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Monday, 9 December, 2024
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भारतीय व्यवसायी आशंकित भले हों लेकिन वे अभी भी मोदी सरकार को अपने लिए सबसे मुफीद मानते हैं

व्यवसायी वर्ग चाहता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार वापस आए लेकिन वह अल्पमत सरकार हो और गठबंधन के सहयोगियों की बैसाखी के सहारे हो, जो उसकी किसी ज्यादती पर लगाम कसे रहें.

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भारतीय व्यवसाय जगत के परिदृश्य का विरोधाभास आज यह है कि भाजपा की चुनावी जीत पर शेयर बाजार जबकि खूब जश्न मना रहा है, लेकिन कई व्यवसायी केंद्र में भाजपा की सरकार से डरे हुए हैं. 4 साल पहले राहुल बजाज (अब दिवंगत) ने गृहमंत्री अमित शाह से कहा था कि उद्योगपति सरकार की आलोचना करने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि “इसको ठीक नहीं मान जाएगा”. बजाज ने यह भी कहा था कि उनके उद्योगपति मित्रों में से कोई भी इस बात को कबूल करने की हिम्मत नहीं करेगा. उन्होंने इस स्थिति की तुलना मनमोहन सिंह सरकार के दिनों से की थी, जब कोई भी सरकार की आलोचना खुलकर कर सकता था.

इसके जवाब में शाह ने कहा था कि उनकी सरकार ने संसद में और उसके बाहर दूसरी किसी सरकार के मुक़ाबले ज्यादा आलोचना का सामना किया है, और सरकार के जवाब को लेकर डरने की कोई जरूरत नहीं है. उन्होंने यह भी कहा था कि न ही सरकार किसी को डराने का इरादा रखती है. लेकिन यदाकदा जो संकेत दिया जाता रहा है वह यही बताता है कि व्यवसायी लोग सरकार और उसकी ‘एजेंसियों’ से सहमे हुए हैं. बिजनेस लॉबी समूहों का कहना है कि उन्हें सरकार की सार्वजनिक तौर पर आलोचना न करने की सलाह दी गई है. लेकिन, विदेशी संस्थागत निवेशकों और घरेलू निवेशकों के मूड को दर्शाने वाले शेयर बाजार को कोई डर नहीं है, केवल उम्मीदें हैं.

अक्सर सुना जाता है कि व्यवसायी लोग यह तो चाहते हैं कि अगले चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार वापस आए लेकिन वे चाहते हैं कि वह अल्पमत सरकार हो और गठबंधन के सहयोगियों की बैसाखी के सहारे हो, जो उसकी किसी ज्यादती पर लगाम कसे रहें. कहानियां सुनाई जाती हैं कि चहेते व्यवसायियों की नजर जिन कंपनियों पर होती है उनके मालिकों पर टैक्स वाले किस तरह पीछे पड़ते हैं, और वह कंपनी जब दूसरे हाथ में चली जाती है तब टैक्स वाले किस तरह उसे भूल जाते हैं. किसी कंपनी के दिवालिया घोषित होने की प्रक्रिया में जब कोई व्यवसायी नीलामी में बोली लगाने का इरादा करता है तो किस तरह उसे उससे दूर रहने की सलाह दी जाती है जबकि ज्यादा चहेता जो होता है वह नीलामी में जीत जाता है. ऐसी और भी कहानियां.

फिर भी, व्यवसायी लोग, मोदी सरकार चाहते हैं क्योंकि उसने व्यवसाय के लिए अनुकूल कई कदम उठाए हैं. कॉर्पोरेट टैक्स की दर घटा दी गई है, और घरेलू उत्पादकों को आयात से प्रतियोगिता में शुल्कों में छूट देकर राहत प्रदान की गई है (राहुल बजाज समेत अधिकतर व्यवसायी वैश्वीकरण के कभी बड़े हिमायती नहीं रहे). परोक्ष करों में सुधार किया गया है, निवेश के लिए सब्सिडी की पेशकश की जा रही है, और उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं. भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में अभूतपूर्व सरकारी निवेश किया जा रहा है. तो अब आलोचना करने के लिए क्या बचा है?

व्यवसायी देख रहे हैं कि मोदी सरकार स्थिरता और निरंतरता दे रही है. गठबंधन सरकारों वाली अराजकता कोई नहीं चाहता (चुनाव के बाद गैर-भाजपा सरकार की क्षीण संभावना के कारण), या मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी वर्षों में नीतिगत गतिरोध कोई नहीं चाहता. कांग्रेस राज के मुक़ाबले इस राज में ‘टैक्स आतंक’ कम है या नहीं. यह शायद एक खुला सवाल है लेकिन एक और कारक भी है. कांग्रेस मुख्यतः जनकल्याण और ‘रेवड़ी’ के वादे कर रही है, जिसका मतलब होगा वित्तीय लापरवाही. पार्टी इसके साथ व्यवसाय जगत के हक़ में कोई संदेश नहीं दे रही है.

इतिहास कमजोर तुलनाएं प्रस्तुत करता है. आर्थिक इतिहासकर तीर्थंकर रॉय ने अपनी किताब ‘अ बिजनेस हिस्टरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि मुगल साम्राज्य के विस्तार ने एक ऐसा आर्थिक माहौल बनाया था जिसमें व्यवसायी (मुख्यतः पंजाबी खत्री और मारवाड़ के व्यापारी) पूरब की ओर बढ़ सके क्योंकि मुगलिया सल्तनत का विस्तार बंगाल तक हो गया. राय कहते हैं कि जब मुगल साम्राज्य के पतन के कारण उथल-पुथल मची तो व्यवसायी उधर चल पड़े जहां स्थिरता थी और सामंतवाद से मुक्ति उपलब्ध थी— अंग्रेजों के अधीन बंबई, मद्रास, और कलकत्ता. इसलिए केवल मीर जफर ने प्लासी में क्लाइव की मदद नहीं की, उस समय के सबसे प्रभावशाली व्यवसायी जगत सेठ भी मदद देने वालों में शामिल थे. 1857 की बगावत के दौरान भी भारतीय व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी का समर्थन कर रहे थे. रॉय ने ब्रिटेन और उसके साम्राज्य के इतिहासकार क्रिस बेली को उद्धृत किया है कि भारतीय पूंजीवाद और ब्रिटिश पूंजीवाद के बीच वह एक असहज परस्पर निर्भरता थी.

मुद्दा यह है कि व्यवसायी समृद्ध होना चाहते हैं; वे अनिश्चितता नहीं चाहते, जिसका अर्थ है जोखिम. इसके आगे वे राजनीतिक नास्तिक होते हैं. 1980 के दशक तक वे कांग्रेस की नीतियों के कारण उससे नाखुश थे; 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद ही उन्होंने अपना रुख बदला. अब भाजपा उनकी पसंद है क्योंकि वह उन्हें वह सब दे रही है जो अपने-अपने दौर में मुगलों और अंग्रेजों ने दिया था : स्थिर राजनीतिक व्यवस्था, और ऐसा माहौल जिसमें व्यवसाय फले-फूले. प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन कह गए हैं, इतिहास खुद को दोहराता भले न हो, लेकिन अक्सर अपनी तुकबंदी पेश करता रहता है.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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