रूसी जनरल आंद्रियान दानिलेविच ने कहा है, ‘काश सैन्य कला एक गणित होता, तब हमें युद्ध करने की जरूरत नहीं होती. आप दोनों तरफ की सेनाओं का समीकरण देख लेते, कुछ हिसाब-किताब लगाते और अपने दुश्मन से कह देते कि ‘हमारी ताकत तुमसे दोगुनी है, जीत हमारी होगी इसलिए हथियार डाल दो’. लेकिन हकीकत यह है कि आप दुश्मन से तीन गुना ताकतवर भी हों तो भी आपको भारी हार का सामना करना पड़ सकता है. युद्ध में अथाह अलग-अलग बातें या औचक घटनाएं भी जुड़ी होती हैं जो इन वस्तुनिष्ठ कारणों को सिफर में बदल देती हैं.’
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने या ज्ञानी जनरल की इस चेतावनी को पढ़ा ही नहीं, या इसकी अनदेखी कर दी. रूसी सेना ताकत के बूते उन्होंने जो दांव खेला वह गतिरोध की सजा बन गई, वह भी हजारों अरब डॉलर और हजारों सैनिकों की जान की कीमत के साथ.
इन घटनाओं में भारत के लिए भी एक अहम सबक है और इसका ताल्लुक न तो तेल की कीमत से है और न भू-राजनीति से. आज़ादी के बाद से भारत की पारंपरिक सेना की श्रेष्ठता पाकिस्तान पर यह दबाव बनाने का भरोसेमंद साधन रही है कि वह कश्मीर में परोक्ष युद्ध को सीमित करें. फिर भी, विचार करने वाली बात यह है कि टैंकों को भेजने का मतलब है पांसे फेंकना, और कोई नहीं कह सकता कि पांसे किस करवट बैठेंगे.
भारत-पाक की गुप्त चैनल
2018 की गर्मियों के बाद से, जब आईएसआई के पोलो खिलाड़ी अधिकारी ने रॉ के एक वरिष्ठ अधिकारी से लंदन के एक होटल में मुलाक़ात की थी, भारत और पाकिस्तान ने युद्ध के खतरे को टालने के लिए नेपथ्य में बातचीत का गुपचुप रास्ता चुन लिया है. भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा द्वारा चलाई जा रही गुपचुप वार्ता पुलवामा संकट के दौरान टूट गई थी मगर अब फिर शुरू हो गई है.
इस्लामाबाद में ब्रिटेन के हाइ कमिश्नर क्रिस्टियन टर्नर ने पिछले सप्ताह कुछ चुनिन्दा हस्तियों के बीच यह कहा कि जनरल बाजवा कुछ रियायतों की मांग कर रहे जिनमें एक यह भी थी कि भारतीय संविधान के रद्द किए गए अनुच्छेद 35ए को वापस बहाल किया जाए. यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर राज्य को यह अधिकार देता है कि वह अपने यहां जमीन खरीदने के लिए ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा तय कर सकता है.
जनरल बाजवा का मानना है कि उन्होंने जिहादियों पर लगाम कस के भारत की मदद की है और इसी वजह से कश्मीर में हिंसा अब तक के सबसे निचले स्तर पर बनी हुई है. ब्रिटिश वार्ताकारों को जनरल बाजवा ने बताया कि कश्मीर में तनाव बढ़ाने के दबावों में वे नहीं आए, जबकि प्रधानमंत्री इमरान खान के अलावा कई उग्रपंथी तत्व भी यह चाहते हैं.
लेकिन भारत को कश्मीर के मामले में रियायत देने की कोई जरूरत नहीं नजर आती, और यह केवल प्रतिशोधी राष्ट्रवाद की बात नहीं है. भारत का मानना है कि पाकिस्तानी फौज ने जिहादी हिंसा पर इसलिए लगाम कसा है क्योंकि सैन्य संकट उसकी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महंगा साबित होगा. इसलिए, भारत को राजनीतिक रियायत देने की जरूरत नहीं महसूस हो रही है.
भारत अपने अनुभव से इन निष्कर्षों पर पहुंचा है लेकिन इन पर पुनर्विचार करने का समय भी आ सकता है.
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भारत-पाक संकट की पुनरावृत्तियां
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते उनके जन्म के साथ ही संकटग्रस्त हो गए. 1947 की लड़ाई ने कश्मीर में पाकिस्तान के लंबे गुप्त अभियान को जन्म दिया. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उस लड़ाई को ‘अनौपचारिक युद्ध’ नाम दिया था. लेकिन इस लड़ाई का अंत अमन के रूप में नहीं हुआ. इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने लिखा है कि 1951 में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी घुसपैठियों के आने के कारण भारत ने अपनी सेना को भेजा. नेहरू का मानना था कि जो युद्ध अपरिहार्य लग रहा है वह न छोटा होगा और न भले लोगों वाला होगा बल्कि, उनका आकलन था कि वह ‘दबी हुई नफरत से भरा कड़वा युद्ध होगा.’
हरेक संकट, और खुले युद्ध ने भारत को कुछ फायदा पहुंचाया मगर वह लाभ टिकाऊ नहीं था.
पाकिस्तान 1951 में पीछे हट गया लेकिन थोड़े ही समय के लिए. 1965 में उसने कश्मीर पर कब्जा करने के लिए अनियमित फ़ौजियों का इस्तेमाल किया. युद्ध के बारे में भारत के सरकारी इतिहास के मुताबिक, 1965 का युद्ध एक तरह से ड्रॉ रहा. यह पाकिस्तान को परोक्ष हिंसा को जारी रखने से रोकने में नाकाफी साबित हुआ.
1971 का युद्ध निश्चित ही ड्रॉ नहीं रहा. फिर भी, रक्षा विशेषज्ञ मनोज जोशी कहते हैं कि पश्चिम की ओर भारत की बढ़त शानदार नहीं रही. ढाका पर कब्जा भी खुशकिस्मती से हुआ. पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी पर कब्जा करना युद्ध का लक्ष्य नहीं था लेकिन ले.जनरल सगत सिंह को मौका दिखा और उन्होंने कब्जा कर लिया.
और महत्वपूर्ण बात यह है कि 1971 में मिली सजा के बावजूद पाकिस्तान एक दशक के अंदर ही पंजाब और कश्मीर में अलगाववाद को बढ़ावा देने लग गया. घटनाएं बताती हैं कि दबाव का सीमित नतीजा ही मिलता है, और वह भी बड़ी कीमत पर. 1999 में भारत ने करगिल युद्ध जीता लेकिन इसके बाद कश्मीर में हिंसा और बढ़ गई, जो 2001-02 में भारतीय संसद पर हमले तक और सैन्य संकट तक जा पहुंची. वास्तव में, उस दौर में भारत ने इतने सैनिक गंवाए जितने करगिल युद्ध में नहीं गंवाए थे.
2001-02 के संकट के बाद जिहादी हिंसा में काफी कमी आई और पाकिस्तान के पूर्व फौजी शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ कश्मीर मसले पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और फिर मनमोहन सिंह से गुप्त वार्ता शुरू करने को मजबूर हुए. उनके उत्तराधिकारी जनरल परवेज़ अश्फाक कयानी ने उलटा रास्ता पकड़ा, जिसके फलस्वरूप 26/11 कांड हुआ.
दबाव की सीमाएं
पहले डाले गए दबावों की तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डाले गए दबाव के नतीजे भी अस्पष्ट मिले. भारतीय ठिकानों- खासकर पठानकोट और गुरदासपुर-पर हुए जिहादी हमलों के बाद भारत ने तब नियंत्रण रेखा (एलओसी) से आगे जाकर हमला किया जब लश्कर-ए-तय्यबा के आतंकवादियों ने उरी में 19 भारतीय सैनिकों को मार डाला. लेकिन इसके बाद आइएसआइ ने कश्मीर में कई फिदायीन हमले किए.
फिर, 2019 में पुलवामा में बमबारी से केंद्रीय पुलिस के 40 लोग मारे गए और भारत ने जब जवाब में जैश-ए-मोहम्मद के अड्डों पर बमबारी की तो पाकिस्तान ने राजौरी में 19 इन्फैन्ट्री ब्रिगेड के मुख्यालय पर लगभग जवाबी हमला किया. बाद में ये दोनों देश आगे खतरनाक टकराव से बचने के लिए विदेशी मित्र जैसे बन गए.
यह आकलन करने की कोई कोशिश नहीं की गई है कि पाकिस्तान ने 2019 में दबाव इतना क्यों बढ़ाया. एक समय मंगला में तैनात पाकिस्तान की मुख्य आक्रमण सेना 1 कोर के कमांडर रहे ले.जनरल तारीक़ ख़ान ने बालाकोट संकट के दौरान एक निजी ऑनलाइन ग्रुप को जो पोस्ट भेजे वे कुछ अंदाजा देते हैं. जनरल ख़ान का कहना है कि 2001-02 के बाद से भारत ने दबाव बनाने की जो भी कोशिश की उसने हमारी परमाणु क्षमता के बूते युद्ध टालने की हमारी स्थिति को कमजोर किया.’ इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तान के लिए ‘अब असंतुलित पारंपरिक युद्ध का खतरा और बढ़ जाएगा.’
अब हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि अगले संकट को भी टाला जा सकेगा या नहीं. साफ तौर पर, जोखिम दोनों के लिए है लेकिन क्या भारत के लिए जोखिम उठाना समझदारी होगी?
यूक्रेन से सबक
सामरिक रणनीति के प्रकांड विद्वान लॉरेंस फ्रीडमैन ने हाल में एक निबंध में लिखा है, ‘व्लादिमीर पुतिन के बारे में ध्यान देने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे एक जासूस हैं, सैनिक नहीं. उनका रुझान गोपनीयता, षड्यंत्र, और बेईमानी की तरफ है; धारणाओं के साथ टोद्मडोड करके अपनी बढ़त बनाने और अपने प्रतिद्वंद्वियों को अस्त व्यस्त करने की ओर है.’ फ्रीडमैन कहते हैं कि इसके विपरीत सैन्य अधिकारियों के लिए यह जरूरी है कि वे ‘अपनी स्थिति के ईमानदार आकलन पर भरोसा करें.’
उन्होंने लिखा है, ‘युद्ध के शुरू में वे अपनी सैन्य ताकत को लेकर मुगालते में फंस सकते हैं और अपनी जीत के बारे में जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे हो सकते हैं लेकिन युद्ध की अपनी कठोर हकीकत होती है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता.’
समय आ गया है कि भारतीय सेना के जनरल देश के राजनीतिक नेतृत्व को भारत की अपनी ठोस हकीकतों का बिलकुल साफ आकलन प्रस्तुत करें. आक्रामक होते चीन के दबाव के मद्देनजर भारत को अपने संसाधनों, पर ध्यान देने और अपनी सेना के आधुनिकीकरण को मजबूत करने के लिए समय चाहिए. पश्चिमी सीमा पर संभावित खतरों के लिए तैयारी करते हुए वह इस मकसद को हासिल नहीं कर सकता.
भारत-पाकिस्तान वार्ता के नतीजों को लेकर बहुत सपने देखने की जरूरत नहीं है. इसके नतीजे युद्ध से इतर से शायद ही हो सकते हैं. फिर भी, जनरल बाजवा वार्ता की मेज पर जो कुछ लाने को तैयार हैं उन पर विचार करने के कई कारण हैं, भले ही इसके लिए राजनीतिक रूप से अजूबी रियायतें देने की जरूरत पड़े.
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