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Sunday, 22 December, 2024
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भारतीय कोऑपरेटिव को Cooperation Ministry से ज्यादा अमूल मॉडल की जरूरत है

भारत के सहकारी क्षेत्र का सबसे चमकता हुआ सितारा है गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड (जीसीएमएमएफ). 1973 में इसकी स्थापना के बाद से, ये एक पेशेवर रूप से प्रबंधित को-ऑपरेटिव बनी हुई है, जो एक निर्वाचित बोर्ड के मार्गदर्शन में काम करती है.

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नरेंद्र मोदी सरकार ने एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन किया है, जिसका लक्ष्य सहकारी समितियों के लिए कारोबार को आसान करना और बहु-राज्य सहकारी समितियों को अधिक प्रभावी बनाना है. एमएससीएस बड़ी सहकारी समितियां होती हैं, इसलिए वो कई राज्यों में काम करने की महत्वाकांक्षा रखती हैं. लेकिन पहले सहकारी समितियों की विफलताओं के मूल कारण को समझना ज़रूरी है. वास्तविकता ये है कि सभी राज्यों में सहकारी समितियों का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है, सिवाय कुछ अपवादों के, जैसे गुजरात में डेयरी और महाराष्ट्र में चीनी से जुड़ी सहकारी समितियां.

अगर इन नाकामियों के कारणों में जाने की कोशिश की जाए, तो सहकारिता मंत्रालय का अभाव उसके प्रमुख कारणों में से एक नहीं होगा. इसके विपरीत, बहुत सी सहकारी समितियां नौकरशाही प्रबंधन और पुराने नियामक ढांचे की वजह से मजबूरन फेल हुई हैं.

वास्तविक समस्या

भारत के सहकारी क्षेत्र का सबसे चमकता हुआ सितारा है गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड (जीसीएमएमएफ). 1973 में इसकी स्थापना के बाद से, ये एक पेशेवर रूप से प्रबंधित को-ऑपरेटिव बनी हुई है, जो एक निर्वाचित बोर्ड के मार्गदर्शन में काम करती है. प्राथमिक स्तर पर 36 लाख सदस्यों और 5 अरब डॉलर से अधिक के कारोबार के साथ, इसकी अपनी एक अलग ही हैसियत है. गांव के स्तर पर डेयरी सहकारी समितियां (डीसीएस) इसकी मूल शक्ति है. ऐसी 18,600 समितियां अपने साथ जुड़े किसान सदस्यों से, हर रोज़ 3.5 करोड़ लीटर दूध की ख़रीद करती हैं. 18 ज़िला सहकारी संघ प्रोसेसिंग और मैन्युफैक्चरिंग का काम करते हैं और जीसीएमएमएफ सभी उत्पादों को प्रतिष्ठित ब्रांड ‘अमुल’ के नाम से बेंचती है.

ये तीन-स्तरीय ढांचा, जिसे ‘अमुल मॉडल’ कहा जाता है, एक अनोखा सिस्टम है. गुजरात के साबरकांथा ज़िले के किसी गांव के किसान को, जिसके पास मात्र दो गायें हो सकती हैं, अपने दूध को दिल्ली या कोलकाता के बाज़ार में बेंचने का मौका मिल जाता है. तीन-स्तरीय ढांचे के बिना ये संभव न हो पाता.


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ये ढांचा आवश्यक है लेकिन सफलता की पर्याप्त गारंटी नहीं देता. सफलता पाने के लिए सहकारी समितियों को समर्पित पेशेवरों की ज़रूरत होती है. मामलों के शीर्ष पर उन्हें किसानों के एक कर्मचारी ज़रूरत होती है, न कि किसी नौकरशाह की जो संयोग से इस पद पर आ जाता है, और उत्सुकता से अगली मलाईदार तैनाती का इंतज़र कर रहा होता है. दम घोंटने वाले सहकारिता क़ानून और शीर्ष पर बैठे भावनात्मक रूप से न जुड़े हुए नौकरशाह के बीच का यही अपवित्र मेल, सरकार द्वारा संचालित सभी को-ऑपरेटिव्ज़ के दुखों का कारण है. क्योंकि वास्तविक दुनिया में को-ऑपरेटिव की सफलता या विफलता, शीर्ष पर बैठे असंबद्ध नौकरशाह के करियर पर असर नहीं डालती; लेकिन एक पेशेवर के लिए उससे फर्क पड़ता है.

सहकारी समितियों को राज्य के क़ानूनों के चंगुल से ‘राहत’ पहुंचाने के लिए, बहुराज्य सहकारी सोसाइटी अधिनियम 2002 को प्रभाव में लाया गया. लेकिन, जल्द ही सबकी समझ में आ गया कि बहुराज्य सहकारी सोसाइटी अधिनियम कोई रामबाण नहीं है. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार नया सहकारिता मंत्रालय इसलिए लाई है, कि अपने निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में एमएससीएस एक्ट की विफलता से निपटा जा सके.

किसानों और पेशेवर लोगों की सहकारी समितियां

बुनियादी बदलाव किए बिना एक नया सहकारिता मंत्रालय उन समस्याओं का इलाज नहीं कर सकता, जिनसे भारत की सहकारी समितियां ग्रसित हैं. सहकारी समितियों को समर्पित पेशेवर प्रबंधक चाहिएं, जो ग़रीबों के लिए बड़ा कारोबार स्थापित करने में रूचि रखते हों. को-ऑपरेटिव्ज़ को सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के चंगुल से आज़ाद किया जाना चाहिए, और उन्हें चलाने के लिए शीर्ष पर पेशेवर प्रबंधक होने चाहिएं. जीसीएमएमएफ की एक सबसे उल्लेखनीय विशेषता ये रही है, कि स्थापना के समय से ही इसकी बागडोर हमेशा पेशेवर लोगों के हाथ में रही है. संयोग से, ये ‘श्वेत क्रांति’ के जनक और जीसीएमएमएफ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ वर्घीज़ कुरियन का जन्म शताब्दी वर्ष है. कुरियन एक पेशेवर थे जो निरंतर उन तमाम नौकरशाही और क़ानूनी बाधाओं से लड़ते रहे, जो अमुल को उस मंज़िल तक पहुंचने से रोकने के लिए खड़ी की गईं जहां वो आज है. सहकारी समितियों को नौकरशाही के चंगुल से आज़ाद करने की कुरियन की लड़ाई आज भी प्रासंगिक है. को-ऑपरेटिव्ज़ की कामयाबी का उनका मंत्र ये था, कि उन्होंने पेशेवरों की तकनीकी और प्रबंधकीय विशेषज्ञता को, किसानों की मेहनत और समझदारी के साथ मिला दिया.

हम अपेक्षा करते हैं कि सहकारिता मंत्रालय उन मूल समस्याओं पर ध्यान देगा जिनसे सहकारी समितियां ग्रसित हैं. मंत्रालय को एक ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जहां सहकारी समितियां सदस्य-केंद्रित और लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित संगठन बन जाएं, जिनका प्रबंधन पेशेवर लोगों के हाथ में हो. फिलहाल, अधिकतर राज्यों में सहकारी समितियों का सर्वशक्तिमान रजिस्ट्रार, समितियों के संचालन के लिए होने वाली नियुक्तियों के काम में शामिल हो जाता है. कंपनियों के रजिस्ट्रार की तरह सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार को भी, समितियों के सूक्ष्म-प्रबंधन से अलग रहना चाहिए. हमें उम्मीद है कि मंत्रालय सहकारी समितियों के विकास में एक नए दौर की शुरूआत करेगा.

सास्वता नारायण बिस्वास @saswata63 इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट में प्रोफेसर, और इंद्रनील डे @IndranilIndia एसोशिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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