नवनियुक्त चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल मनोज पांडे ने कुछ दिन पहले अपने रणनीतिक सोच का खुलासा करते हुए यह भी कहा कि चीन सीमा विवाद का जल्दी समाधान करने का कोई इरादा नहीं रखता है. इस सच्चाई को आधार बनाकर ही भारत की रणनीतिक योजना बनाई जानी चाहिए. इस सोच की जड़ें उस भू-राजनीतिक तर्क में निहित हैं, जो इस सिद्धांत को तरजीह देता है कि चीन की रणनीतिक मंशा उत्तरी सीमा को दबाव का केंद्र बनाना है ताकि भारत अपने राष्ट्रीय संसाधनों का इस्तेमाल अपनी नौसैनिक ताकत को मजबूत बनाने में न कर सके. यह भारत को इस उपमहादेश में ही सीमित करके रखने की व्यापक भू-राजनीतिक कोशिश का ही एक हिस्सा है. और भारत को सीमित करने की नीति वैश्विक शक्ति संतुलन के उस बड़े खेल का हिस्सा है, जो अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों और चीन समेत उसके सहयोगी देशों के बीच जारी है.
वैश्विक शक्ति संतुलन का खेल कई भू-राजनीतिक पहलुओं में चलता है लेकिन इस रणनीतिक रस्साकशी में सैन्य, आर्थिक एवं तकनीकी पहलू भी अहम भूमिका निभाते हैं. भारत के आर्थिक तथा तकनीकी पहलू उसे विकास के अपने लक्ष्यों को मजबूत करने की गुंजाइश तो देते हैं लेकिन सैन्य पहलू सबसे चुनौतीपूर्ण है क्योंकि वह सैन्य तंत्र को ऐसा रूप देने की मांग करता है जिससे पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर हमारी भौगोलिक अखंडता कायम रहे और हमारी नौसैनिक क्षमताओं में भी वृद्धि हो.
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वैश्विक वर्चस्व के खेल में भारत की भूमिका
एक शक्तिशाली नौसैनिक ताकत के रूप में भारत वैश्विक शक्ति संतुलन के खेल में अहम भूमिका निभा सकता है. भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह भूमिका हिंद महासागर क्षेत्र से जुड़ी है, और यहां चीन रणनीतिक दृष्टि से कमजोर है क्योंकि इस क्षेत्र से होकर वे व्यापारिक मार्ग गुजरते हैं जो चीन की आर्थिक वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण हैं. हिंद-प्रशांत क्षेत्र से गुजर रहे व्यापारिक समुद्री मार्ग में खलल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिहाज से सामाजिक-आर्थिक स्थिरता को घातक झटका देगा और आंतरिक अस्थिरता पैदा करेगा जी चीन राज्यसत्ता के लिए भी खतरा पैदा कर देगा. यह खलल कई दूसरे देशों/संगठनों को भी अलग-अलग हिसाब से कुप्रभावित करेगा। इनमें अमेरिका समेत यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, आसियान, भारत, अफ्रीकी संघ, और पश्चिम एशियाई देश शामिल होंगे. बेशक भारी नुकसान तभी होगा जब संबंधित दो या ज्यादा देशों के बीच लड़ाई छिड़ जाएगी.
अर्थव्यवस्थाओं पर जिस तरह के दबाव हैं उनके कारण राजनीतिक बुद्धिमानी यही होगी कि हिंद-प्रशांत व्यापार मार्गों को सबके लिए खुला रखा जाए. इस तरह का विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2018 में शांगरी ला वार्ता के दौरान रखा था. लेकिन 2020 में चीनी हमले के साथ भारत का रुख बदल गया और उसका झुकाव वह पश्चिमी देशों के साथ रणनीतिक सहयोग की ओर बढ़ता गया है, जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ओर बढ़ रहा है और यह सैन्य, आर्थिक, तकनीक, राजनय, और खुफिया मामलों में नुमाया हो रहा है. रणनीतिक रूप से देखें तो भारत अपनी नौसैनिक ताकत बढ़ाने में कमजोर पड़ सकता है लेकिन राजनीतिक पहलू से देखें तो भारत चीन से दूर हो गया है. वैसे, अब उसे व्यापक वैश्विक शक्ति संघर्ष के संदर्भ में पश्चिमी देशों के साथ गहरे रिश्ते के प्रभावों का अनुभव हो रहा है.
ये अनुभव अब यूक्रेन पर रूसी हमले और इसके कारण यूरोप में मची रणनीतिक उथलपुथल के कारण कड़वे हो रहे हैं. भारत इस हमले को मूलतः शीतयुद्ध के इतिहास में जुड़े यूरोपीय टकराव का नतीजा मानता है और इसीलिए उसने इसमें किसी का पक्ष नहीं लिया है. इसके बावजूद पश्चिम के साथ उसके रिश्ते में राजनीतिक ठंडक नहीं आई है, कम-से-कम महत्वपूर्ण तो नहीं है. हमें यहां पर थोड़ा रुकना पड़ेगा.
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चीन पर असर डालता संयुक्त पश्चिमी मोर्चा
रूस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के दबाव के बावजूद भारत-रूस संबंध यथावत बने हुए हैं. अंतरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था पर पश्चिम के नियंत्रण का उपयोग करके रूस को वित्तीय संकट में डालने की कोशिश की गई है. अंतरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था पर कब्जे की वैश्विक होड़ जारी है. मूलतः यह डॉलर बनाम युआन की लड़ाई है. प्रतिबंधों के कारण डॉलर के प्रवाह पर रोक लगी है. दूसरी ओर चीन चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय विनिमय में युआन का ज्यादा प्रयोग हो.
फिलहाल इस संघर्ष में चीन कमजोर ही है. यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका और यूरोप के बीच एकता के प्रदर्शन के कारण इस वैश्विक होड़ में चीन पिछड़ गया है. उनकी एकता वैश्विक होड़ में चीन के हितों को चोट पहुंचाती है. 2020 में चीनी हमले ने हिमालय क्षेत्र में भारतीय सैन्य मोर्चे में नयी जान फूंक दी. अब यूक्रेन में रूस को जो अनुभव हो रहे हैं वे चीनी नेतृत्व के इरादों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव जरूर डाल रहे होंगे. ताइवान पर हमला या हिमालय क्षेत्र में और ज्यादा दबाव बढ़ाने की कीमत इतनी ज्यादा हो सकती है कि सैन्य ताकत का इस्तेमाल महंगा पड़ सकता है.
भारत ने मुद्दा आधारित सहयोग करने की जो रुख अपनाया है वह पश्चिम की मोर्चाबंदी मजबूत होने के कारण उसे ज्यादा कुछ करने की छूट देगा. यह संभावना इसलिए बनती है कि लोगों का समर्थन न हो तो सेना भले इलाके पर कब्जा कर ले स्थानीय आबादी के विरोध के कारण उस कब्जे को बनाए रखना काफी महंगा पड़ेगा. चीन अगर ‘सुपर लीग’ में शामिल होना चाहता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय आबादी के बड़े हिस्सों का स्वैच्छिक या जबरन समर्थन हासिल करना ही होगा. लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय में चीन की लोकप्रियता घट रही है. और महामारी तथा यूक्रेन युद्ध के कारण उसकी वैश्विक परियोजनाएं, ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआइ) को झटका लग सकता है. इसका लक्ष्य विभिन्न देशों के लोगों पर नियंत्रण हासिल करना भी है. गौरतलब है कि चीन ने श्रीलंका के आर्थिक संकट का फायदा उठाकर वहां अपना असर बनाने की कोशिश नहीं की है. यह उपमहादेश में आर्थिक प्रभाव बनाने की अड़चनों का भी संकेत देता है.
उपरोक्त अडचनें चीन की आर्थिक वृद्धि में मंदी आने के कारण पैदा हुए उसके आर्थिक संकट का भी संकेत देता है. यूक्रेन युद्ध ने भी दिखा दिया है कि विदेशी जमीन पर अपनी सेना भेजने की क्या ऐतिहासिक सीमाएं हो सकती हैं। इससे सबक लेकर चीन अपनी योजनाओं का पुनः आकलन कर रहा होगा. ज्यादा अहम बात यह भी है कि ऐसा भारत के साथ उसके टकराव में भी हो रहा होगा. मौजूदा वैश्विक संदर्भों में, अनिश्चित शांति के साथ उत्तरी सीमा पर सैन्य दबाव बाने रखने की सामरिक तैयारी चीन को सीधी लड़ाई से ज्यादा अनुकूल लगेगी.
इस तरह की सामरिक तैयारी उत्तरी सीमा पर यथास्थिति बहाल करने से जुड़ी होगी. लेकिन भारत के लिए इस तैयारी का रणनीतिक बोझ पुराने समझौतों और सहमतियों को बनाए रखने की व्यवस्थाओं पर निर्भर होगा. भारत इस दिशा में जो पहल करेगा उसे चीन की सीमा संबंधी व्यापक लक्ष्यों के मद्देनजर तय करना पड़ेगा, क्योंकि चीन भारत को उलझाए रखना चाहता है और उसे उन ताकतों का भी सामना करना पड़ सकता है जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर उसके बढ़ते प्रभाव और उसकी गति को रोकना चाहती हैं.
(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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