फ़ारूक़ अब्दुल्ला के बेतुके बयान कि चीन की मदद से कश्मीर में अनुच्छेद 370 को बहाल किया जाना चाहिए, केवल भारतीय जनता पार्टी की हमेशा से रही इस मान्यता की पुनर्पुष्टि हुई है कि अब्दुल्ला कश्मीर के लिए सबसे बड़ी समस्या रहे हैं. यह उम्मीद कि वे समाधान का हिस्सा हो सकते हैं, दरअसल कांग्रेस पार्टी द्वारा दशकों तक खेली गई एक शातिराना और छलपूर्ण चाल थी, जिसके कारण जनवरी 1990 में घाटी से कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन हुआ, और उसके बाद तीन दशकों तक वहां कट्टरपंथी उग्रवाद का क्रूर खेल चला.
5 अगस्त 2019 को जब नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया और इस तरह 35ए को अप्रभावी बनाया, और जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया, तो एक महत्वपूर्ण अंतर्निहित उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि भाजपा कश्मीर में अब्दुल्लाओं या मुफ़्तियों को हितधारकों के रूप में नहीं देखती. वास्तव में, हमारा संकल्प आम कश्मीरियों की भावनाओं पर आधारित है, जिन्होंने दोनों परिवारों से धोखा खाया है- मुफ़्तियों से कहीं अधिक अब्दुल्लाओं से, क्योंकि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उन्होंने लंबा वक़्त बिताया है.
चूंकि अब्दुल्लाओं ने हमेशा कश्मीर की विशेष स्थिति को, राज्य की विकास संबंधी बुनियादी ज़रूरतों की अनदेखी करते हुए, असीमित सौदेबाजी और ब्लैकमेलिंग को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, इसलिए विवादित अनुच्छेदों के वैध निरस्तीकरण के बाद घाटी की राजनीति से उनकी बेदखली वाजिब है.
उमर अब्दुल्ला को स्थिति का सही अहसास हो गया और उन्होंने राज्य की राजनीति से बाहर रहने का विकल्प चुना. अपनी पूर्ण हताशा के कारण मौजूदा सांसद फ़ारूक़ ने कुछ अपमानजनक टिप्पणियां की हैं, जिसके लिए उन पर आसानी से राजद्रोह का मुक़दमा चलाया जा सकता है. लेकिन हमारे लिए इससे बेहतर होगा उन्हें अपनी लोकसभा सीट पर धूल चाटते देखना, बशर्ते वह अभी भी चुनाव लड़ना चाहते हों. संभावना यही है कि वह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि वह पूरे कश्मीर में बदले हुए राजनीतिक मिजाज़ से वाकिफ़ हैं.
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पतन का कारण
अब्दुल्लाओं ने ऐसा क्या किया कि जिसके कारण उनकी स्थिति में अपरिवर्तनीय गिरावट आ चुकी है? क्या वे कश्मीर के लोगों की वास्तविक आकांक्षाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए अपना दोहरा खेल कुछ ज़्यादा खेल गए? आखिरकार, भारत के दुश्मनों के साथ पींगें बढ़ाना भारी जोखिम वाला खेल है, जो सीमित समय में ही कारगर हो सकता है. इसे हर समय एक हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अब्दुल्लाओं ने, कांग्रेस की मदद से, लगातार सात दशकों तक इसका इस्तेमाल किया, जिसके कारण हथियार की धार खत्म हो चुकी है.
चीन से अब्दुल्लाओं का मोह नया नहीं है. शेख़ अब्दुल्ला भारत-पाकिस्तान युद्ध के साल और भारत-चीन युद्ध के महज तीन साल बाद, 1965 में, अल्जीयर्स गए थे और उन्होंने तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई से मुलाकात की थी. वहां से लौटने के बाद तीन साल तक शेख़ को हिरासत में रखा गया. यह उनका दूसरा जेल प्रवास था. उससे पहले ‘कश्मीर षड्यंत्र मामले‘ में 1953 से लगभग 11 साल तक वह जेल में रहे थे.
शेख़ भारत को धमकाने के लिए पाकिस्तान के इस्तेमाल की राजनीति बेशर्मी से करते थे. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद, उन्हें हमारे उत्तरी पड़ोसी में भी आशा की किरण दिखाई देने लगी थी. तत्कालीन कांग्रेस पार्टी शेख़ की चालबाज़ियों को अच्छे से समझती थी. हालांकि शेख़ की बार-बार की जेलयात्रा उतनी हैरत की बात नहीं थी, जितनी उसी कांग्रेस द्वारा जम्मू-कश्मीर में शीर्ष पर शेख़ को बारंबार दोबारा स्थापित करने की कवायद. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी मौत से पहले 1963 में ऐसा किया था. जबकि इंदिरा ने 1975 में शेख़ के साथ समझौता किया. दोनों अवसरों पर, कांग्रेस चाहती तो शेख़ अब्दुल्ला से हमेशा के लिए छुटकारा पा सकती थी. इसके बजाय, उसने आग से खेलने का विकल्प चुना.
शेख़ अब्दुल्ला की 1982 में मृत्यु के बाद, उनके अनुभवहीन पर तेज-तर्रार बेटे, फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने मानो नैसर्गिक दावेदारी के तहत जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री का पद संभाला.
हालांकि फ़ारूक़ के पक्ष में इस बात का ज़िक्र किया जाना चाहिए कि जब उन्होंने पदभार संभाला, तो उनकी राजनीति पिता की तुलना में कहीं अधिक मुख्यधारा की थी. भारत के साथ कश्मीर के भविष्य में उनका भरोसा अपने पिता की तुलना में कहीं अधिक था. भारत के कश्मीरी मुस्लिम राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की उनकी खुद की महत्वाकांक्षा शायद इसकी एक वजह रही हो. लेकिन यह एक असुरक्षित कांग्रेस को बेचैन करने के लिए पर्याप्त थी, जो तब तक इंदिरा गांधी की मनमर्ज़ी पर चलने लगी थी.
यह बात 1984 में विधायकों के दलबदल के कारण तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन द्वारा फ़ारूक़ की बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त किए जाने देखी जा सकती थी. लेकिन केवल दो साल बाद फिर से फ़ारूक़ को मुख्यमंत्री बना दिया गया, इस बार राजीव गांधी के साथ हुए समझौते के तहत.
कश्मीर अब्दुल्लाओं को पीछे छोड़ चुका है
उस समझौते ने, जैसा कि मैंने 2018 में लिखा था, कश्मीर के लोगों को आक्रोश से भर दिया, जिसके कारण ‘घाटी में कट्टरपंथी इस्लामी ताक़तों में भारी एकजुटता आई’. उसके परिणामस्वरूप गठित मुस्लिम यूनाइटेड फ़्रंट (एमयूएफ) ने ऐसे कई नेताओं को जन्म दिया जिन्होंने भारत के खिलाफ हथियार उठाए. अनिश्चितता और अराजकता के 1987 के उस दौर ने आगे चलकर सबसे बुरे प्रकार के सशस्त्र चरमपंथ का रूप धारण कर लिया.
उसके बाद 1989 में घाटी से कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन शुरू हुआ, और फिर 19 जनवरी 1990 की दुर्भाग्यपूर्ण रात कश्मीर में चहुंओर आज़ादी की नारे गूंजे. उस रात का ज़ख्म, जब चरमपंथियों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया और लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा, आज भी अनेकों कश्मीरी पंडितों के दिलों में हरे हैं. उसके दो दिन बाद सीआरपीएफ की एक जवाबी कार्रवाई में गावकदल पुल पर करीब 50 निहत्थे कश्मीरी मुस्लिम प्रदर्शनकारी मारे गए थे.
गावकदल नरसंहार के तुरंत बाद फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया और वे सुविधाजनक तरीके से विदेश में जाकर रहने लगे. फिर 1996 में घाटी में लोकतांत्रिक प्रक्रिया दोबारा शुरू होने के बाद ही वे सक्रिय राजनीति में वापस लौटे.
फ़ारूक़ 1990 के दशक में अपनी मर्ज़ी से कश्मीर छोड़कर गए थे. जबकि इस बार अब्दुल्लाओं के पास कोई विकल्प ही नहीं रह गया है. कश्मीर अब उनके कहे को सुनने के लिए तैयार नहीं है. कश्मीर अब्दुल्लाओं और मुफ़्तियों को पीछे छोड़ चुका है.
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(तुहिन सिन्हा @tuhins लेखक और भाजपा के नेशनल मीडिया पैनलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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