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Friday, 8 November, 2024
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भारत की तालिबान को स्वीकृति रणनीतिक होनी चाहिए, न कि ऐसी कि वह अफगानिस्तान पर फिर से शासन करे

पाकिस्तान के डीजी आईएसपीआर द्वारा इस्लामाबाद के रवैये में बदलाव का सार्वजनिक इजहार उत्साहजनक है, लेकिन पाकिस्तान को अपने नए रुख पर कायम रखने में अमेरिका और चीन दोनों के समर्थन की दरकार होगी.

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अफगानिस्तान इस बात का प्रमाण है कि लड़ाई में तकनीकी श्रेष्ठता मात्र ही युद्ध जीतने के लिए एक पर्याप्त नहीं होती. युद्धों के राजनीतिक परिणाम कूटनीतिक वार्ताओं की मेज पर मिलने वाली सफलताओं पर निर्भर करते हैं. वरना अत्याधुनिक तकनीक से लैस दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश पर्याप्त खून बहाने और महंगे संसाधन लुटाने के बावजूद वहां अनुकूल राजनीतिक परिणाम प्राप्त करने में असमर्थ नहीं रहता. हां, इतना जरूर है कि अमेरिका ने अब तक तालिबान को काबुल की सत्ता हथियाने से रोका है. लेकिन वास्तव में इस उपलब्धि की अहमियत भी तब कम हो गई जब डोनल्ड ट्रंप प्रशासन ने फरवरी 2020 में तालिबान के साथ शांति समझौता कर मान लिया कि चरमपंथी अफगान सरकार के साथ तब तक सत्ता में भागीदारी कर सकते हैं बशर्ते अफगानिस्तान को अमेरिका के खिलाफ आतंकवादी हमले के आधार के रूप में उपयोग नहीं किया जाता हो. यह शांति समझौता अशरफ ग़नी की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार की सहमति के बिना किया गया था. सहयोगियों से पल्ला झाड़ने में अमेरिका को कभी भी ज्यादा परेशानी नहीं हुई है.

शांति प्रक्रिया में 1 मई 2021 तक सभी अमेरिकी सैनिकों की वापसी का लक्ष्य घोषित किया गया था. लेकिन जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद अब ये सौदा खटाई में पड़ता दिख रहा है, क्योंकि अमेरिका को डर है कि अशरफ ग़नी सरकार और तालिबान के बीच सत्ता में साझेदारी का समझौता हुए बिना उसके बाहर निकलने पर तालिबान सत्ता पर कब्जा कर सकता है. अमेरिका समझौते के लिए ग़नी सरकार पर दबाव बना रहा है और शायद पाकिस्तान पर भी कि वह तालिबान को अमेरिकी सैनिकों की आगे भी मौजूदगी समेत कतिपय रियायतें देने के लिए तैयार करे. पाकिस्तान के रुख में कथित बदलाव को 25 फरवरी को डीजी आईएसपीआर के एक ट्वीट के जरिए सार्वजनिक रूप से जाहिर किया गया: ‘आज का अफगानिस्तान वो देश नहीं है, जैसा कि 90 के दशक में था, जिसकी शासकीय संरचना आसानी से ढह गई थी. पाकिस्तान भी बदल चुका है. तालिबान के लिए काबुल पर कब्ज़ा करना और पाकिस्तान द्वारा उसका समर्थन करना अब संभव नहीं है. ऐसा कभी नहीं होगा.’

इस बीच, पाकिस्तान की बुरी आर्थिक स्थिति और परंपरागत अरब सहयोगियों के उससे मुंह मोड़ने के कारण इस्लामाबाद पर अमेरिकी प्रभाव पहले से बढ़ा है.

अंतरअफगान वार्ताओं में संघर्ष विराम; अफगानिस्तान के भावी राजनीतिक रोडमैप पर सहमति; महिलाओं के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और देश के संविधान में परिवर्तन जैसे मुद्दों पर चर्चा होने की उम्मीद है. वार्ताओं में तालिबान लड़ाकों और अन्य सशस्त्र मिलिशिया गुटों के भविष्य को लेकर भी सहमति बनानी होगी. पहली मई की अमेरिकी समय सीमा से पहले ये सब हासिल कर पाना बेहद मुश्किल है.


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बड़े उद्देश्य को भुलाना

बाइडन प्रशासन अफगान सरकार और तालिबान प्रतिनिधियों के बीच उच्चस्तरीय बैठकों में सहयोग कर रहा है. ऐसी ही एक बैठक मार्च में मास्को में आयोजित की गई थी, जिसमें अफगानिस्तान मामलों पर अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय खलीलज़ाद तथा ईरान, भारत, चीन और पाकिस्तान के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे. अगली बैठक इसी अप्रैल में तुर्की में होनी है. इससे पहले तजाकिस्तान में 30 मार्च को आयोजित हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन अफगानिस्तान पर केंद्रित था और उसमें भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था: ‘भारत ने अंतरअफगान वार्ताओं सहित अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच संवाद बढ़ाने के तमाम प्रयासों का समर्थन किया है.’ उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में एक क्षेत्रीय शांति प्रक्रिया शुरू किए जाने को भारत के समर्थन की भी घोषणा की.

भारत में हमेशा से आम धारणा ये रही है कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी नई दिल्ली के हितों के लिए नुकसानदेह साबित होगी क्योंकि तब तालिबान सत्ता में आ सकता है, जो चाबहार पोर्ट के माध्यम से मध्य एशिया तक पहुंचने की भारत की आकांक्षाओं के लिए बाधा बनेगा. इसके अलावा, तालिबान के सत्ता में आने पर आतंकवादी तैयार करने संबंधी गतिवधियों को बढ़ावा मिल सकता है, जिन्हें पाकिस्तान भारत की ओर भेजने की कोशिश करेगा. ये चिंताएं वास्तविक हैं. लेकिन इस तरह के परिदृश्य की कल्पना में शायद बड़े उद्देश्यों की अनदेखी की जाती है.

अफगानिस्तान में ताकत की असली लड़ाई अमेरिका समर्थित अफगान सरकार और पाकिस्तान समर्थित तालिबान के बीच की है. अमेरिका अफगान सरकार के निरंतर समर्थन की अब और कीमत चुकाने को तैयार नहीं है. वह सम्मानजनक तरीके से वहां से बाहर निकलने के लिए बेताब है. अब इस बात की संभावना बढ़ गई है कि अमेरिका पहले पाकिस्तान की मदद से तालिबान को वापसी की आगे खिसकाई गई एक तारीख पर सहमत करने की कोशिश करेगा. मोटे तौर परआगे तीन परिदृश्य बन सकते हैं.

अफगानिस्तान के लिए तीन विकल्प

परिदृश्य एक. अंतरअफगान वार्ताएं विफल हो जाती हैं, और तालिबान एक आक्रामक अभियान शुरू करता है और प्रमुख सड़क यातायात तंत्र पर कब्जा कर प्रांतों पर शासन की अफगान सरकार की क्षमता को कमजोर कर देता है. अमेरिका वहां से वापसी नहीं करता है और अंतरअफगान वार्ताएं ठप पड़ जाती हैं. हिंसा बढ़ती है और अंतहीन गृहयुद्ध तेज हो जाता है.

परिदृश्य दो. अंतरअफगान वार्ताएं विफल रहती हैं. अमेरिका अपने सैनिकों को बाहर निकाल लेता है. तालिबान पाकिस्तान के समर्थन से एक बड़ा हमला शुरू करता है और काबुल पर कब्जा कर लेता है. पाकिस्तान तालिबान सरकार को मान्यता देता है. पूर्व अफगानी सशस्त्र बल उत्तरी अफगानिस्तान में तजाकिस्तान और उज़बेकिस्तान की सीमा पर एकत्रित होते हैं. कुछ बलों को ईरान में शरण दी जाती हैं. तालिबान एक चरमपंथी विचारधारा वाले शासन की स्थापना करता है.

परिदृश्य तीन. अंतरअफगान वार्ताएं सफल रहती हैं. तालिबान सत्ता में भागीदारी करता है. अमेरिका बाहर निकल जाता है. एक या दो साल के लिए एक नाजुक शांति बनी रहती है, लेकिन उसके बाद तालिबान को पाकिस्तान के समर्थन के साथ गृह युद्ध शुरू हो जाता है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय हिंसा रोकने के लिए कुछ खास नहीं करता है. रूस, ईरान, चीन और भारत अफगानिस्तान में अपना पक्ष चुनते हैं और विभिन्न रूपों में सहायता प्रदान करते हैं. पाकिस्तान अमेरिकी दबाव को नजरअंदाज करता है और इस कारण वह चीन के चंगुल में अधिकाधिक फंसता जाता है.

अमेरिका बाहर निकले, अफगान अपना भविष्य तय करें

इन परिदृश्यों में से किसी में भी सुखद अंत नहीं है. हालांकि, अफगानिस्तान में विभिन्न किरदारों का जटिल तंत्र मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाता है जिसे हल किया जाना चाहिए, भले ही इसमें हिंसा एक माध्यम बनता हो. यह अफगान लोगों द्वारा एक अतिवादी धार्मिक इकाई के रूप में तालिबान की अस्वीकृति या स्वीकृति के बारे में है. दशकों के विदेशी हस्तक्षेप ने शांति की लंबी और यातनापूर्ण यात्रा के गंतव्य को दूर करने में योगदान दिया है. इस वैचारिक युद्ध को खुद अफगानों को हल करने देना चाहिए. अंतरफगान वार्ताओं में प्रगति होती हो या नहीं, पर अमेरिका को बाहर निकल जाना चाहिए, और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि सभी अंतरराष्ट्रीय किरदारों को, संभव हो तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से, अफगानिस्तान में हस्तक्षेप नहीं करने पर पारस्परिक सहमति बनानी चाहिए तथा उन्हें वहां केवल मानवीय सहायता और विकासात्मक सहायता प्रदान करनी चाहिए. पाकिस्तान के डीजी आईएसपीआर द्वारा इस्लामाबाद के रवैये में बदलाव का सार्वजनिक इजहार उत्साहजनक है, लेकिन पाकिस्तान को अपने नए रुख पर कायम रखने में अमेरिका और चीन दोनों के समर्थन की दरकार होगी.

भारत द्वारा हाल में तालिबान को दी गई मौन स्वीकृति एक रणनीतिक कदम भर होना चाहिए. सामरिक रूप से, अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता भारत के हितों के लिए नुकसानदेह साबित होगी. भारत को विचारधारा के मोर्चे पर अपने रुख से पीछे नहीं हटना चाहिए, भले ही वो समस्या सुलझाने की जिम्मेदारी अफगानों पर छोड़े जाने का पक्षधर हो. अमेरिका के बाहर निकलने के बाद तालिबान के पास विदेशियों से लड़ने की आड़ में अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने का बहाना नहीं रह जाएगा और यह उनके लिए एक रणनीतिक झटका साबित होगा. भारत के संदर्भ में देखें, तो पाकिस्तान अफगानिस्तान के बहाने अमेरिका पर अपनी पकड़ नहीं रख सकेगा और यह स्थिति हर तरह से हमारे हित में होगी. अमेरिका के अफगानिस्तान से बाहर निकलने के अच्छे परिणाम ही सामने आएंगे. जबकि उसकी मौजूदगी बनी रहने से अफगान लोगों की अंतहीन दुर्दशा और बढ़ जाएगी.

(नीरा मजूमदार द्वारा संपादित)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक तक्षशिला संस्थान बेंगलुरू में स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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