ऋग्वेद एवं अन्य वेदों में ‘सनत धर्म’ और ‘प्रथम धर्म’ शब्दों का प्रयोग है. सत्य, ऋत, धर्म और यज्ञ को प्रथम धर्म कहा गया है. जिन नियमों से समस्त ब्रह्मांड गतिशील हैं, उन्हें ही सनातन धर्म कहते हैं. मनुष्यों का धर्म उसी का एक अंग है. मनुष्यों द्वारा पालनीय धर्म को मानव धर्म कहते हैं. मानव-धर्म-शास्त्र में मानव मात्र के धर्म के लक्षण गिनाए गए हैं.
इसलिए सनातनधर्म के शास्त्रों में मानव धर्म के बारे में लिखते समय मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं किया है. वे किन्हीं आस्थाओं वाले मनुष्यों को अन्य आस्थाओं वाले मनुष्यों से भिन्न होने का तथ्य तो जानते हैं. परन्तु इस आधार पर दो आस्था पद्धतियों में से एक को श्रेष्ठ और दूसरी को निकृष्ट या एक को सच्ची और दूसरी को झूठी नहीं मानते.
सच और झूठ का निर्णय सबके लिये सर्वमान्य कसौटियों के आधार पर ही होता है, आस्था के आधार पर नहीं. इस प्रकार सभी मनुष्यों के लिये सामान्य धर्म एक ही है. मनु के अनुसार वे हैं- धृति, क्षमा, दम (अर्थात् मन पर संयम), अस्तेय, बाहरी और भीतरी पवित्रता, इन्द्रियसंयम, धी (बुद्धि) की निरंतर साधना, विद्या (परा एवं अपरा दोनों प्रकार की विद्या), सत्य और अक्रोध.
ये सार्वभौम मानव मूल्य हैं. इन्हें मानवधर्म और मनुष्यमात्र का सामान्यधर्म, सामासिक धर्म तथा सार्ववर्णिक धर्म भी कहा जाता है अर्थात यह केवल हिन्दुओं के लिये नहीं है, अपितु समस्त मनुष्यों के द्वारा पालनीय यह सार्वभौम मूल्य है.
वे सभी भारतीय सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान हैं, जो सार्वभौम नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान हैं. इस अर्थ में भारत के संविधान में नागरिकों के जो मौलिक कर्तव्य संविधान के अनुच्छेद 51(क) में वर्णित हैं, जिनमें बंधुता और सभी भारतीयों के प्रति समान भाईचारा (कॉमन ब्रदरहुड) की भावना तथा समरसता की भावना रखना मूल कर्तव्य का अंग है, वे इस संविधान के प्रति निष्ठा रखने वाले और मूल कर्तव्य का पालन करने वाले सभी भारतीय सनातन धर्म के अनुयायी कहे जा सकते हैं.
परन्तु यदि कोई भारतीय व्यक्ति अन्य भारतीयों को भय या प्रलोभन या दबाव से अथवा बहला-फुसलाकर उसे किसी मजहब या रिलीजन विशेष में इस भाव के साथ लाये कि उसका अपना मूल धर्म गलत है और घटिया है तथा अब अमुक मजहब या अमुक रिलीजन को अपनाने में ही उसका कल्याण है और इस प्रकार ‘कॉमन ब्रदरहुड’ की भावना को स्पष्ट रूप से जो खंडित करे, अन्य समुदायों को अपने समान सम्मानित और सम्मान योग्य व्यक्तियों का समूह नहीं माने, ऐसे भारतीय को सनातन धर्म का अनुयायी कदापि नहीं कहा जा सकता.
सामान्य धर्माें का पालन विश्व के सभी मानवों के लिए करणीय है, कर्तव्य है. इसीलिए इन्हें सामयिक धर्म कहते हैं. इसके बाद, समान्य धर्माें के अनुरूप विभिन्न देशों, जनपदों, कुलों के लोग अपनी वृत्ति, जीविका, कार्यक्षेत्र, लक्ष्य और अनुशासन के अनुरूप अपना स्वधर्म निश्चित करते हैं. उसे ही जानपद धर्म, कुलधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, श्रेणी धर्म आदि कहा जाता है. समस्त समाज अपनी मर्यादा में रहे, यह देखना राज्य का काम है. उसे ही राजधर्म कहते हैं.
किसी के भी धर्म को नाश करने की इच्छा करना हिंसा है. उस हिंसा को नष्ट करना राजधर्म है. राजधर्म का पालन न करने वाले राजा भी पाप के भागी होते हैं.
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आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने स्वयं को पक्का सनातनी हिन्दू कहा है. उनके अनुसार हिन्दू वह है जो निम्न मान्यताओं पर श्रद्धा रखता है –
1. वेद सृष्टि के आरम्भ से हैं और वे सर्वपूज्य हैं.
2. कर्मफल अटल है और अनिवार्य है.
3. पुनर्जन्म सत्य है.
4. ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है.
5. प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश है. अतः वह सदा ही पवित्र है. परन्तु अपने चित्त के मल और कषाय के कारण उसे यह आत्मज्ञान नहीं रहता.
6. अहिंसा ही परम धर्म है. अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी के प्रति द्रोहभाव का सम्पूर्ण अभाव. किसी के भी प्रति द्रोह और द्वेष दुर्भाव रखना हिंसा है. हिंसा का अभाव अहिंसा है.
7. गौरक्षा प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है.
सनानत धर्म कोई शासनादेश नहीं है. मीमांसा है. अर्थात् मानव किस प्रकार आनन्द प्राप्त कर सकते हैं और किन कारणों से दुःखी होते हैं, इसकी विवेचना ही सनानत धर्म के रूप में की गई है. वह ज्ञान-राशि है. राजकीय आदेश नहीं.
भगवान बुद्ध ने भी अपने द्वारा उपदेशित धर्म को आर्य-धर्म, सद्धर्म तथा सनातन धर्म- तीनों ही विशेषण समय-समय पर दिए हैं.
सनातन धर्म के ज्ञान के प्रकाश में विविध समूह, समुदाय, राज्य और देश अपने-अपने कुल, क्षेत्र, जनपद, पंथ या राज्य की परम्पराओं के अनुसार सामाजिक व्यवस्था एवं नियम बनाते रहे हैं. इसीलिए उनमें भिन्नता एवं विविधता है और फिर भी वे सभी सनातनी ही कहे जाते रहे हैं.
जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाजी एवं सनातनी हिन्दू-सभी को सनातन धर्म का अनुयायी माना जाता है. उनमें निराकार के उपासक, सगुण उपासक, मूर्तिपूजक, अद्वैत उपासक, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सभी आते हैं.
विश्व के अन्य महाद्वीपों एवं देशों में भी सनातन धर्म के व्यापक अनुशासन का व्यावहारिक रूप भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होता रहा है. यह बात पुराणों में विस्तार से कही गई है. साथ ही, अधर्म के भी विविध रूप समाजों, देशों, समुदायों और व्यक्तियों में सामने आते रहते हैं. सनातन धर्म के विपरीत आचरण ही अधर्म है. अधर्म तत्काल भले सुख का आभास दे, परंतु दीर्घकाल में दुखदायी होता है. यही मानव इतिहास का अनुभव है.
(लेखक रामेश्वर मिश्र पंकज एक इतिहासकार और राजनीतिक वैज्ञानिक हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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