भारत में इस बात पर शायद ही कोई विश्वास करेगा कि चीन वायरस से ग्रस्त अपने वुहान शहर में कुल 2300 बिस्तरों वाले दो अस्पताल दस से भी कम दिन में बना डालेगा. यह कैसे मुमकिन है भला? जवाब यह है कि एक अस्पताल तो पहले से ही बनाया जा रहा है और उसे मई में खोला जाना था. उसे अब पहले खोलने का फैसला 48 घंटे के भीतर कर लिया गया. दूसरा अस्पताल उस अस्पताल की नकल होगा, जिसे बीजिंग में 2003 में ‘सारस’ वायरस की महामारी फैलने पर एक सप्ताह के अंदर बना दिया गया था. फिर भी सवाल तो कायम हैं.
क्या भूमि अधिग्रहण में कोई समस्या नहीं हुई? नहीं हुई क्योंकि अस्पताल सार्वजनिक मनोरंजन के एक स्थल के बगल के बाग की जमीन पर बनाया गया. निर्माण कार्यों, इलाज के उपकरणों आदि के लिए बोली नहीं लगवाई गई? और सबसे कम बोली वाले का चयन करने के लिए कमेटी नहीं बनाई गई? जाहिर है, यह सब नहीं हुआ क्योंकि सरकारी कंपनियां अपना काम करती रही हैं और ऐसी कौन-सी निर्माण तकनीक है जो देखते-देखते ही नई इमारत खड़ी कर देती है? बेशक, पूर्व-निर्मित (प्री-फैब) ढांचों का कमाल है यह बहरहाल, ये अस्पताल दुनिया भर में चर्चा में हैं.
इसलिए, बेहतर होगा कि अगले आर्थिक सर्वे में अर्थनीति से जुड़े न केवल ‘क्या’ और ‘क्यों’ वाले सवालों के जवाब ढूढें जाएं. बल्कि ‘कैसे’ वाले सवाल पर भी विचार हो. असंभव को संभव बनाने के नारे लगाने से ज्यादा इसे वास्तविकता बनाने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है.
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भारत बजट और प्रक्रियाओं में उलझा रहता है और फिर भ्रष्टाचार एक ऐसी बड़ी समस्या है, जो किसी भी परियोजना को पटरी से उतार सकती है. चीन में भी भ्रष्टाचार की समस्या है. लेकिन 10,000 डॉलर की प्रति व्यक्ति वाली कोई भी दूसरी अर्थव्यवस्था 6 प्रतिशत या इसके आसपास की वृद्धि दर हासिल नहीं कर पा रही है.
आखिर वे ऐसा कैसे हासिल कर पा रहे हैं, जबकि केजरीवाल सरकार 1000 मुहल्ला क्लीनिक बनाने का वादा करके केवल 450 क्लीनिक ही दे पाते हैं? रेलवे की ताज़ा इयरबुक कहती है कि रेलवे 1.2 लाख करोड़ रुपये के निवेश बजट में से पिछले लगातार दो साल केवल दो तिहाई भाग ही खर्च हो पाया. इस तरह की विफलता इन प्रारम्भिक सिद्धांतों पर आर्थिक सर्वे की बहस को लेकर निराशा पैदा करती है कि वृद्धि और रोजगार के लिए निर्यातों की अहमियत है कि बाज़ार में सरकार के दखल से लाभ की जगह नुकसान ही ज्यादा होता है कि निजीकरण से संपदा बढ़ती है. इस तरह के सबक निश्चित ही हमें बहुत पहले सीख लेने थे.
बहानों की तो कोई कमी नहीं है. चीन में निरंकुश सत्ता व्यवस्था है, जहां आप भूमि अधिग्रहण या ठेकेदार के चयन के खिलाफ अदालत में नहीं जा सकते, जहां फैसले ऊपर से लेने का चलन है और यह तमाम अड़ंगों को पार करने में मददगार है; जहां पैसे को लेकर कभी अड़चन नहीं आती. फिर भी आप यह जान कर अचंभे में पड़ जाएंगे कि शांघाई में एक ऐसा बंदरगाह बन रहा है जहां भारत का पूरा नौसैनिक ‘डेस्ट्रोयर’ बेड़ा, विमानवाही पोत, होवरक्राफ्ट, उपग्रह टोही पोत, सब एक साथ समा जा सकते हैं और हमारी नौसेना खुद को भाग्यशाली ही मानेगी कि उसे 20 साल में छह अत्याधुनिक पनडुब्बियां मिली हैं.
क्या कोई रास्ता है? है, मेट्रो निर्माता ई श्रीधरन सरीखे रेलवे इंजीनियर, सरकारी कंपनियों के डीवी कपूर और वी कृष्णमूर्ति सरीखे निर्माता, एमएस स्वामीनाथन सरीखे कृषि वैज्ञानिक दिखा चुके हैं कि जब उन्हें आज़ाद होकर काम करने दिया गया तो उन लोगों ने क्या करिश्मा कर दिखाया. गैस ऑथरिटी ऑफ इंडिया के प्रमुख के नाते विनीत नायर ने तय लागत और समयसीमा के अंदर 1980 के दशक में गैस की व्यापक पाइपलाइन बिछाने का काम कर डाला था. स्वच्छ भारत और आयुष्मान भारत के प्रभारी अधिकारियों या इंदौर शहर की सफाई करने वाले अधिकारी सरीखे दूसरे अधिकारियों ने चीन वाली गति से भले काम न किया हो लेकिन वे काम करके दिखा रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि हम ऐसे और लोगों को खोज कर उन्हें काम करने की आज़ादी दें.
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भारत में सलाहों और सुझावों का कभी संकट रहा नहीं है. सर्वे में शायद ठीक ही कहा गया है कि भारत में वृद्धि दर के आंकड़े को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं रखा गया है. जैसा कि आलोचकों का आरोप रहा है और यह कि अगले साल वृद्धि दर 6-6.5 प्रतिशत रह सकती है (हालांकि दूसरे जानकारों का भी यही अनुमान है). लेकिन यह मान लेना गलत होगा कि मोदी सरकार अपने पक्ष में मिले भारी जनादेश के बाद कुछ गंभीर सुधारों की पहल करेगी. क्योंकि, जब तक वित्त मंत्री हर किसी को हैरत में नहीं डालतीं, यह निश्चित है कि सरकार की प्राथमिकताएं अलग हैं, जो ताकतवर गृह मंत्री के दायरे में कैद हैं.
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