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Sunday, 16 June, 2024
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हिंदी VS अंग्रेज़ी क्लास सिस्टम के दो पाटों में फंसी है भारतीय शिक्षा, इसे राहुल ही पार लगा सकते हैं

नेहरू से लेकर अमित शाह तक, भारतीय नेतागण हमेशा से अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के प्रति पाखंडी व्यवहार वाले रहे हैं. कांग्रेस को अब अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा के तौर पर मनवाने के लिए मेहनत करनी होगी.

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भारत जोड़ो यात्रा के राजस्थान पड़ाव के दौरान अलवर में एक रैली को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा, ‘भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता नहीं चाहते कि स्कूलों में अंग्रेज़ी पढ़ाई जाए, लेकिन उनके खुद के बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम के स्कूलों में जाते हैं. दरअसल, वे चाहते ही नहीं हैं कि गरीब किसानों और मजदूरों के बच्चे अंग्रेज़ी सीखें, बड़े सपने देखें और खेतों से बाहर निकल जाएं.’ पूरे दक्षिण भारत का दौरा करने के बाद, जहां आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी ने साल 2019 में ही सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी मीडियम की शिक्षा शुरू की थी और अब तेलंगाना ने भी इसी नीति का पालन शुरू किया हैं, राहुल अब इसके बारे में बोलने के लिए उत्तर भारत पहुंच चुके हैं.

पहली बार किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह द्वारा स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक हिंदी को बढ़ावा देने की नीति के खिलाफ स्पष्ट रुख अपनाया है. हिंदी को दिया जा रहा यह बढ़ावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के ‘वन नेशन, वन लैंग्वेज’ एजेंडे का एक हिस्सा है, जो अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को निजी संस्थानों तक छोड़ देना चाहता है. मुंबई के धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल, हरियाणा के अशोका विश्वविद्यालय, या नोएडा के एमिटी विश्वविद्यालय जैसे कॉलेज तो अमीरों के लिए हमेशा उपलब्ध होंगे, लेकिन भारत के गांवों में रहने वाले खेतिहर और कारीगर समुदायों को स्थानीय भाषाओं को सीखने के लिए मजबूर किया जाएगा और उन्हें कोई ग्लोबल एक्सपोजर (वैश्विक अनुभव) नहीं मिलेगा.

राहुल गांधी द्वारा भारत के गरीबों को भी अंग्रेज़ी मीडियम से शिक्षा प्रदान करने के लिए किया गया आह्वान भाषा की राजनीति और सभी के लिए शिक्षा की समानता पर एक राष्ट्रीय बहस पैदा करेगा. यह कहकर कि यह ‘कांग्रेस की नीति’ है, उन्होंने आरएसएस-भाजपा और कम्युनिस्ट दलों के शीर्ष नेताओं को चौंका दिया है. जितने भी राज्यों में बीजेपी अब तक सत्ता में आई हो, वहां इसने सभी के लिए समान, अंग्रेज़ी मीडियम की शिक्षा देने से गुरेज़ किया है. कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं किया और केरल में भी नहीं कर रहे हैं. आरएसएस और बीजेपी अब मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चिकित्सा और इंजीनियरिंग सहित सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों, स्कूलों और कॉलेजों को हिंदी माध्यम के संस्थानों में बदलने की कोशिश कर रहे हैं. इस कदम के मूल में एक स्पष्ट दिशा है – ‘सभी गरीबों के लिए सिर्फ हिंदी’.


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75 साल पुराना पाखंड

राहुल गांधी अब नेहरूवादी दिनों में अपनाई गई निजी क्षेत्र के लिए अंग्रेज़ी मीडियम और सार्वजनिक क्षेत्र में क्षेत्रीय भाषा की शिक्षा नीति को बदलने के लिए पूरी तरह तैयार दिख रहे हैं. नए- नए आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में, नेहरू ‘राष्ट्र भाषा की बहस; के तौर पर ‘अंग्रेजी बनाम हिंदी’ को लेकर बहुत भ्रमित थे.

बाबासाहेब बी.आर. आंबेडकर सभी सरकारी संस्थानों में इंग्लिश मीडियम के साथ शिक्षा देने के पक्ष में थे, लेकिन उनका वह प्रस्ताव संसद में प्रथम भारतीय राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा डाले गए एक मत से पराजित हो गया. लेकिन, साथ ही उस समय के तमाम बड़े नेताओं – एम.के. गांधी, नेहरू, प्रसाद – के बच्चे-बच्चियां और पोते-पोतियां निजी अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में ही पढ़े. आगे चलकर यही प्रवृत्ति आरएसएस, भारतीय जनसंघ, भाजपा और कम्युनिस्ट दलों के नेताओं द्वारा अपनाई गई. इस पाखंड ने देश की उत्पादक जनता के बच्चों को खराब क्षेत्रीय भाषा शिक्षा के साथ आधुनिक गुलामी जैसी स्थिति में रखा. इसे केवल साल 2019 में जाकर जगन मोहन रेड्डी ने ही चुनौती दी.

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क्षेत्रीय नेताओं को जरूर आगे आना चाहिए

अब, राहुल गांधी द्वारा अंग्रेजी समर्थक रुख अख्तियार करने के साथ ही कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को अपनी सभी राज्य इकाइयों को साल 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु पार्टी के घोषणापत्र में एक नई शिक्षा नीति शामिल करने के तौर-तरीकों पर काम करने का निर्देश देना होगा.

हिंदी पट्टी के क्षेत्रीय दलों को हिंदी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय के बच्चों के भविष्य के बारे में गंभीरता से सोचना होगा. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बिहार में नीतीश कुमार एवं तेजस्वी यादव को अपनी शिक्षा नीति के साथ आगे आना होगा, खासकर सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा के बारे में. इनमें से कई सारे क्षेत्रीय नेता भी हिंदी अंधराष्ट्रवादी हैं; उनके बच्चों को निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेजा जाता है. वे गुणवत्तापूर्ण अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों और कॉलेजों पर खर्च करने वाले राज्य के बजट की पर्याप्त राशि का प्रावधान नहीं करते हैं. वे सभी ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को या तो निरक्षर या क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ते हुए कम शिक्षित रखना पसंद करते हैं. कम-से- कम कहने के लिए तो यह एक गैर-संवैधानिक शिक्षा प्रणाली जैसी ही है क्योंकि यह गरीबों को ऐसी क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित करती है जो वास्तविक जीवन में बहुत कम उपयोग में आती हैं. संवैधानिक समानता को अनिवार्य रूप से शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में समान अवसर प्रदान करना चाहिए.

राजनीतिक दलों के अलावा, भारत में कई गैर-सरकारी संगठन हैं जो ऐसा ही ढोंग ओढ़े रखना पसंद करते हैं – अपने खुद के बच्चों को तो निजी माध्यम के अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षित करते हैं, लेकिन क्षेत्रीय भाषा की शिक्षा को बढ़ावा दिए जाने पर चुप रहते हैं. जब तक राजनीतिक और नागरिक समाज के सभी वर्ग इस बात पर जोर नहीं देते है कि वर्ग, जाति या क्षेत्र की परवाह किए बिना सभी बच्चों को दूसरी क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में शिक्षा का अधिकार होना चाहिए, तब तक भारत समानता हासिल नहीं कर सकता है. जब तक सभी लोग एक ही भाषा नहीं बोलते, वे दूसरे क्षेत्रों के लोगों के साथ संवाद नहीं कर पाएंगे. वे दुनिया के बाकी लोगों से भी बात नहीं कर पाएंगे.


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भाषाई विभाजन को समाप्त करें

अपने लिए तमाम अवसरों की तलाश करना हर बच्चे का अधिकार है. अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को एक नई भारतीय ‘वर्ग व्यवस्था’ का निर्माण नहीं करना चाहिए, जहां अमीरों की ज्ञान संरचनाओं तक पहुंच हो और गरीब हाशिए पर ही रहें. इतने वर्षों के दौरान भारतीय शिक्षा प्रणाली ने भाषा की राजनीति के आधार पर निर्मित एक वर्ग व्यवस्था तैयार की है. अब इसे समाप्त किया जाना चाहिए. सामाजिक-आर्थिक ‘क्लास सिस्टम’ को खत्म करने के लिए लोगों को एकजुट करने वाले वाम दलों के नेताओं को इतने साल शैक्षिक समानता पर चुप रहने के बजाय इस मुद्दे को उठाना चाहिए.

आरएसएस-भाजपा के नेता तब राहुल गांधी का मुकाबला नहीं कर सके जब उन्होंने उनके द्वारा अपने बच्चों को अंग्रेजी में निजी शिक्षा दिलाने की बात की है.

अपनी पदयात्रा के दौरान बच्चों के साथ बांहों में बांहों डाले और बढ़ी हुई दाढ़ी-मूंछ के साथ राहुल संत कम नज़र आते हैं, बल्कि देश की जमीनी हकीकत से फिर से जुड़ते हुए भारत के एक गरीब व्यक्ति ज्यादा लगते हैं. वह अब शिक्षा में समानता फैलाने, शांति स्थापित करने और एक आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र में जीवन को एकीकृत करने के लिए तैयार है. बिना किसी हीन भावना के एक दूसरे से संवाद करने के लिए एक सामान्य भाषा का होना इसकी पहली आवश्यकता है. हर कोई आशा कर सकता है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ भारत द्वारा अंग्रेजी को अपनी राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने और भविष्य में इसे हर बच्चे के लिए सुलभ बनाने के लिए प्रोत्साहित करेगी.

कांचा इलैया शेफर्ड एक राजनीतिक सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं. वह पिछले तीस वर्षों से भारत के ग्रामीण और शहरी इलाके के सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा दिए जाने हेतु अभियान चला रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(अनुवादः रामलाल खन्ना | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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