किसी सच्चे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में संभवत: हिजाब विवाद कभी इतना गंभीर न बनता. बहुत संभावना इस बात की होती कि हिजाब पहनकर कालेज आई लड़कियों से कह दिया जाता कि वे निजी तौर पर, हिजाब पहने या न पहनें, लेकिन स्कूल और कालेज में इसे पहनकर न आएं, क्योंकि ये सार्वजनिक स्थान हैं.
लेकिन ऐसा कहने वाले राष्ट्र को सभी धर्मों के प्रति यही व्यवहार रखना होगा, तभी उसकी बाद निर्विवाद रूप से मानी जाएगी. ऐसा करने के लिए किसी राष्ट्र का सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष होना होगा. राजकाज और सार्वजनिक जीवन में धर्म के हस्तेक्षप को दूर रखना अगर किसी राष्ट्र का बुनियादी सिद्धांत हो तो ही ऐसा करना संभव है.
लेकिन भारत में मामला इतना आसान नहीं है. चूंकि इस समय कर्नाटक हाईकोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा है और इस बारे में उसका फैसला आना है, इसलिए केस के मेरिट पर कोई टिप्पणी करना इस समय उचित नहीं होगा. मैं इस समय हिजाब मामले को राजसत्ता, धर्म और निजी स्वतंत्रता के व्यापक दायरे में देखने की कोशिश करूंगा ताकि ये बात समझ में आए कि भारत में धर्म के सार्वजनिक आचरण को लेकर लगातार विवाद क्यों होते रहते हैं और ये विवाद इतनी बड़ी मुसीबत क्यों बन जाते हैं.
दरअसल हिजाब और ऐसी ही अन्य समस्याएं- धर्म स्थलों में लाउडस्पीकर बजने से लेकर, धर्म स्थलों पर सरकार के नियंत्रण- इसलिए आ रही हैं क्योंकि भारत में धर्म और राजसत्ता के रिश्ते को लेकर घालमेल है. कई लोग हिजाब विवाद के बाद कह रहे हैं कि भारत पहले ऐसा तो नहीं था. मिसाल के तौर पर युवा कांग्रेस के अध्यक्ष ने ट्विटर पर लिखा- ‘ये मेरे सपनों का भारत नहीं है.’
This is not my Karnataka,
This is not my India ??I am sorry, We are sorry!! pic.twitter.com/QiDHv37D0l
— Srinivas BV (@srinivasiyc) February 8, 2022
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भारत की अपने किस्म की धर्मनिरपेक्षता
ये सच है कि हिजाब विवाद में जिस तरह से लड़कियों को डराया-धमकाया जा रहा है और जिस तरह हिंदुत्ववादी युवाओं का उत्पात नजर आ रहा है, उससे देश के काफी लोग परेशान हैं. लेकिन इसे लेकर चौंकने या आश्चर्यचकित होने का कारण नहीं है. मेरा तर्क ये है कि बहुसंख्यक लोगों की दादागिरी का विचार भारतीय धर्मनिरपेक्षता में ही निहित है. भारतीय राजसत्ता और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में जो टकराव है, उसी का एक परिणाम है हिजाब विवाद.
दरअसल भारत कभी भी सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर राष्ट्र नहीं रहा. धर्मनिरपेक्षता का विचार यूरोप से आया है और इसका स्रोत चर्च और राजसत्ता के बीच के संघर्षों में है, जिसमें आखिरकार चर्च को पीछे हटना पड़ा था. इसके बाद ही ये विचार आया कि चर्च और पादरियों को धर्म-कर्म संभालना चाहिए और राज्य के कार्यों में उन्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. इसलिए आप पाएंगे कि सेक्युलरिज्म को परिभाषित करने की हर कोशिश में धर्म और राजसत्ता के बीच के विभाजन या अलगाव को माना गया है. मिसाल के तौर पर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में सेक्युलरिज्म का मतलब एक ऐसा विचार है, जिसमें समाज के कामकाज, शिक्षा आदि में धर्म का हस्तक्षेप नहीं होगा. वहीं कैंब्रिज डिक्शनरी बताती है कि सेक्युलरिज्म एक ऐसा विश्वास है कि धर्म को राष्ट्र की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए. मरियम वेबस्टर और कॉलिंस डिक्शनरी भी सेक्युलरिज्म की ऐसी ही परिभाषाएं देती हैं.
इन परिभाषाओं में सेक्युलरिज्म को नास्तकिता या धर्म के विरोध की तरह नहीं देखा गया है. बल्कि, इन तमाम परिभाषाओं में धर्म को निजी विश्वास और व्यवहार के तौर पर मान्यता दी गई है. यानी किसी धर्म को मानने या किसी भी धर्म को न मानने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी सेक्युरिज्म का आधार है. शर्त सिर्फ इतनी है कि धर्म और उसके संचालक राजकाज में हस्तक्षेप न करें.
भारत में हम जिसे सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता कहते हैं, वह सेक्युलरिज्म की क्लासिकल और वैश्विक परिभाषाओं पर खरी नहीं उतरती. ये सही है कि भारत ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए सेक्युलर शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ लिया है. वहीं आर्टिकल 25 हर नागरिक को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है, बशर्ते उसका ऐसा करना कानून व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को क्षति न पहुंचाती हो.
राज धर्म के स्थान पर हिंदुत्व
लेकिन, भारत का संविधान कहीं भी राजकाज से धर्म को अलग रखने की बात नहीं करता. इसका मतलब ये है कि प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द के होने के बावजूद ऐसी कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है कि शासन धर्म का इस्तेमाल नहीं करेगा और धर्म शासन में दखल नहीं देगा. संविधान निर्माताओं ने इस मसले को ढीला-ढाला रखा और हम आगे देखेंगे कि ये सोच भारतीय राष्ट्र की बुनियाद में ही है कि धर्म और राष्ट्र को अलग नहीं रखना है.
भारत में सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता को ‘सर्व धर्म समभाव’ के रूप में समझा गया है. यानी राजसत्ता सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार करेगी और शासन के लिए सभी धर्म समान होंगे. लेकिन जिस राष्ट्र में 78 प्रतिशत लोग जनगणना में खुद को हिंदू लिखते हैं, वहां सभी धर्मों के समान होने का सीधा मतलब हिंदुओं का वर्चस्व है.
हिंदुओं का वर्चस्व ही भारतीय राष्ट्र का मूल स्वभाव है. इसलिए सरकारी कार्यक्रम अक्सर गणेश वंदना या सरस्वती वंदना से शुरू होते हैं और अतिथि दीप प्रज्ज्वलित करते हैं. इसे कल्चर कहा जाता है. जो बहुसंख्य लोगों का धार्मिक व्यवहार है, वह भारतीय कल्चर है.
इसलिए जब किसी सरकारी इमारत, पुल या रेल लाइन आदि का उद्घाटन होता है तो पूजा होती है और नारियल फोड़ा जाता है. यहां तक कि समुद्री पोत या युद्धक विमान को जब फौज में शामिल किया जाता है, तो रक्षा मंत्री सहजता से उस पर हिंदू धार्मिक चिन्ह स्वस्तिक बनाते हैं या नारियल फोड़ते हैं. ढेरों सरकारी शिक्षा संस्थानों में सरस्वती की प्रतिमा है और हर धर्म के स्टूडेंट्स को उनके पास से गुजरना होता है और ये सामान्य बात मानी जाती है. दिल्ली में पत्रकारिता की ट्रेनिंग का संस्थान आईआईएमसी के गेट पर ही सरस्वती की मूर्ति लगी है.
यही नहीं, हिंदी के पाठ्यक्रमों में तुलसी और सूरदास के धार्मिक टेक्स्ट पढ़ाए जाते हैं और ये भी सामान्य ही है. यहां तक कि इसरो जब कोई सैटेलाइट लॉन्च करता है तो उससे पहले इसरो के चीफ तिरुपति मंदिर में सार्वजनिक तौर पर पूजा करते हैं. और तो और सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ये आदेश देती है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए केंद्र सरकार ट्रस्ट बनाए.
इस तरह हम देख सकते हैं कि सर्व धर्म समभाव जब जमीन पर उतरता है तो कैसे हिंदू धर्म के वर्चस्व में तब्दील हो जाता है. इस सांस्कृतिक वर्चस्व को सेक्युलर और कम्युनल दोनों तरह की सरकारें सम भाव से लागू करती रही हैं.
धर्म का राजकाज पर असर कितना व्यापक है, इसे समझने के लिए एक और उदाहरण देखें. कई सर्वे यह साबित कर चुके हैं कि सभी दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह, कर्नाटक के सभी धर्मों के ज्यादातर लोग मांसाहारी हैं. इसके बावजूद कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में मिड डे मील में लहसुन और प्याज नहीं होता. यहां तक कि यहां मिड डे मील में अंडा भी नहीं दिया जाता था. बाद में पोषाहार विशेषज्ञों और डॉक्टरों के बार बार बताने पर सिर्फ सात जिलों में बच्चों को मिड डे मील में अंडा दिया जा रहा है और इसका भी काफी विरोध हो रहा है.
आप समझ सकते हैं कि धार्मिक विचार राजकाज के नीतिगत फैसलों को किस हद तक प्रभावित कर रहे हैं.
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धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्या: जिम्मेदार कौन?
ये एक जटिल सवाल है. सेक्युलर लोगों की तरफ से बेहद हल्के तरीके से कई बार कह दिया जाता है कि ये समस्या बीजेपी, खासकर नरेंद्र मोदी के शासन में आने के बाद शुरू हुई. वरना पहले ठीक-ठाक चल रहा था. मेरा तर्क ये है, मुझे मालूम है कि इससे सेक्युलर-लिबरल बुद्धिजीवियों को तकलीफ होगी कि भारत में धर्म और शासन का घालमेल बीजेपी के शासन में आने से बहुत पहले ही हो चुका था.
धर्म और राजनीति को मिलाकर चलना मूलरूप से गांधीवादी विचार है. गांधी जब भारतीय राजनीति में आए तो उनकी चुनौती कांग्रेस को बड़ा बनाने की और आम जनता तक ले जाने की थी. तब तक कांग्रेस वकीलों, जमींदारों और उद्योगपतियों की पार्टी थी. गांधी ने कांग्रेस के समाज सुधार कार्यक्रम बंद कराए और राम धुन से लेकर राम राज्य की अवधारणा को आगे रखा. उन्होंने हिंदू धर्म के मूल आधार वर्ण व्यवस्था का खुलकर समर्थन किया और इस विचार पर वे आखिरी दिन तक टिके रहे कि वर्ण व्यवस्था अच्छी है. ऐसा करके वे महात्मा और गांधी बाबा बन गए, कांग्रेस का भी जन-जन तक विस्तार हुआ और आजादी की लड़ाई भी तेज हुई, लेकिन इस क्रम में उन्होंने हिंदू धर्म को भारतीय राष्ट्र राज्य का अघोषित राज धर्म बनाने का रास्ता साफ कर दिया.
मैंने अपने पहले के एक लेख में बताया कि भारतीय राष्ट्र की स्थापना के दौरान यानी 14-15 अगस्त को जिस तरह से हिंदू प्रतीकों का खुलकर इस्तेमाल किया गया और जिसकी कोई आलोचना नहीं हुई, उससे ही साबित हो गया था कि भारत की दिशा क्या होगी.
उस लेख में मैंने बताया है कि 14-15 अगस्त की घटनाओं का जिक्र लैरी कॉलिंस और डोमनिक लैपियर ने अपनी चर्चित कृति – फ्रीडम एट मिडनाइट- में किस तरह किया है. वे लिखते हैं- ‘ (दक्षिण भारत से लाए गए) दोनों पुजारियों ने जवाहरलाल नेहरू पर पवित्र जल छिड़का, माथे पर पवित्र भभूत लगाया, दंड को उनके हाथों में सौंपा और उन्हें पवित्र अंगवस्त्र पहनाया. नेहरू ने ये सब प्रसन्न भाव से होने दिया. ये कुछ वैसा था मानों कोई तार्किक व्यक्ति ये समझ पा रहा हो कि उसके सामने जो भारी कार्यभार पड़ा है, उसे पूरा करने के लिए हर सहायता की जरूरत है और तांत्रिकों से भी अगर मदद मिलती है, तो उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. घर पर हुए इस समारोह के बाद नेहरू जब 14/15 अगस्त की आधी रात को स्वतंत्रता के समारोह में गए तो उनके बदन से ये सब हट चुका था और उन्होंने अपना चिरपरिचित नेहरू कोट और चुस्त पजामा पहना था और कोट की बटन में ताजा गुलाब टंका हुआ था. यानी नेहरू एक साथ दो अंतर्विरोधी भूमिकाओं में थे, जो उनके वस्त्रों में भी झलकता था.’
वहां से कुछ दूर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सरकारी निवास के लॉन में भी रात में हवन का कार्यक्रम हुआ, जहां ब्राह्मणों ने मंत्रों का उच्चार किया. कॉलिंस और लेपियर लिखते हैं कि – ‘पुरोहित जोर-जोर से मंत्र पढ़ रहे थे और जो लोग कुछ देर बाद आजाद भारत के मंत्री बनने वाले थे, वे हवन कुंड के पास खड़े थे. एक और ब्राह्मण उन पर पवित्र जल छिड़क रहा था.’
आप समझ सकते हैं कि भारत की बुनियाद किस तरह रखी गई थी. इसके बावजूद कांग्रेस के शासन में और एक हद तक वाजपेयी के शासन (जिसमें बीजेपी का बहुमत नहीं था) में भी अल्पसंख्यकों को एक आश्वस्ति थी कि हिंदू बहुलवाद में भी उन्हें अपना कोना मिलता रहेगा.
नरेंद्र मोदी के दौर में वह आश्वस्ति, मुसलमानों का वह भरोसा भी तोड़ा जा रहा है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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