरे भी महत्वपूर्ण काम किए. एक ब्रिटिश पादरी परिवार ने बचपन में ही उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया था. उन्हें पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड भेजा, पढ़ाई में वे खूब चमके लेकिन उन्होंने एक आईसीएस के रूप में ज़िंदगी गुजार देने की जगह खेल को अपनाया और भारत की सेवा करना पसंद किया. आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में वे हमारी संविधान सभा में शामिल थे. भारतीयों की पीढ़ियों को उनका आभारी होना चाहिए कि उनकी बदौलत ही आज वे सिंगल माल्ट या पसंदीदा स्पिरिट की कानूनी तौर पर चुस्की ले सकते हैं. उन्होंने हमें अनिवार्य देशव्यापी शराबबंदी से बचा लिया था. उन दिनों गांधीवादी माहौल की वजह से संविधान सभा का कुछ ऐसा ही इरादा दिख रहा था. लेकिन जयपाल सिंह मुंडा अड़ गए- पीना आदिवासियों की परंपरा है, उस पर आप रोक कैसे लगा सकते हैं?

बहरहाल, हॉकी की बात करें. पहली टीम में आठ खिलाड़ी एंग्लो-इंडियन थे, जिनमें गोलकीपर रिचर्ड एलेन भी थे जिनका जन्म नागपुर में हुआ था और पढ़ाई उन्होंने मसूरी के ओक ग्रूव तथा नैनीताल के सेंट जोसफ में की थी. उस पूरे टूर्नामेंट में उन्होंने भारत के खिलाफ एक भी गोल नहीं होने दिया. अगर मैं बीच-बीच में मूल विषय से हट जाता हूं तो इसकी वजह यह है कि मैं यह बतान चाहता हूं कि सिर्फ क्रिकेट नहीं बल्कि सभी खेलों का रंगबिरंगा इतिहास रहा है, अपनी किंवदंतियां रही हैं, अपने नायक रहे हैं.

उस हॉकी टीम में बाकी तीन खिलाड़ी मुस्लिम, एक सिख, युवा ध्यानचंद और बेशक झारखंड के एक आदिवासी थे, जो कप्तान थे. बाद की ओलिंपिक हॉकी टीमों में मुसलमान और सिख खिलाड़ियों की संख्या बढ़ती गई. यही वजह है कि देश के बंटवारे ने भारतीय हॉकी को भारी झटका पहुंचाया. कई हॉकी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं, और भारत को 1960 के रोम ओलिंपिक में स्वर्ण पदक से वंचित होना पड़ा.

चूंकि बंटवारे की याद ताजा थी, पाकिस्तान हमारा नया मुख्य प्रतिद्वंद्वी था और उसके साथ युद्ध भी हो चुके थे, इसलिए 1970 के दशक तक भारतीय टीम में कम ही मुसलमान दिखते थे. भोपाल के एक स्ट्राकर इनामुर रहमान का बदनुमा उदाहरण लिया जा सकता है जिन्हें मेक्सिको ओलिंपिक (1968) के लिए गई टीम में शामिल तो किया गया मगर उन पर भरोसा नहीं किया गया, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ मैच में.

लेकिन बाद में कई मुस्लिम खिलाड़ी सितारा बनकर उभरे. उनमें से मोहम्मद शाहिद और जफर इकबाल तो टीम के कप्तान ही बने. लेकिन रास्ता खोलने वाले तो असलम शेर खान ही साबित हुए. भारतीय टीम विश्व कप केवल 1975 में जीत पाई, जो क्वालालंपुर में हुआ था. उसमें मलेशिया के खिलाफ सेमी-फाइनल मैच में अंतिम सीटी बजने के लिए सिर्फ एक मिनट रह गया था, भारत एक गोल से पीछे था. उसे कई पेनल्टी कॉर्नर मिले मगर सुरजीत सिंह और माइकल किंडू अपनी भारी स्टिक के बावजूद गोल नहीं कर पा रहे थे. 70 मिनट के खेल में 65वें मिनट में भारत को एक पेनल्टी कॉर्नर मिला. यही अंतिम उम्मीद थी. कोच बलबीर सिंह (1948, ’52, ’56 में ओलिंपिक गोल्ड जीत चुके) ने मैदान के बाहर बैठे असलम को करो या मरो शॉट के लिए बुलाया. अगर आपको उस मैच के फुटेज मिलें तो आप देखेंगे कि युवा असलम किस तरह मैदान पर आते हैं, अपने गले से लटकी तावीज़ को चूमते हैं और मैच बराबर करने वाला गोल दाग देते हैं. मैच के लिए अतिरिक्त समय दिया जाता है और स्ट्राइकर हरचरण सिंह का गोल मैच का फैसला कर देता है. बाद में असलम राजनीति में कूदे और सांसद बने. बंटवारे के बाद उन्होंने ही भारतीय हॉकी के दरवाजे मुसलमानों के लिए खोले.

आप चाहें तो गूगल पर सर्च कर सकते हैं कि 1975 की उस विश्व कप विजय के बाद के दशकों में भारतीय टीमों
में कौन-कौन शामिल थे. आप पाएंगे कि यह प्रवृत्ति और मजबूत ही हुई. पुरुष टीम हो या महिला टीम, हर
भारतीय टीम भारत की विविधता को पूरे शान से प्रदर्शित करती रही है. मणिपुर का माइती समुदाय सिर्फ 10
लाख की आबादी का है. टोक्यो ओलिंपिक में इस समुदाय से पुरुष टीम में नीलकांत शर्मा थे, तो महिला टीम में
सुशीला चानू थीं. निकट अतीत की बात करें तो आप तोइबा सिंह, कोथाजित, चिंगलेनसाना और नीलकमल
सिंह को याद कर सकते हैं. क्या आपने उत्तर-पूर्व के किसी खिलाड़ी को भारतीय क्रिकेट टीम में अभी तक जगह
पाते देखा है?

अब मुझसे यह सवाल मत पूछिए कि सौ साल से हॉकी उपेक्षितों का खेल आखिर क्यों बना हुआ है? मैं केवल इस वास्तविकता को सामने रखते हुए आपको याद दिला सकता हूं कि सबको ज्यादा से ज्यादा शामिल करके ही भारतीय क्रिकेट अपने उत्कर्ष पर पहुंचा है. अब इसके साथ, जाति और योग्यता को लेकर बेमानी बहस खत्म होनी चाहिए. मुझे पता है कि मैं किस चीज को तूल दे रहा हूं. लेकिन यह ऊंची जातियों के खिलाफ नहीं है. उनमें प्रतिभा है, लेकिन राष्ट्र तभी तरक्की करेगा जब वह सभी प्रतिभाओं को आगे लाएगा, चाहे वह समाज के किसी भी तबके में क्यों न हो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

भूल सुधार: इस लेख में असलम शेर खान को लेकर गलत सूचना चली गई थी..गलती सुधार दी गई है. 


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