‘रायसीना डायलॉग’ की दसवीं कड़ी का आयोजन नई दिल्ली में 17-19 मार्च को किया गया. इसका, उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. भारतीय विदेश मंत्रालय और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा प्रायोजित इस डायलॉग ने बीते दस साल में अपना रुतबा बढ़ाया है और दुनियाभर के वरिष्ठ सत्ताधारियों और कूटनीतिज्ञों को आकर्षित कर रहा है. भू-राजनीति से लेकर जलवायु परिवर्तन तक तमाम वैश्विक मसलों पर चर्चा और बहस के इस मंच ने इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर भारत की भूमिका को मजबूती दी है, जिसे कई विदेशी वक्ताओं ने भी स्वीकार किया है. इसमें शरीक हस्तियां इस मौके का उपयोग भारतीय हस्तियों से मुलाकात करने और मुख्य संवाद के साथ-साथ प्रमुख अग्रणी विचारकों के साथ बैठकें करने के लिए भी करती हैं. इस बार का संवाद ट्रंप-2 शासन की घरेलू तथा विदेशी नीतियों के विश्वव्यापी परिणामों की आशंका की छाया से प्रभावित रहा, इनको लेकर चिंताएं बंद कमरों की चर्चाओं में ज्यादा खुलकर व्यक्त की गईं.
‘अमेरिका फर्स्ट’ वाले रुख ने विश्व-व्यवस्था में, जो कि यथास्थिति की आदी हो चुकी थी, उथल-पुथल कर दिया है. इसने पुराने गठबंधनों पर सवालिया निशान लगा दिया है, दोस्तों को दुश्मन बना दिया है और दुश्मनों की एक-दूसरे के करीब ला दिया है. इस तरह का विध्वंसक नेतृत्व स्थापित संस्थाओं और नौकरशाही ढांचों को चुनौती देता है और अक्सर बेहतर तथा कुशल परिणाम देता है. फिलहाल, शुरुआती घोषणाओं ने क्षेत्रों और समूहों को अपनी समस्याओं को और उनके लिए अपनी ज़िम्मेदारी को कबूलने पर मज़बूर किया है. यह बात यूरोपीय संघ और उसके नाटो सदस्यों पर सबसे ज्यादा लागू होती है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर की यह टिप्पणी याद कीजिए : “…यूरोप सोचता है कि उसकी समस्याएं पूरी दुनिया की समस्याएं हैं…लेकिन दुनिया की जो समस्याएं हैं वह यूरोप की समस्याएं नहीं हैं…” इसी तरह, गाज़ा पट्टी पर कब्ज़ा करने और उसे पूरब का ‘रिवेरा’ बना देने की धमकी जैसे विध्वंसक प्रस्ताव का पश्चिम एशिया ने फौरन विरोध किया.
यूक्रेन और रूस के बीच वार्ता करवाने और पुतिन को रियायतें तक दिलवाने की पेशकश करके अमेरिका ने युद्ध को अस्थायी तौर पर ही सही, रोकने की ज़रूरत को एक बार फिर दोहराया है. पिछले अमेरिकी शासन से इस तरह के रुख की कल्पना नहीं की जा सकती थी. यह प्रधानमंत्री मोदी की इस भविष्यदर्शी टिप्पणी को प्रतिध्वनित करता है कि “यह युद्ध का दौर नहीं है”. अमेरिका ने रूस की तरफ जो हाथ बढ़ाया है उसने इस युद्ध के मामले में भारत के सिद्धांतवादी रुख को; उसकी रणनीतिक स्वायत्तता और अमेरिका, रूस, चीन के साथ संबंधों संतुलन बरतने के उसके प्रयासों को सही साबित किया है. भारत ने अमेरिका के दबाव में अपने पुराने मित्र रूस से संबंध अगर तोड़ लिया होता, तो अब अमेरिका ने जो पलटी मारी है उसके चलते वह मुश्किल में फंस जाता.
अमेरिका ने बिना भेदभाव किए दुनिया के सभी देशों पर जिस तरह शुल्क (टैरिफ) थोपने का एकतरफा फैसला किया है वह विश्व व्यापार और अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसकारी साबित हो सकता है. अभी इतनी जल्दी यह कहना मुश्किल है कि इन शुल्कों से अमेरिका या विश्व अर्थव्यवस्था को लाभ होगा या नहीं, लेकिन इसके जवाब में कुछ देशों ने रियायतों की पेशकश की, जिससे अमेरिका का रुख कुछ नरम हुआ है. कुछ देशों ने जैसे को तैसा जवाब है. बल्कि चीन ने आगे बढ़कर यह कहा है कि “…अमेरिका अगर युद्ध ही चाहता है, तो ‘टैरिफ’ युद्ध हो व्यापार युद्ध, या और किसी तरह का युद्ध, हम अंत तक लड़ने को तैयार हैं”. चुनौती दे दी गई है, अब वक्त ही बताएगा कि व्यापार युद्ध असली युद्ध में तब्दील होता है या नहीं. फिलहाल तो इसने चीन और भारत को करीब ला दिया है, बावजूद इसके कि दोनों के बीच सीमा विवाद लंबे समय से जारी है. तमाम देश जबकि व्यापारिक सहयोगी की तलाश में रहते हैं, यह विच्छेद अमेरिका को अंततः महंगा पड़ेगा.
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भारत को क्या करना चाहिए
समग्रता में देखें तो ये बदलाव भारत के लिए कुछ फायदेमंद हो सकते थे, लेकिन उनके साथ कुछ चुनौतियां भी जुड़ी होंगी. इसका सकारात्मक पहलू यह है कि अमेरिका-चीन संबंधों में जब भी गिरावट आएगी, भारत खुद को दुनिया की सप्लाइ चेन में मैनुफैक्चरिंग के एक मजबूत केंद्र के तौर पर बीजिंग के विकल्प के रूप में पेश कर सकेगा. भारत को अपने युवाओं को बड़े पैमाने पर रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए इसकी सख्त ज़रूरत भी है. रक्षा मामलों में सहयोग को मजबूत बनाने पर ज़ोर देने और ‘क्वाड’ को बढ़ावा देने से भारत की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा मिलेगा और यह एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के उभार का मुकाबला करने के लिए सहयोगियों की अमेरिकी तलाश के भी अनुकूल होगा.
इसका दूसरा पहलू यह है कि खासकर व्यापार समेत दूसरे मसलों पर ढुलमुल नीतियां भारत के लिए निरंतर बदलती वैश्विक आर्थिक गति से तालमेल बिठाने में दिक्कत पैदा करती हैं, खासकर बोझिल नौकरशाही प्रक्रियाओं के चलते. हमारी नीति लचीली होनी चाहिए ताकि जल्दी से अपनाई और लागू की जा सके और वह हमें आगे रख सके. इसके अलावा, प्रवासियों के मामले में खासकर एच-1बी वीज़ा के मामले में सख्त नीतियां भारतीय कामगारों, खासकर ‘Tech’ समुदाय के लिए काफी नुकसानदेह साबित होंगी. वह न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देते हैं बल्कि भारत को पैसे भेजने के मामले में यूएई में बसे प्रवासी भारतीयों के बाद दूसरे नंबर पर हैं. इसी तरह, खास तौर से जलवायु परिवर्तन के मसले पर और दूसरे अन्य मसलों पर वैश्विक संगठनों और समझौतों से हटने का एकतरफा अमेरिकी फैसला भारत के कूटनीतिक कौशल की कड़ी परीक्षा लेगा.
इस गतिशील भू-राजनीतिक परिस्थिति का सामना करते हुए हमें आसन्न खतरों से भी सावधान रहने की ज़रूरत है. भारत जिन भू-राजनीतिक परिस्थितियों से घिरा है उनके कारण उसे किसी समूह या गठबंधन से ऐसे वादे नहीं करने चाहिए जिनके कारण दूसरे देशों से संबंध बनाने या किसी संकट में ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभाने की उसकी क्षमता कमजोर पड़े. न केवल क्षेत्रीय स्थिरता के लिए बल्कि चीन को परे रखने के लिए भी हमें ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की नीति को और धारदार बनाना होगा. इसके साथ ही, हमें क्षेत्रीय मसलों के सैन्य समाधान के लालच से बचना ही होगा. अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए इसकी जगह हमें आर्थिक समझौतों, कूटनीतिक प्रयासों और अपने ‘सॉफ्ट पावर’ का उपयोग करना चाहिए. आखिरकार, रोज़ाना की ज़िंदगी के सभी पहलुओं, खासकर रक्षा और राष्ट्रीय स्तर के ग्रिडों के मामलों में तकनीकी पर बढ़ती निर्भरता के मद्देनज़र भारत को साइबर सिक्योरिटी को अपने राष्ट्रीय सुरक्षा ढांचे का अहम तत्व बनाना होगा ताकि हम इतने सक्षम हों कि सर्वव्यापी साइबर खतरों से खुद को बचा सकें.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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